जर्मनी में स्वास्तिक जैसे दिखने वाले झूले को बंद किया गया
२१ अगस्त २०१९
जर्मनी में स्वास्तिक चिह्न के इस्तेमाल पर सजा हो सकती है. स्वास्तिक के अलावा और भी कई ऐसे प्रतीक चिह्न हैं जिनका इस्तेमाल प्रतिबंधित है. स्वास्तिक और इन दूसरे प्रतीकों को संविधान विरोधी चिह्न माना जाता है.
विज्ञापन
दक्षिण पश्चिम जर्मनी के लोएफिंगन शहर में एक पार्क में लगे झूले को बंद कर दिया गया है. तत्समानिया अम्यूजमेंट पार्क में लगा यह झूला स्वास्तिक जैसा दिखाई देता था. आडलरफ्लूग नाम के इस झूले का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया था. वीडियो देखकर कुछ लोगों ने कहा कि यह झूला नाजी जर्मनी के चिह्न रहे स्वास्तिक से मिलता है.
इस पर सोशल मीडिया पर लोग भड़क गए. ऐसे में इस अम्यूजमेंट पार्क के मालिक ने तुरंत इस झूले को बंद करने का आदेश दिया. अब इस झूले को इटली के निर्माता से फिर से डिजायन करवाया जाएगा. इस झूले के अलावा बाकी पार्क सामान्य रूप से चल रहा है.
पार्क के मालिक रुडिगर ब्राउन ने इस मामले पर माफी मांगी है. उन्होंने कहा, "मैं उन सभी लोगों से माफी मांगता हूं जो इस बात से आहत हुए हैं. अब इस झूले को फिर से डिजायन किया जाएगा और इस समस्या का समाधान कर लिया जाएगा." स्थानीय लोगों की इस घटना पर मिली जुली प्रतिक्रिया है. पार्क में टहलने वाले एक स्थानीय नागरिक का कहना है, "कोई ऐसी डिजायन कैसे बना सकता है. यह बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है. इंजीनियरिंग का डिजायन बताकर इस मामले को दबाया नहीं जा सकता."
वहीं एक दूसरे नागरिक का कहना है कि उन्हें इससे कोई परेशानी नहीं है. उन्होंने तो इस पर ध्यान भी नहीं दिया कि यह स्वास्तिक जैसा दिखता है. उनके मुताबिक बच्चे इस पर ध्यान भी नहीं देते कि यह है क्या.
स्वास्तिक को लेकर क्या नियम हैं
हिटलर के समय में जर्मन सेनाएं और नाजी पार्टी स्वास्तिक चिह्न का इस्तेमाल किया करती थीं. नाजीकाल के नारों, प्रतीकों, चिह्नों और संबोधनों के इस्तेमाल को लेकर सख्त नियम बने हुए हैं. वकील क्रिश्चियन सोलमेक के मुताबिक अधिकांश देशों में नाजी प्रतीकों के इस्तेमाल को लेकर कोई नियम नहीं है. इसके चलते दूसरे देश के लोगों को इस बारे में जानकारी कम होती है. जर्मनी में स्वास्तिक या हिटलर की सेना रही एसएस से जुड़े किसी भी चिह्न को "संविधान विरोधी संस्था का चिह्न" माना जाता है. इसलिए सार्वजनिक रूप से ऐसे चिह्नों का प्रदर्शन या उन्हें बेचना, नाजी सैल्यूट करना और हेल हिटलर जैसे नारे लगाना प्रतिबंधित है.
स्वास्तिक चिह्न का इस्तेमाल करने के लिए अलग अलग परिस्थितियां तय की गई हैं. क्रिमिनल कोड के मुताबिक इसका इस्तेमाल नैतिक शिक्षा, अलोकतांत्रिक चीजों को रोकने, कला और विज्ञान, शोध और शिक्षा के साथ-साथ ऐतिहासिक और वर्तमान परिपेक्ष्यों का वर्णन करने जैसे कामों के लिए किया जा सकता है. यही वजह है कि टीवी सीरीज और फिल्मों में नाजी चिह्नों को दिखाया जा सकता है.
