दुनिया भर में लगभग 7,000 मान्यता प्राप्त भाषाएं हैं, लेकिन उनमें से कई जल्द ही हमेशा के लिए विलुप्त हो सकती हैं. ऑस्ट्रेलिया के एक अध्ययन के मुताबिक सभी भाषाओं में से लगभग आधी खतरे में हैं.
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ऑस्ट्रेलिया में हुए शोध में कहा गया है कि इस सदी के अंत तक 1,500 भाषाएं विलुप्त हो सकती हैं. शोधकर्ताओं ने अपने शोध में लिखा, "हस्तक्षेप के बिना 40 वर्षों के भीतर भाषा की हानि तिगुनी हो सकती है, जिसमें एक भाषा मासिक आधार पर विलुप्त हो सकती है."
शोधकर्ताओं का सुझाव है कि बच्चों के पाठ्यक्रम को द्विभाषी के रूप में विकसित किया जाए और क्षेत्रीय रूप से मजबूत भाषाओं के साथ-साथ प्राचीन भाषाओं के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाए. शिक्षा, नीति, सामाजिक-आर्थिक संकेतकों और समग्र परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न भाषाओं के इस अध्ययन के लिए कई पैमानों को अपनाया गया.
ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रीय विश्वविद्यालय (एएनयू) के नेतृत्व में यह अध्ययन किया गया और यह शोध नेचर इकोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है. यह अध्ययन भाषाओं के सामने आने वाले अप्रत्याशित और आश्चर्यजनक खतरों की पड़ताल करता है.
समझिए भाषा के इतिहास को
कोरोना के जमाने में स्कूल की क्लास,कॉलेज का लेक्चर और ऑफिस की मीटिंग, सब ऑनलाइन होता है. लोग अपनी अपनी बातें बोल देते हैं, दूसरों की सुन लेते हैं. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि अगर भाषा नहीं होती, तो ये सब कैसे होता.
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बहुत सारे चित्र
अक्षरों का पहला सबूत चीन में मिलता है जो 1400 ईसापूर्व में बैलों के कंधे पर किसी ने उकेरा था. आज चीनी भाषा में 50,000 अक्षर हैं. अगर इनमें से 3,500 ही सीख लिए जाएं तो किसी लेख का 98 फीसदी हिस्सा पढ़ा जा सकता है. बच्चे इन्हें पूरी तरह सीख पाएं, इसमें कई साल निकल जाते हैं.
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अक्षर नहीं चित्र
शुरुआती चित्र इससे कई सदियों पहले मिले थे. 20,000 साल पहले दक्षिणी फ्रांस की लास्कू गुफाओं में 2,000 चित्र मिले जो चट्टानों पर उकेरे हुए थे. ये जानवर और इंसान थे लेकिन अक्षरों जैसा कुछ नहीं था. इसलिए इन चित्रों को अक्षरों का मूल बताया जाता है, जिससे पाषाण काल के इंसान अपना जीवन बताते थे.
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कीलाक्षर या अंकन
पहले अक्षर मेसोपोटैमिया यानि आज के इराक में मिले. अंकन की खोज करने वाले ईसापूर्व 3,300 के सुमेरियाई थे. उन्होंने नुकीले पत्थर से एक बोर्ड पर अक्षर उकेरे थे. पहले पैर का चिह्न सिर्फ पंजे के लिए इस्तेमाल हुआ, फिर इसका मतलब जाना हो गया. और जब इसमें ए जैसा एक अक्षर जुड़ा तो उसका मतलब क्रांति हो गया.
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जादुई शब्द
मिस्र के लोगों ने अपनी लिपी को मेदू नेत्जेर नाम दिया, अर्थ- ईश्वर के शब्द. आज का शब्द हिएरोग्लिफेन ग्रीक काल का है और इसका मतलब होता है पवित्र टंकण. मिस्र में एक से पांच फीसदी लोग लिखने का काम करते थे. और ये काम बहुत अच्छी नजर से देखा जाता था.
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माया की दुनिया
पुरानी कई लिपियां आज भी नहीं पढ़ी जा सकी हैं. इसका नुकसान स्पेन की माया संस्कृति को झेलना पड़ा. 1562 के बिशप डिएगो डे लांदा ने कई पूजास्थल, तस्वीरें और लिखे हुए दस्तावेज नष्ट करवा दिए. सिर्फ चार पांडुलिपियां बची. पुरातत्ववेत्ता सिर्फ 800 अक्षरों को ही समझ पाए.
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लैटिन
रोमन साम्राज्य के साथ ही लैटिन भाषा भी आगे बढ़ी. ये ग्रीक लिपि से विकसित हुई. रोमन लोगों ने अपनी जरूरत के हिसाब से भाषा और लिपि को विकसित किया. और जी, वाय, जैड जैसे अक्षर इसमें जुड़े. मध्ययुग में पहली बार 26वें अक्षर के तौर पर डबल्यू आया. लैटिन अक्षरों का आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है.
