एक शोध के मुताबिक "इंफोडेमिक" ने कोविड-19 से जुड़ी पीड़ा को सोशल मीडिया और अफवाहों के जरिए और अधिक बढ़ाया है. अफवाह के अलावा इससे जुड़े षड्यंत्र के बारे में भी जोर शोर से सोशल मीडिया पर लोग मैसेज पोस्ट कर रहे हैं.
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कोरोना वायरस के बारे में गलत जानकारी के कारण कम से कम 800 लोग मारे गए हैं. यह जानकारी अमेरिकन जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन के ताजा शोध में सामने आई है. विश्व भर में कोरोना से जुड़ी अफवाह के कारण लोगों को आंख की रोशनी से लेकर जान तक गंवानी पड़ी है. बीमारी से जुड़ा कलंक और साजिश के सिद्धांतों ने दुनिया भर में हजारों लोगों की पीड़ा को बढ़ा दिया है.
ऑस्ट्रेलिया, जापान और थाईलैंड जैसे अलग-अलग देशों के अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने अध्ययन के हिस्से के रूप में दिसंबर 2019 और अप्रैल 2020 के बीच संकलित आंकड़ों का अध्ययन किया. शोधकर्ताओं के मुताबिक, "हमने कोविड-19 से जुड़ी अफवाहों पर ध्यान दिया, कलंक और साजिश की थ्योरी जो ऑनलाइन फैलाई जा रही थी, जिनमें फैक्ट चेकिंग वेबसाइट, फेसबुक, ट्विटर और ऑनलाइन न्यूज पेपर शामिल थे और हमने सार्वजनिक स्वास्थ्य पर उनके प्रभावों का अध्ययन किया."
नतीजों से पता चला कि करीब-करीब 800 लोगों की मौत हो गई जब उन्होंने इस उम्मीद के साथ अत्यधिक गाढ़ी शराब पी ली कि यह शरीर को डिसइंफेक्ट कर देगी. मेथेनॉल पीने के कारण 5,900 लोगों को अस्पताल में भर्ती कराया गया और 60 लोगों की दृष्टि चली गई.
अफवाह और साजिश के सिद्धांत
भारत में सैकड़ों लोगों ने संक्रमण को रोकने के लिए सोशल मीडिया पर झूठी जानकारी के कारण गाय का पेशाब पीया या गाय का गोबर खाया. सऊदी अरब में ऊंट के पेशाब को चूने के पानी के साथ इस्तेमाल को कोरोना के खिलाफ कारगर बताया गया. वैज्ञानिकों ने अन्य और अफवाहों पर शोध किया, जैसे कि लहसुन खाना, गर्म मौजे पहनना और छाती पर बत्तख की चर्बी को रगड़ने से बीमारी का इलाज होना शामिल है. साजिश के सिद्धांतों पर भी वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया. उदाहरण के लिए, महामारी एक जैविक हथियार है जिसे बिल गेट्स वैक्सीन के अधिक बिक्री के लिए वित्त पोषित कर रहे है.
यह रिपोर्ट 87 देशों की 25 भाषाओं में उपलब्ध डाटा का विश्लेषण करती है, अध्ययन में पाया गया कि कुछ एशियाई देशों में, महामारी को रोकने के लिए काम कर रहे स्वास्थ्यकर्मियों और संक्रमित नागरिकों को बदनाम करने की बार-बार कोशिश की गई है. नतीजतन उन्हें कई बार गालियां सुननी पड़ी और शारीरिक हमले सहने पड़े.
शोधकर्ताओं के मुताबिक, "महामारी के दौरान, एशियाई मूल के लोगों और स्वास्थ्य देखभाल श्रमिकों को दुर्भावनापूर्ण और शारीरिक रूप से नुकसान पहुंचाया गया." इस शोध के नतीजों के बाद वैज्ञानिकों ने सरकारों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों से फेक न्यूज को फैलने से रोकने के लिए कड़ी कार्रवाई करने का आग्रह किया है. उन्होंने सोशल मीडिया कंपनियों के साथ सटीक जानकारी और सूचना के प्रसार में सहयोग की भी अपील की है.
बच्चों को कोरोना वायरस से “करीब करीब सुरक्षित" बताने वाला अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का वीडियो तो सोशल मीडिया साइटों से हटा दिया गया. लेकिन बच्चों में कोरोना के खतरे को लेकर कई भ्रांतियां फैली हुई हैं.
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गंभीर रूप से बीमार होने का खतरा कम
बच्चों के कोरोना वायरस से गंभीर रूप से बीमार होने का खतरा काफी कम है. इसके भी सबूत हैं कि उनके संक्रमित होने की संभावना भी कम है. लेकिन एक बार संक्रमित होने के बाद वे इसे कितना फैला सकते हैं, इस बारे में अभी पक्की जानकारी नहीं है.
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उम्र के साथ बढ़ता है खतरा भी
सबसे ज्यादा प्रभावित देश अमेरिका की मिसाल देखें तो पता चलता है कि अस्पताल में भर्ती हुए कुल कोरोना मरीजों में केवल दो फीसदी ही 18 साल से कम उम्र के हैं. अमेरिका में कोविड-19 से मरने वालों में 18 से कम उम्र वालों का केवल 0.1 फीसदी हिस्सा है.
