ब्रिटेन ने बिना बताए भारी मात्रा में सेहत और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाला कूड़ा श्रीलंका भेज दिया. श्रीलंका ने अब पूरी लिस्ट के साथ ये कचरा वापस ब्रिटेन भेजा है. क्या अमीर देश कमजोर देशों को डंपिंग ग्राउंड समझते हैं?
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श्रीलंका के अधिकारियों के मुताबिक ब्रिटिश कचरे की आखिरी खेप 45 कंटेनरों में पैक कर वापस भेज दी गई है. इससे पहले की खेपों में भी 218 कंटेनर भेजे जा चुके हैं. श्रीलंका में इस मामले में का पता दो साल पहले चला. ब्रिटेन से आए कंटेनरों में रिसाइक्लिंग के लिए गद्दे, कालीन और स्प्रिंग बताए गए. लेकिन जब कस्टम अधिकारियों ने कंटेनरों की तलाशी ली तो उन्हें भारी मात्रा में कचरा भी मिला. दस्तावेजों में इस कचरे का कहीं कोई जिक्र नहीं था.
मामला पर्यावरण से जुड़े विभाग के पास गया. उप पर्यावरण प्रमुख अजीत वीरासुंदरा के मुताबिक इस सोमवार को कचरे की आखिरी खेप ब्रिटेन भेजी गई. वीरासुंदरा ने यह भी कहा कि अधिकारियों से जहाजों के जरिए आने वाले ऐसे कचरे पर कड़ी नजर रखने को कहा गया है.
गरीबों के मत्थे अमीरों का कचरा
विकसित और अमीर देशों द्वारा कारोबार, मदद या रिसाइक्लिंग के नाम पर जैविक व पर्यावरणीय रूप से खतरनाक कचरा गरीब देशों को भेजना नई बात नहीं है. हाल के बरसों में दक्षिणपूर्व एशिया के कई देश विकसित देशों की वेस्ट डंपिंग का सामना कर चुके हैं. विकिसित देशों के प्लास्टिक कचरे की रिसाइक्लिंग से चीन के इनकार के बाद ये मामले और बढ़े हैं.
2019 में मलेशिया के जोहोर प्रांत के करीब 4,000 निवासी एक रहस्यमयी बीमारी का शिकार हुए. जांच में पता चला कि सुंगाई किम नदी में जहरीला कचरा फेंकने के कारण ऐसा हुआ. 2020 में फिर 150 कंटेनर घातक कचरा लेकर मलेशिया पहुंचे.
श्रीलंका भी बाजेल समझौते का हिस्सा है. यह समझौते खतरनाक कचरे के अंतरराष्ट्रीय परिवहन पर नियंत्रण रखता है. विकास कर रहे देशों को अकसर विकसित देश डंपिंग ग्राउंड समझने लगते हैं. बाजेल संधि इस सोच पर लगाम लगाने की प्रक्रिया तय करती है. लेकिन रिसाइकिल किये जाने वाले प्लास्टिक और दूषित मिक्स प्लास्टिक के बीच का फर्क इस संधि का हिस्सा नहीं है. दुनिया में सबसे ज्यादा प्लास्टिक का कचरा अमेरिका एक्सपोर्ट करता है और वह बाजेल संधि में शामिल नहीं है.
ओएसजे/आरपी (एपी)
फेंके हुए कपड़ों से रेगिस्तान में बना पहाड़
हर साल दुनिया भर से करीब 59,000 टन फेंके हुए कपड़े दक्षिण अमेरिका के चिली में पहुंच जाते हैं. अटाकामा रेगिस्तान में अब जहां देखिए वहां कपड़े ही कपड़े नजर आते हैं.
तस्वीर: MARTIN BERNETTI AFP via Getty Images
रेगिस्तान में रंग
चिली लंबे समय से चीन और बांग्लादेश में बनने वाले उन कपड़ों का ठिकाना रहा है जिनका या तो इस्तेमाल नहीं हुआ या वो बिके नहीं. ये कपड़े यूरोप, एशिया या अमेरिका होते हुए चिली आते हैं और उसके बाद पूरे लैटिन अमेरिका में रीसाइकिल किए जाते हैं या दोबारा बेचे जाते हैं.
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कपड़ों का पहाड़
राजधानी सैंतिआगो के कपड़ा व्यापारी इनमें से कुछ कपड़ों को खरीद लेते हैं लेकिन अधिकांश कपड़े दूसरे लैटिन अमेरिकी देशों में अवैध रूप से भेज दिए जाते हैं. लेकिन कम से कम 39,000 टन कपड़े जो बिक नहीं पाते रेगिस्तान में कचरे की तरह फेंक दिए जाते हैं.
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कचरे का कमाल
लेकिन ये फेंके हुए कपड़े भी किसी के काम आ जाते हैं. तीन लाख लोगों की आबादी वाले अटाकामा रेगिस्तान इलाके के सबसे गरीब लोगों में से कुछ लोग इन कचरे के ढेरों में से भी ऐसे कपड़े निकाल लेते हैं जिनका या तो वो खुद इस्तेमाल कर सकें या अपने पड़ोस में बेच सकें.
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बनते जा रहे हैं बेशुमार कपड़े
अनुमान है कि पूरी दुनिया में हर साल 9.2 करोड़ टन टेक्सटाइल कचरा बनता है. 2019 में आई संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2000 से 2014 के बीच दुनिया में कपड़ों का उत्पादन दोगुना हो गया. रिपोर्ट कहती है कि कपड़ा उद्योग दुनिया में पानी की बर्बादी के 20 प्रतिशत के लिए अकेले जिम्मेदार है.
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पुराने कपड़ों का इस्तेमाल
कपड़ों का यह अंबार हवा और भौम जलस्तर को भी प्रदूषित करता है. पुराने कपड़ों से तापमान रोधक पैनल बनाने वाली कंपनी इकोफाइब्रा के संस्थापक फ्रैंकलिन जेपेदा ने बताया, "समस्या यह है कि कपड़े प्राकृतिक तरीके से सड़नशील नहीं होते हैं और उनमें रासायनिक तत्त्व भी होते हैं, इसलिए उन्हें नगरपालिका के कचरा भराव क्षेत्रों में जगह नहीं दी जाती है."
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एक अच्छा उदाहरण
सैंतिआगो में इकोटेक्स इकोलॉजिक नाम की धागा फैक्ट्री में एक डब्बा रखा गया है जिसमें कोई भी इस्तेमाल किए हुए कपड़े रख कर जा सकता है. इन कपड़ों को फिर इकोलॉजिकल तरीके से धागे में बदला जाता है.
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कचरे से धागे तक
इस तरह से धागा बनाने में ना पानी का इस्तेमाल किया जाता है और ना रसायनों का. कपड़े प्राकृतिक रूप से सड़ने में 200 सालों तक का समय ले सकते हैं और वो उतने ही जहरीले होते हैं जितने फेंके हुए टायर या प्लास्टिक. (क्लॉडिया डेन)