नाजी चिह्नों को सोशल मीडिया पर पोस्ट करना भी प्रतिबंधित है. लेकिन कुछ विषयों में अपवाद स्वरूप इन्हें पोस्ट करने की अनुमति है. जर्मनी में लोग नाजी प्रतीक चिह्नों वाली चीजों को सार्वजनिक रूप से नहीं दिखा सकते लेकिन उन्हें अपने पास रख सकते हैं. इसके लिए उन्हें ये सुनिश्चित करना होगा कि इसे ज्यादा लोग ना देख सकें. अगर बाजार में एसएस का कोई पुराना हेलमेट बेचा जा रहा है तो इस पर बना नाजी चिह्न छिपा होना चाहिए. साथ ही ऐसी चीजें तब ही बेची जा सकती हैं जब वो 1945 से पहले की बनी हुई हों. जैसे नाजी सेना की वर्दी की नकल कर बनाई नई वर्दी नहीं बेची जा सकती.
कौन तय करता है सही या गलत
विवाद के होने पर अदालत तय करती है कि इन चिह्नों का इस्तेमाल किस उद्देश्य से किया गया है. 2007 में उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के एक फैसले को पलट दिया था. निचली अदालत ने एक कार्यकर्ता को 3,600 यूरो यानी करीब तीन लाख रुपये का जुर्माना भरने का आदेश दिया था. कार्यकर्ता पर आरोप था कि उन्होंने क्रॉस्ड स्वास्तिक का चिह्न बेचा था. वो नाजी विरोधी सामग्री बेच रहे थे जिसमें एक क्रॉस्ड स्वास्तिक भी शामिल था. लेकिन अदालत ने कहा कि क्रॉस्ड स्वास्तिक का इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि यह उस विचारधारा को फैलाने के पक्ष में नहीं, उसके खिलाफ है. हालांकि अभी भी ऐसे कई अस्पष्ट मामले हैं जिनमें पता नहीं है कि स्वास्तिक का इस्तेमाल सही है या नहीं. कई बार अदालतों के फैसलों में भी विरोधाभास होता है.
स्वास्तिक या ऐसे किसी भी नाजी प्रतीक का इस्तेमाल करने पर जुर्माना और तीन साल की जेल हो सकती है. अगर यह साबित होता है कि किसी जाति, धर्म या वर्ग के लोगों के खिलाफ घृणा फैलाने के उद्देश्य से कुछ किया गया है तो पांच साल की जेल हो सकती है. इसमें हॉलोकास्ट यानी नाजी जर्मनी के दौरान हुए यहूदी नरसंहार को ना मानने का अपराध भी शामिल है. नाजी प्रतीक चिह्नों के अलावा किसी भी प्रतिबंधित संगठन या आतंकी संगठन के प्रतीक चिह्नों को भी इसी श्रेणी में रखा जाता है और उन्हें भी संविधान के खिलाफ माना जाता है.
Mara Bierbach, Karsten Kaminskiमारा बेरबाख/कार्सटेन कामिंस्की/डीपीए
भारत से आई बंजारा जातियां सिंती और रोमा 600 साल से अधिक से यूरोप में रहती हैं. नाजी जर्मनी में उनके साथ भारी भेदभाव हुआ, जबरन नसबंदी की गई और बहुतों को मार डाला गया. बाद में जर्मन समाज ने भी उनके उत्पीड़न को नकारा.
