आज भी पीरियड्स में स्कूल छोड़ने को क्यों मजबूर हैं लड़कियां
१६ मई २०२५
14 साल की जननी को जब भी पीरियड्स आते हैं, वह ज्यादातर स्कूल नहीं जा पाती है. खासकर जब घर में सैनिटरी पैड्स नहीं होते हैं और पैड की जगह उसे पुराना कपड़ा इस्तेमाल करना पड़ता है. डीडब्ल्यू से बातचीत में जननी ने बताया, "मुझे कपड़ा इस्तेमाल करना पसंद नहीं है.” वो आगे कहती है, "अगर इस वजह से हम स्कूल नहीं जा पाते हैं तो वह छूटा हुआ दोबारा नहीं पढ़ाते हैं.”
डीडब्ल्यू ने श्रीलंका के छह स्कूलों में कम से कम 500 लड़कियों के बीच सर्वे किया. जिसमें सामने आया कि लगभग 46 फीसदी लड़कियों को हर महीने पैड के लिए दिक्कत का सामना करना पड़ता है. एक स्कूल में तो यह आंकड़ा 81 फीसदी तक था.
जननी की मां नुवारा एलिया जिले की पहाड़ियों में चायपत्ती तोड़ने का काम करती है. जिसमें उन्हें दिन के केवल 1350 श्रीलंकाई रुपये (यानी 375 भारतीय रुपये) मिलते हैं. ऐसे में जब भी मुमकिन हो पाता है, वह अपनी बेटी के लिए पैड खरीदती हैं. लेकिन जब वह पैड नहीं खरीद पाती हैं तो जननी सोचती है, "मुझे पीरियड्स आते ही क्यों हैं?”
डीडब्ल्यू के सर्वे में सामने आया कि लगभग 50 फीसदी लड़कियां पीरियड के दौरान स्कूल नहीं जा पाती हैं. बहुत ज्यादा दर्द समेत इसके कई कारण होते हैं. जिसका सीधा असर उनकी पढ़ाई पर पड़ता है.
पीरियड पोवर्टी का मतलब है मासिक धर्म (पीरियड) के दौरान जरूरी चीजों जैसे पैड्स इत्यादि की कमी. इस समस्या को उजागर करते हुए 14 साल की गिरिजा ने कहा, "मैं इस बारे में ही सोचती रहती हूं और पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पाती.”
'कुछ शिक्षक हमारे लिए पैड खरीद देते हैं'
2022 में श्रीलंका की अर्थव्यवस्था में आई भारी मंदी के बाद श्रीलंका सरकार इस समस्या को सुलझाने की कोशिश कर रही है. धीरे धीरे उनकी अर्थव्यवस्था भी सुधार की ओर बढ़ रही है.
एड्वोकाटा इंस्टिट्यूट के अनुसार, भारी आर्थिक मंदी के बाद दस सैनिटरी पैड वाले पैकेट की कीमत 92 फीसदी तक बढ़ गई थी. उसकी कीमत 140 से बढ़कर 270 श्रीलंकाई रुपये तक पहुंच गई थी, क्योंकि आयात किए जाने वाले पैड्स पर श्रीलंका 51 फीसदी का टैक्स भी लगाता है.
शिक्षिका एंथोनीराज देवनेशी ने डीडब्ल्यू को बताया कि उनका स्कूल आपात स्थिति में किसी लड़की को एक सैनिटरी पैड दे सकता है. लेकिन नियमित रूप से देने के लिए स्कूल के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं.
12 साल की हरिणी बताती है, "कुछ टीचर हमारे लिए पैड खरीद देती हैं, लेकिन सब नहीं खरीदते.” उसने बताया कि उसे पैड मांगना अजीब लगता है इसलिए वह अपने दोस्तों से कहती है कि वह उसके लिए मांग लाएं. लेकिन अगर उनके पीरियड्स शुरु होने के समय उसके दोस्त स्कूल में नहीं होते हैं, तो वो सीधे घर चली जाती है. अगर ऐसे अचानक जरूरत पड़ने पर हरिणी के माता-पिता उसे लेने नहीं आ पाते, तो उसे कई बार पहाड़ियों के रास्ते एक घंटे पैदल चल कर अकेले घर जाना पड़ता है.
कई और लड़कियों ने डीडब्ल्यू को बताया कि उनके स्कूल में इस्तेमाल किए गए पैड को फेंकने की भी कोई व्यवस्था नहीं है. जिस वजह से वह स्कूल में पैड ही नहीं बदलती हैं. सर्वे में शामिल
दो स्कूलों में तो ऐसा भी नियम है कि अगर किसी लड़की ने स्कूल से पैड लिया है, तो उसे अगली सुबह नया पैड लाकर स्कूल में देना होगा.
कपड़ा इस्तेमाल करने से जुड़ी परेशानियां
एड्वोकाटा के 2021 में किए गए एक अध्ययन में सामने आया कि श्रीलंका की आधी महिलाएं सैनिटरी प्रोडक्ट्स पर पैसा खर्च नहीं करती हैं.
पीरियड पोवर्टी से लड़ने वाली संस्था, अर्का इनीशिएटिव की निदेशक और श्रीलंका के फैमिली प्लानिंग एसोसिएशन की तकनीकी सलाहकार, रश्मीरा बालासूरिया बताती है कि कोविड-19 महामारी और आर्थिक मंदी के बाद से यह समस्या "और ज्यादा गंभीर हो गई है.”
