अगर आपसे कह दिया जाए कि आपका हीरो शायद मानसिक रूप से थोड़ा कमजोर है, शायद उसे कुछ चीजों से डर भी लगता है, शायद उसे डिप्रेशन है, तो आप यह बात कैसे मान लेंगे?
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कोरोना काल देशों की अर्थव्यवस्था को भले ही बिगाड़ रहा हो लेकिन मीडिया को इससे खूब फायदा हुआ है. न्यूज चैनल हों या डिजिटल प्लैटफॉर्म, सबकी व्यूअरशिप बढ़ी है. अब लोग फिल्में देखने मूवी हॉल में तो जा नहीं सकते और ना ही बाहर घूमना फिरना इस दौरान मुमकिन है. तो जाहिर है कि टीवी और इंटरनेट ही मनोरंजन का एकमात्र जरिया है. न्यूज चैनल खास कर इस मनोरंजन में बड़ा योगदान दे रहे हैं.
डिजिटल के आने के बाद से फिल्मी कहानियों में कुछ बदलाव आए हैं वरना अब तक फिल्में एक सिंपल फॉर्मूले पर ही चल रही थी - एक हीरो, एक हीरोइन (जिसका काम सिर्फ खूबसूरत दिखना और नाचना था) और एक विलन. पूरी फिल्म हीरो बनाम विलन पर चलती थी. न्यूज चैनल भी इन दिनों यही कहानी चला रहे हैं. इस कहानी में सुशांत हीरो हैं और रिया विलन. लोगों को यह कहानी देखने में मजा भी खूब आ रहा है. लेकिन फिल्म थोड़ी लंबी खिंच गई है. अब लोगों से क्लाइमैक्स का और इंतजार नहीं हो रहा. बस अब विलन को मारो, हीरो की जय जयकार करो और घर जाओ.
इन सीधी सादी फिल्मी कहानियों में हीरो के पास सभी खूबियां होती हैं: अच्छी हाइट, कमाल के लुक्स, सॉलिड बॉडी, बेहतरीन डांसर और एक्शन में जबरदस्त. कुल मिला कर एक ऐसा परफेक्ट इंसान, जो आपको असली जिंदगी में कभी नहीं मिलेगा. लेकिन असली हीरो तो वही है, जिसके पास ये सब है.
अब अगर आपसे कह दिया जाए कि आपका हीरो शायद मानसिक रूप से थोड़ा कमजोर है, शायद उसे कुछ चीजों से डर भी लगता है, शायद उसे डिप्रेशन है, तो आप यह बात कैसे मान लेंगे? अरे भई, वो हीरो है हीरो! जैसे "मर्द को दर्द नहीं होता" वैसे ही हीरो को कभी डिप्रेशन नहीं होता. हीरो सुपरमैन जैसा होता है, वो कोई आम इंसान नहीं होता. डर तो उसे छू भी नहीं सकता. हां, वो बेचारा भोला भाला जरूर हो सकता है. इतना भोला कि किसी "चुड़ैल" के जाल में फंस जाए. भोली सूरत बना कर वो उस पर काला जादू कर दे. अब इसमें हीरो की क्या गलती है?
टीवी चैनलों, व्हाट्सऐप ग्रुपों और सोशल मीडिया पर चल रही बहस से मुझे यही समझ आता है कि बतौर समाज हम यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि हमारे हीरो को कभी डिप्रेशन भी हो सकता है. और इस यकीन की वजह भी फिल्में ही हैं. क्योंकि "सीधी सादी" फिल्मों में डिप्रेशन या किसी भी तरह के मानसिक रोग का मतलब होता है एक पागल शख्स.
पहले गांव में बिखरे हुए बाल और फटे हुए कपड़े पहने किसी लड़की को "पगली" बना कर दिखाया जाता था और अब खूब शराब और ड्रग्स लेने वाली हायफाय चीखने चिल्लाने वाली को. जरा सोचिए, हिन्दी फिल्मों के 100 साल के इतिहास में कितनी बार डिप्रेशन जैसे गंभीर मुद्दे को संवेदनशीलता के साथ पेश किया गया है?