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रोजमर्रा के अक्षर
दुनिया भर में करीब 100 अक्षर हैं. अरबी लिपि दो तरीके से लिखी जाती है, एक रोजमर्रा के लिए और एक कैलिग्राफी के लिए. हिब्रू भाषा से बिलकुल अलग. कई साल तक यह धार्मिक पुस्तकों की लिपि रही. 1948 में इस्राएल की स्थापना के साथ ये बदला. हीब्रू वहां की अधिकारिक और काम की भाषा बन गई.
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क्रांतिकारी खोज
जर्मनी के माएंज संग्रहालय में दुनिया की सबसे पुरानी किताब, बाइबल रखी हुई है. 1452 में योहानेस गुटेनबैर्ग ने प्रिटिंग की खोज की. बाइबल के 200 संस्करण छापने में उन्हें दो साल लगे. अगर छपाई की खोज नहीं होती तो आज स्कूली किताबें भी नहीं मिलती. हवाई के बच्चों को सबसे कम अक्षर सीखने पड़ते हैं. उनकी भाषा में सिर्फ 12 ही अक्षर हैं और एक चिह्न है.
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हाथ से मशीन तक
सदियों तक इंसान हाथ से लिखता रहा लेकिन औद्योगिक क्रांति से थोड़ी आसानी हुई. बिलकुल पुरानी कलम इंकपेन में और बॉल पेन में बदली. फिर टाइपिंग मशीन आई और अब कंप्यूटर. धीरे धीरे सुलेख और हाथ से लिखने की परंपरा खत्म होती जा रही है.
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21वीं सदी में स्वागत
अब प्रिटिंग की कला भी कंप्यूटर ने खत्म कर दी है. बहुत कुछ लिख कर आप आराम से कंप्यूटर की हार्ड डिस्क, पेन ड्राइव में सुरक्षित रख सकते हैं. कंप्यूटर के बाइनरी कोड ने अक्षरों की दुनिया बदल दी. शून्य और एक से प्रोग्रामर को समझना पड़ता था कि कंप्यूटर पर कौन सा अक्षर दिखाई देगा.
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साक्षरता सभी के लिए
हर तरह की तकनीक के आ जाने के बावजूद आज भी शिक्षा और साक्षरता सबके लिए उपलब्ध नहीं है. दुनिया भर में 77 करो़ड़ 40 लाख लोग ऐसे हैं जो लिख और पढ़ नहीं सकते, खासकर भारत और अफ्रीका में. इनमें महिलाओं की हालत और खराब है. 1966 से हर आठ सितंबर को वैश्विक साक्षरता दिवस मनाया जाता है.
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इस अध्ययन रिपोर्ट के सह-लेखक लिंडेल ब्रोमहैम के मुताबिक, "किसी क्षेत्र में बेहतर सड़क अवसंरचना भाषाओं के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण है. उदाहरण के लिए इनमें एक अच्छी तरह से विकसित सड़क नेटवर्क शामिल है." वे आगे कहते हैं, "हमने देखा कि जितनी अच्छी सड़कें हैं, उतना ही बेहतर क्षेत्र बाकी हिस्सों से जुड़े हैं. सड़कों पर प्रमुख भाषाओं का बोलबाला लगता है. वे मदद करती हैं उन्हें स्थानीय भाषा सीखने के लिए."
अध्ययन में यह भी पाया गया कि विभिन्न भाषाओं के परस्पर संपर्क से स्वदेशी भाषाओं को खतरा नहीं है, बल्कि यह तथ्य है कि अन्य भाषाओं के संपर्क में आने वाली भाषाएं कम खतरे में हैं. अध्ययन रिपोर्ट ऑस्ट्रेलिया की लुप्तप्राय स्वदेशी भाषाओं को कैसे बचाया जाए, इस पर भी सिफारिशें करती है. रिपोर्ट के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया में स्वदेशी और प्राचीन भाषाओं के विलुप्त होने की दर दुनिया में सबसे अधिक है. इस महाद्वीप पर 250 भाषाएं बोली जाती थीं, लेकिन अब केवल 40 हैं.
ब्रोमहैम के मुताबिक, "जब कोई भाषा विलुप्त हो जाती है, या 'सो रही होती है' जैसा कि हम उन भाषाओं के लिए कहते हैं जो अब बोली नहीं जाती हैं, तो हम अपनी मानव सांस्कृतिक विविधता को खो देते हैं."
एए/सीके (डीपीए, एपी)
तस्वीरों मेंः गोएथे इंस्टीट्यूट के 70 साल
गोएथे संस्थान की स्थापना 9 अगस्त 1951 को हुई थी. बहुत जल्द इस संस्थान ने खुद को जर्मन भाषा और संस्कृति के वाहक के रूप में स्थापित कर लिया.