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लक्षण या तो नहीं या तो बहुत हल्के
कोरोना वायरस की शुरुआत जहां से हुई उस देश चीन में कराई गई एक स्टडी से पता चला कि जिन 2,143 बच्चों में कोरोना का संदेह था या फिर उसकी पुष्टि हो चुकी थी, उनमें से करीब 94 फीसदी बिना किसी लक्षण, या हल्के और मध्यम दर्जे के लक्षणों वाले थे.
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कुछ बच्चों में गंभीर क्यों
जो बच्चे कोरोना के संक्रमण के कारण बीमार पड़ रहे हैं उनमें अकसर पहले से कोई ना कोई स्वास्थ्य समस्या पाई गई. अमेरिका के शिकागो में एक स्टडी से पता चला कि मार्च और अप्रैल में जितने भी बच्चे अस्पताल में भर्ती कराए गए उनमें या तो पहले से कोई समस्या या फिर कोरोना के अलावा कोई और संक्रमण भी था.
हालांकि इस पर अभी काफी कम रिसर्च हुई है लेकिन अब तक मिली जानकारी के अनुसार, एक साल से छोटे बच्चों में इससे बड़े बच्चों के मुकाबले संक्रमण का खतरा थोड़ा अधिक है. आम तौर पर छोटे बच्चों को गंभीर फ्लू की समस्या होती है लेकिन कोविड-19 इस मामले में थोड़ा अलग पाया गया.
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क्या बच्चों की जान नहीं जाती
बच्चों की भी कोरोना के कारण जान जाती है लेकिन यह देखा गया है कि इसकी संभावना वयस्कों और बुजुर्गों के मुकाबले काफी कम है. इसीलिए बच्चों को कोरोना वायरस से इम्यून बताना एक गलत जानकारी है.
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स्कूल कितने सुरक्षित
अब तक इसे लेकर पर्याप्त सबूत नहीं हैं. इस्राएल में कई स्कूलों में बड़े स्तर पर संक्रमण फैलने की घटना सामने आई है. वहीं अमेरिका के शिकागो में हुई एक स्टडी से पता चला कि पांच साल से नीचे के बच्चों की नाक में वयस्कों की तुलना में वायरस का जेनेटिक पदार्थ 10 से 100 गुना तक ज्यादा होता है. यानि संक्रमण फैलाने में बच्चों की अहम भूमिका हो सकी है लेकिन अभी इसे साबित करने के लिए और रिसर्च की जरूरत है.
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बच्चों में कोरोना संक्रमण कम क्यों
इसके लिए कई संभावनाएं जताई जा रही हैं. जैसे कि शायद कोरोना वायरस बच्चों की कोशिकाओं से उतनी आसानी से नहीं चिपकता. या शायद इसलिए कि बच्चों को वैसे ही सर्दी-जुकाम काफी होता रहता है जिसके चलते उनके शरीर में फ्लू जैसे संक्रमणों से लड़ने वाली टी-कोशिकाएं पहले से ही मौजूद होती हैं.
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बच्चों में सामने आई एक दुर्लभ समस्या
ऐसा काफी कम मामलों में होता है लेकिन कभी कभी कोविड संक्रमण के एक महीने बाद कर बच्चों में एक पोस्ट-वायरल कंडीशन पैदा हो जाती है, जिसे मल्टीसिस्टम इन्फ्लेमेट्री सिंड्रोम (MIS-C) कहते हैं. इसके कारण शरीर के कई अंगों में एक साथ बहुत दर्द और सूजन आ जाती है.
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किन बच्चों में है सिंड्रोम का ज्यादा खतरा
औसत रूप से देखा जाए तो इस दुर्लभ सिंड्रोम से ग्रसित करीब दो फीसदी बच्चों की जान चली जाती है. इसका ज्यादा खतरा अमेरिका के अश्वेत या हिस्पैनिक मूल के लगभग आठ साल के आसपास की उम्र के बच्चों में पाया गया.
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क्या बच्चे जल्दी संक्रमित होते हैं
आइसलैंड में 13,000 पर हुए सर्वे में 10 साल के छोटे 850 बच्चे भी शामिल थे. इसमें औसतन 0.8 फीसदी लोगों में संक्रमण पाया गया जबकि 10 साल से कम वालों में एक भी संक्रमित नहीं था. इससे समझा जा सकता है कि बच्चे जल्दी संक्रमित नहीं होते. स्पेन, इटली और स्विट्जरलैंड में भी ऐसे सर्वे के समान ही नतीजे मिले.
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क्या बच्चों से आसानी से फैलता है वायरस
अमेरिका में संक्रामक बीमारियों के सबसे बड़े अधिकारी एंथनी फाउची खुद एक स्टडी का नेतृत्व कर रहे हैं जो बच्चों और बड़ों में संक्रमण दर को समझने के लिए है. इसके नतीजे दिसंबर तक आने की उम्मीद है. वहीं दक्षिण कोरिया में बड़े स्तर पर हुई एक स्टडी से पता चला है कि 10 साल से नीचे के बच्चों से घर के करीबी लोगों में संक्रमण होने की संभावना काफी कम है. जबकि 10 से ऊपर के बच्चों और वयस्कों से काफी ज्यादा.