आंकड़ों के अनुसार भारत की करीब 6.5 फीसदी आबादी डिप्रेशन जैसे मानसिक रोगों की शिकार है. क्योंकि आम तौर पर भारत में डिप्रेशन पर बात ही नहीं होती है, तो इस आंकड़े पर बहुत भरोसा भी नहीं किया जा सकता. "सेक्स" और "डिप्रेशन" - ये दो ऐसे शब्द हैं जिनका इस्तेमाल भारतीय परिवारों में किया ही नहीं जाता. आप ऐसे कितने परिवारों को जानते हैं जहां किसी ने घर आकर अपने मां बाप से कहा हो कि मुझे डिप्रेशन है या फिर ऐसा कितनी बार हुआ कि खांसी, जुखाम, बुखार या डायबिटीज की तरह घरों में डिप्रेशन और उसके इलाज पर चर्चा चल रही हो?
हर मानसिक रोग डिप्रेशन नहीं होता
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद से डिप्रेशन और ड्रग एडिक्शन जैसे शब्दों का काफी इस्तेमाल हो रहा है. लेकिन हर मानसिक रोग डिप्रेशन नहीं होता. जानिए तनाव और डिप्रेशन में क्या फर्क है.
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एंग्जाइटी डिसऑर्डर
बात बात पर डर लगना इसका सबसे बड़ा लक्षण है. जिस शख्स को इस तरह का मानसिक रोग हो, उसे तर्क दे कर डर से बाहर नहीं निकला जा सकता. ऐसे में पैनिक अटैक भी होते हैं, दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं, सांस लेने में दिक्कत आती है और खूब पसीना भी छूटने लगता है.
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मूड डिसऑर्डर
जैसा कि नाम से पता चलता है इस रोग में व्यक्ति के मूड पर असर होता है. कभी वह बहुत दुखी रहने लगता है तो कभी अचानक ही बहुत खुश. डिप्रेशन और बायपोलर डिसऑर्डर इसी के अलग अलग रूप हैं.
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साइकोटिक डिसऑर्डर
इस रोग में इंसान को आवाजें सुनाई देने लगती हैं, वह काल्पनिक किरदारों को देखने लगता है. ऐसा व्यक्ति हैलुसिनेशन का शिकार हो सकता है या स्कित्सोफ्रीनिया का भी.
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ईटिंग डिसऑर्डर
अपनी भावनाओं पर काबू ना होने के कारण कुछ लोगों की भूख मर जाती है, तो कुछ जरूरत से ज्यादा खाने लगते हैं. दोनों ही मामलों में मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है.
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एडिक्शन डिसऑर्डर
शराब की लत हो, ड्रग्स की या जुए की, ये सब एडिक्शन हैं. ऐसे रोग में व्यक्ति खुद को और अपने आसपास वालों को भूल जाता है और उसका सारा ध्यान लत पर ही केंद्रित होता है. इसे छुड़वाने के लिए दवाओं की जरूरत पड़ती है.
इस रोग से प्रभावित शख्स ऐसी हरकतें करता है जिन्हें आम भाषा में "अजीब" कहा जाता है. वह खुद को और दूसरों को नुकसान पहुंचा सकता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है पैरानोया जिसमें व्यक्ति हमेशा दूसरों की गलतियां खोजने में लगा रहता है.
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ऑबसेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर
ऐसा व्यक्ति किसी एक चीज या बात पर अटक जाता है और उसे दोहराता रहता है. मिसाल के तौर पर अगर किसी को गंदगी नापसंद है तो वह लगातार सफाई करता रहेगा और उसे फिर भी छोटे से छोटी गंदी चीज नजर आएगी.
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पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर
किसी बुरे अनुभव के कारण सदमा लगने से यह रोग होता है. ऐसा सड़क दुर्घटना के बाद या किसी प्रियजन की मौत या बलात्कार के बाद होना स्वाभाविक है. कुछ लोगों को लंबे समय तक डर लगने लगता है.
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मानसिक रोगों को समझें
जैसा कि आपने देखा हर रोग एक दूसरे से अलग है. हो सकता है कि किसी को एक से ज्यादा डिसऑर्डर हो जाएं लेकिन एक ही इंसान को एंग्जाइटी, बायपोलर, स्कित्सोफ्रीनिया और पैरानोया सब एक साथ नहीं होता है.
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क्यों होता है?