पैसे बचाने के लिए कई लड़कियां कपड़ा इस्तेमाल करती हैं. डीडब्ल्यू के सर्वे में करीब 44 फीसदी लड़कियों ने बताया कि वह या तो सिर्फ कपड़ा या फिर कपड़ा और पैड दोनों इस्तेमाल करती हैं. हालांकि सभी लड़कियों ने गरीबी या महंगाई को इसकी वजह नहीं बताया.
बालासूरिया ने यह भी कहा कि श्रीलंका के पहाड़ी इलाकों में धूप की कमी होती है. जिस कारण कपड़ा ठीक से सूख नहीं पाता है. ऐसे में उसे दोबारा इस्तेमाल करना सुरक्षित नहीं रहता है.
गिरिजा ने डीडब्ल्यू को बताया कि जब से उसे कपड़ा इस्तेमाल करने से संक्रमण हो गया था. तब से उसने पैड का इस्तेमाल करना शुरू किया. उसने कहा, "कपड़ा इस्तेमाल करना मुश्किल होता है. यह सुरक्षित नहीं लगता. मुझे बार-बार उठने बैठने से डर लगता है कि कुछ हो ना जाए. चलना, बैठना और सोना, सब मुश्किल हो जाता है.”
कम से कम बारह अन्य लड़कियों ने भी डीडब्ल्यू को यह बताया कि कपड़ा इस्तेमाल करने से उन्हें संक्रमण हो गया था.
गिरिजा ने बताया कि पैड खरीदने के लिए उसका परिवार दुकान से उधार लेता है, और जब वह पैड नहीं खरीद पाते हैं, तो उसे अपनी मां पर गुस्सा आता है. हालांकि उसकी मां कहती है, "चाहे हमें कपड़ा इस्तेमाल करना पड़े, लेकिन तुम पैड ही इस्तेमाल करो.” फिर भी गिरिजा सात घंटे में सिर्फ एक बार ही पैड बदलती है, क्योंकि उसे डर लगता है कि कहीं पैड खत्म न हो जाएं.
13 साल की सरस्वती कभी-कभी स्कूल में कपड़ा इस्तेमाल करती है और पूरे दिन तक उसे बदलती नहीं है. उसने बताया, "अगर हम बहुत देर कपड़ा पहने रहते हैं, तो जलन होती है. कपड़े के साथ चलना मुश्किल होता है, और मेरी कमर में दर्द होता है.”
शिक्षिका, थिरुचेल्वम मंगला रूबिनी ने बताया कि पीरियड्स को लेकर जागरूकता की भारी कमी है. कई लड़कियां जिनके पास पैड नहीं होते, वह मजबूरी में अंडरवियर में ही खून बहने देती हैं, और फिर उन्हें टॉयलेट में फेंक देती हैं.
सरकारी योजनाएं काफी नहीं
श्रीलंका सरकार ने पिछले साल आठ लाख स्कूली लड़कियों को 600-600 श्रीलंकाई रुपये के दो वाउचर दिए ताकि वह सैनिटरी पैड खरीद सकें. आखिरी वाउचर सितंबर 2024 में बांटा गया था. इस योजना का उद्देश्य था कि लड़कियां पीरियड्स के दौरान अपने लिए पैड खरीद सकें.
बालासूरिया ने बताया कि यह वाउचर प्रणाली पर्याप्त नहीं है क्योंकि एक महिला को एक महीने में 5 दिनों के हिसाब से औसतन 20 पैड की जरूरत पड़ती है. लेकिन वाउचर में दिया गया पैसा इस हिसाब से काफी कम है. कुछ लड़कियों ने भी डीडब्ल्यू को बताया कि जो पैड उन्होंने वाउचर से खरीदे थे, वह तो एक से दो महीनों में ही खत्म हो गए थे.
रूबिनी मानती है कि कई लड़कियों ने वाउचर से सैनिटरी पैड खरीदने की बजाय दूसरी जरूरी चीजें खरीदी होंगी. एक स्कूल की प्रिंसिपल ने डीडब्ल्यू से कहा कि उन्हें पूरा यकीन है कि कुछ लोगों के सैनिटरी पैड के वाउचर से शराब तक खरीदी गई होगी.
इस साल मदद मिलने की लगी है उम्मीद
अनुरा कुमारा दिशानायके की वर्तमान सरकार ने मार्च में घोषणा की थी कि वह इस बार इस योजना पर 1.44 अरब श्रीलंकाई रुपये खर्च किए जाएंगे. इसके तहत हर स्कूली लड़की जिसको पीरियड्स आते हैं, उसको 720-720 के दो वाउचर दिए जाएंगे.
शिक्षा विभाग के एक प्रतिनिधि ने डीडब्ल्यू को बताया कि यह योजना मई के अंत से फिर से शुरू होगी, लेकिन यह कहना मुश्किल है कि वाउचर की दो किश्तें देने के बाद यह योजना कब तक जारी रहेगी. क्योंकि अभी तक इस पर कोई फैसला नहीं लिया गया है.
14 साल की गिरिजा ने डीडब्ल्यू से कहा, "अगर वह हमें लगातार पैड देते रहते, तो अच्छा रहता. फिर पैड खत्म नहीं होते, है ना? हम उन्हें इस्तेमाल करते रहते.”
इस रिपोर्ट में कुछ लोगों की निजता सुरक्षित रखने के लिए उनके नाम बदले गए हैं.