तस्वीर: Michael Friedel/Goethe-Institut
म्यूनिख से आरंभः गोएथे इंस्टीट्यूट के 70 साल
गोएथे इंस्टीट्यूट को दूसरे विश्व युद्ध के छह साल बाद म्यूनिख में स्थापित किया गया. तब इसने डॉयचे अकादमी की जगह ली थी और इसका मकसद जर्मन भाषा के विदेशी शिक्षकों को प्रशिक्षित करना था. इस तस्वीर में आप घाना के कुछ छात्रों को देख सकते हैं, जो बवेरिया में अपने मेजबान परिवारों के साथ हैं.
तस्वीर: Michael Friedel/Goethe-Institut
जर्मनी की सकारात्मक छवि
दूसरे विश्व युद्ध के बाद इस संस्थान की स्थापना का मकसद जर्मनी की एक सकारात्मक छवि बनाना था. 1952 में विदेशी जमीन पर पहला संस्थान एथेंस में खोला गया. उसके बाद दुनिया के कई शहरों में संस्थान खुले जैसे कि मुंबई में, जहां इसका नाम इंडोलॉजी के विद्वान मैक्स म्युलर के नाम पर रखा गया.
तस्वीर: Michael Friedel/Goethe-Institut
प्रचार और जासूसी का दाग
डॉयचे अकादमी 1925 में शुरू हुई थी और नाजी प्रचार का हथियार बन गई थी. 1945 में जर्मनी पर कब्जा करने वाली अमेरिकी फौज ने अकादमी को तहस नहस कर दिया क्योंकि उन्हें लगता था कि वह नाजियों के लिए जासूसी और प्रचार करने वाला संस्थान बन गई थी. फिर गोएथे संस्थान आया जो दुनियाभर में जर्मन भाषा का प्रचार कर रहा था. इस तस्वीर में आप 1970 के दशक में श्वैबिष हॉल में छात्रों को देख सकते हैं.
तस्वीर: Goethe-Institut
एशिया में लोकप्रियता
गोएथे संस्थान और इसके प्रतिनिधि एशिया में खासे लोकप्रिय हुए. जर्मन सेक्सोफोनिस्ट क्लाउज डोलडिंगर (दाएं) को आप पाकिस्तानी कलाकारों के साथ देख सकते हैं.
तस्वीर: Goethe-Institut
1980 का दशक
उस दहाई में गोएथे इंस्टीट्यूट ने जर्मन संस्कृति और भाषा को दुनिया के नक्शे में विशेष जगह पर पहुंचा दिया. आज यह संस्थान 98 देशों के 157 शहरों में काम कर रहा है.
तस्वीर: Michael Friedel/Goethe-Institut
विवादों का साया
1987 में नीदरलैंड्स के रहने वाले टीवी होस्ट रूडी कैरल ने उस वक्त बड़ा विवाद खड़ा कर दिया जब उन्होंने ईरानी क्रांति के नेता अयोतोल्ला खमैनी पर अधोवस्त्र फेंकते लोगों को दिखाता एक स्केच दिखा दिया. नाराज ईरान ने जर्मन राजनयिकों को वापस भेज दिया और तेहरान के गोएथे संस्थान को बंद कर दिया.
तस्वीर: Dieter Klar/dpa/picture alliance
शीत युद्ध के बाद
90 के दशक में शीत युद्ध की समाप्ति के बाद जर्मनी ने अपना रुख पूर्व की ओर किया जहां पहले वामपंथी सरकारें थीं. 1992 में जर्मन विदेश मंत्री क्लाउस किंकेल ने मॉस्को में गोएथे संस्थान का उद्घाटन किया.
तस्वीर: Goethe-Institut
11 सितंबर 2001 के बाद
न्यूयॉर्क में आतंकी हमले के बाद दुनिया तो बदली ही, गोएथे संस्थान की दिशा भी बदली. सांस्कृतिक विमर्श और सामंजस्य इसकी प्राथमिकता बन गई. अब यह संस्थान सामाजिक कार्यकर्ताओं को मजबूत करने और युद्ध टालने जैसे मुद्दों पर काम करता है. इस तस्वीर में आप दक्षिण कोरिया में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम की झलक देख सकते हैं.
तस्वीर: Goethe-Institut
भविष्य की बातें
गोएथे संस्थान हमेशा भविष्य की ओर देखता रहा है. 2016 में इसने ‘कुल्टूअरसोंपोजियम वाइमार’ नामक एक कार्यक्रम शुरू किया, जिसमें दुनियाभर के विचारक हमारे समय के सबसे अहम सवालों पर चर्चा करते हैं. 2019 में इस कार्यक्रम का विषय था तकनीकी बदलाव. इस तस्वीर में आप ताईवान के नर्तक और खोजी हुआंग यी को कूका नाम के रोबॉट के साथ नाचते देख सकते हैं.
तस्वीर: Goethe-Institut
70 वर्ष से आगे
इस साल नवंबर में संस्थान अपनी 70वीं सालगिरह का जश्न मनाएगा. तभी संस्थान की अध्यक्ष कैरोला लेंत्स की एक किताब का लोकार्पण होगा और संस्थान का इतिहास बताती एक वेबसाइट भी शुरू होगी.