इनकी कई वजह हो सकती हैं. ये जेनेटिक भी होते हैं यानी माता पिता से बच्चों को मिल सकते हैं. तनाव और बुरे तजुर्बों के कारण हो सकते हैं या फिर किसी बीमारी के साइड इफेक्ट के तौर पर भी हो सकते हैं.
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तो क्या करें?
मेंटल डिसऑर्डर किसी भी तरह का हो, डॉक्टर से सलाह लेना और वक्त रहते उसका इलाज कराना बहुत जरूरी है. 21वीं सदी के भारत में भी इस मुद्दे पर खुल कर चर्चा नहीं होती और नतीजतन हर साल लाखों लोग अपनी जान ले लेते हैं.
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ऐसे में कोई हैरत की बात तो नहीं अगर सुशांत के पिता को उसके डिप्रेशन के बारे में ना पता हो. हंसते मुस्कुराते सुशांत की वीडियो पोस्ट कर यह सवाल करना कि "इतना खुश इंसान डिप्रेस्ड कैसे हो सकता है", यही लोगों की समझ (या नासमझी) को दिखाता है. वैसे, दिल के मरीज को भी दिन रात दिल में दर्द नहीं होता. लेकिन जब होता है, तो वो उसकी जान ले सकता है. डिप्रेशन भी एक बीमारी है. बस, शारीरिक ना हो कर मानसिक है. लेकिन काम वो भी ऐसे ही करती है. पर खैर, हीरो को तो कभी डिप्रेशन होता ही नहीं. तो आगे बढ़ते हैं.
आगे वो लोग हैं, जो मेंटल हेल्थ को समझने के नाम पर अपनी कहानियां सुनाने में लगे हैं और दूसरों पर जहर उगल रहे हैं. अगर आपको सच में मेंटल हेल्थ की समझ होती, तो आप दूसरों को तनाव देने की जगह उसे कम करने पर काम करते. लेकिन, जनता को ऐसे लोग बहुत पसंद आ रहे हैं. जानते हैं क्यों? क्योंकि इंटरवल से पहले हमारा जो हीरो मर गया था, उसका इंसाफ करने के लिए इन्हीं की तो जरूरत है. विलन से अब यही तो लड़ रहे हैं. फिल्म को क्लाइमैक्स तक यही तो ले जाएंगे.
खुद को पत्रकार और इन्फ्लुएंसर कहने वाले इन लोगों के पास मौका था देश की जनता को डिप्रेशन और मेंटल हेल्थ के बारे में जागरूक करने का. लेकिन ऐसी रूखी सूखी कहानी में ना तो किसी को मजा आता और ना ही कमाई होती. तो फिर उसी पुरानी कहानी को ही चलने देते हैं और इंतजार करते हैं कि एक दिन डिप्रेशन वाली कहानियां भी बिकेंगी. एक दिन "हीरो" की परिभाषा बदलेगी. वो परफेक्ट ना हो कर, आम इंसान होगा जिसकी अपनी कुछ समस्याएं भी होंगी. और ना तो वो हमें उन दिक्कतों के बारे में बताते हुए शरमाएगा और ना ही हम उसकी परेशानियों को सुनते हुए उसे जज करेंगे. पर ऐसे वक्त के लिए अभी शायद बहुत लंबा इंतजार करना होगा.
बॉलीवुड के सितारे सुशांत सिंह राजपूत की कथित आत्महत्या के मामले की हर तरफ चर्चा हो रही है. लेकिन देश में हर साल लाखों लोगों की मौत आत्महत्या की वजह से होती है. जानिए क्या कहते हैं ताजा आंकड़े.
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बढ़ रही है समस्या
2019 में भारत में 1.39 लाख से भी ज्यादा लोगों की मौत आत्महत्या की वजह से हुई. इसमें 2018 के मुकाबले 3.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Jaiswal
मरने वालों में ज्यादा पुरुष
2019 में आत्महत्या से मरने वालों में पुरुषो और महिलाओं का अनुपात 70.2 के मुकाबले 29.8 रहा. मरने वालों में 97,613 पुरुष थे, और उनमें सबसे ज्यादा संख्या (29,092) दिहाड़ी पर काम करने वालों की थी. 14,319 पुरुष स्व-रोजगार में थे और 11,599 बेरोजगार थे.
तस्वीर: AFP/A. Singh
विवाह या दहेज बड़ा कारण
मरने वालों में कुल 41,493 महिलाएं थीं, जिनमें 21,359 गृहणी थीं, 4,772 विद्यार्थी थीं और 3,467 दिहाड़ी पर काम करने वाली थीं. महिलाओं में आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण दहेज और विवाह में उत्पन्न हुई अन्य समस्याओं को पाया गया. इनमें नपुंसकता और इनफर्टिलिटी भी शामिल हैं.
तस्वीर: Reuters/A. Fadnavis
पारिवारिक कलह सबसे ज्यादा जिम्मेदार
पारिवारिक कलह को आत्महत्या के सबसे ज्यादा (32.4 प्रतिशत) मामलों के लिए जिम्मेदार पाया गया है. 17.1 प्रतिशत मामलों में आत्महत्या का कारण बीमारी थी. इसके अलावा 5.6 प्रतिशत मामलों के पीछे ड्रग्स की लत, 5.5 प्रतिशत मामलों के पीछे विवाह संबंधी कारण, 4.5 प्रतिशत मामलों के पीछे विफल प्रेम-प्रसंग और 4.2 प्रतिशत मामलों के पीछे दिवालियापन को कारण पाया गया.
तस्वीर: Reuters/A. Fadnavis
बेरोजगारी बड़ा कारण
कम से कम 2,851 आत्महत्या के लिए बेरोजगारी को जिम्मेदार पाया गया. बेरोजगारी और भी बड़ा कारण हो सकती है क्योंकि आत्महत्या से मरने वालों में कम से कम 14,019 लोग बेरोजगार थे. ऐसे सबसे ज्यादा मामले कर्नाटक में सामने आए, उसके बाद महाराष्ट्र में, फिर तमिलनाडु, झारखंड और गुजरात में.
तस्वीर: Reuters/D. Siddiqui
मर रहे हैं किसान और दिहाड़ी कमाई वाले
आत्महत्या से मरने वालों में कम से कम 42,480 किसान और दिहाड़ी पर काम करने वाले लोग थे. इनमें 10,281 किसान थे और 32,559 दिहाड़ी कमाई वाले. किसानों में 5,563 पुरुष थे और 394 महिलाएं. कृषि श्रमिकों में 3,749 पुरुष थे और 575 महिलाएं. दिहाड़ी कमाई वालों में 29,092 पुरुष थे और 3,467 महिलाएं.
तस्वीर: AFP/N. Nanu
युवा ले रहे हैं अपनी जान
इनमें से 67 प्रतिशत, यानी 93,061, लोगों की उम्र 18-45 साल के बीच थी. युवाओं में भी आत्महत्या के मामले 2018 के मुकाबले बढ़े हैं. इनमें चार प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/Str
फांसी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल
आत्महत्या के तरीकों में फांसी के मामले सबसे ज्यादा है. 53.6 प्रतिशत (लगभग 74,629) लोगों ने खुद को फांसी लगा ली.
तस्वीर: picture alliance/ZUMA Press/W. Sabawoon
महाराष्ट्र में स्थिति सबसे खराब
आंकड़ों को राज्यवार देखें तो सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र में सामने आए. महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में ही पूरे देश के कुल मामलों में से 50 प्रतिशत मामले पाए गए. लेकिन आत्महत्या की दर चार दक्षिणी राज्य केरल, कर्नाटक, तेलांगना और तमिलनाडु में सबसे ज्यादा पाई गई. बिहार में दर सबसे काम पाई गई, लेकिन वहां 2018 के मुकाबले मामले 44.7% प्रतिशत बढ़ गए.
तस्वीर: Reuters
आय और शिक्षा
मरने वालों में सबसे ज्यादा संख्या में लोग (23.3 प्रतिशत) मैट्रिक तक ही पढ़े लिखे थे. सिर्फ 3.7 प्रतिशत ने स्नातक या उससे ऊपर की पढ़ाई की थी. 66.2 प्रतिशत लोगों की सालाना आय एक लाख रुपए से भी कम थी, जब कि 29.6 प्रतिशत लोगों की आय एक लाख से पांच लाख के बीच थी.