तस्वीर: Dokumentations- und Kulturzentrum Deutscher Sinti und Roma
मातृभूमि की सेवा
बहुत से जर्मन सिंतियों ने सिर्फ प्रथम विश्वयुद्ध में ही नहीं, बल्कि 1939 के बाद नाजी सेना में भी लड़ाई लड़ी. 1941 में जर्मन हाई कमान ने सभी जिप्सियों और अर्ध जिप्सियों को नस्लवादी कारणों से सेना की सक्रिय सेवा ने निकालने का फैसला किया. अलफोंस लाम्पर्ट और उनकी पत्नी एल्जा को यातना शिविर आउशवित्स भेज दिया गया जहां उन्हें मार डाला गया
तस्वीर: Dokumentations- und Kulturzentrum Deutscher Sinti und Roma
नस्ली नाप और रजिस्ट्रेशन
नर्स एवा जस्टिन ने सिंती और रोमा का विश्वास जीतने के लिए रोमानी भाषा सीखी. वैज्ञानिक नस्लवाद की विशेषज्ञ के रूप में उसने पूरे जर्मनी में घूम घूमकर लोगों के नाप लिए और "जिप्सी" तथा "अर्द्ध जिप्सी ब्रीड" का पूरा रजिस्टर तैयार किया. ये बाद में सिंती और रोमा के नरसंहार का आधार बना. उन्होंने पारिवारिक संबंधों और चर्च के रिकॉर्ड की जांच की.
तस्वीर: Bundesarchiv
गिरफ्तारी और कुर्की
1930 के दशक में सिंती और रोमा परिवारों को उनके घरों से निकालकर शहर के बाहर बाड़े में घिरे कैंपों में रहने को विवश किया गया. दक्षिण पश्चिमी जर्मनी के रावेंसबुर्ग कैंप की तरह कैंपों की सुरक्षा कुत्तों वाले पुलिसकर्मी करते थे. उन्हें कैंप से बाहर नहीं निकलने दिया जाता और बंधुआ मजदूरों की तरह काम करना पड़ता था. बहुतों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी गई.
तस्वीर: Stadtarchiv Ravensburg
लोगों के सामने डिपोर्टेशन
मई 1940 में दक्षिण पश्चिमी जर्मन शहर आस्पैर्ग में सिंती और रोमा परिवारों को शहर की गलियों से होते हुए स्टेशन तक ले जाया गया और वहां से उन्हें सीधे नाजी कब्जे वाले पोलैंड में भेज दिया गया. बाद में एक पुलिस रिपोर्ट में लिखा गया कि उन्हें डिस्पैच करने की कार्रवाई बिना किसी बाधा के पूरी हुई. डिपोर्ट किए गए ज्यादातर लोग लेबर कैंपों में मारे गए.
तस्वीर: Bundesarchiv
स्कूल से आउशवित्स
कार्ल्सरूहे के एक स्कूल की 1930 के दशक की इस तस्वीर में कार्ल क्लिंग भी हैं. उन्हें 1943 में स्कूल से उठाया गया और आउशवित्स के "जिप्सी कैंप" में भेज दिया गया जहां वे नाजी नरसंहार के शिकार हुए. पीड़ित बताते हैं कि डिपोर्ट किए जाने से पहले स्कूलों में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता था और कई बार तो क्लास में शामिल भी नहीं होने दिया जाता था.
झूठी उम्मीद
नौ साल का हूगो होएलेनराइनर जब मवेशी गाड़ी में सवार होकर अपने परिवार के साथ 1943 में आउशवित्स पहुंचा तो उसने सोचा था, "मैं काम कर सकता हूं." कैंप के बाहर बोर्ड लगा था, "काम आजाद करता है." बाद में होएलेनराइटर ने बताया कि इससे उम्मीद बंधी थी. वह अपने पिता की मदद करना चाहता था ताकि वे सब आजाद हो सकें. लेकिन आउशवित्स भेजे गए सिर्फ 10 फीसदी लोग बचे.
तस्वीर: DW/A. Grunau
बंदियों के साथ बर्बर प्रयोग
नाजी संगठन एसएस का कुख्यात डॉक्टर जोसेफ मेंगेले आउशवित्स में काम करता था. वह और उसके साथी बंदियों को कठोर यातना देते थे. वे बच्चों के शरीर की चीड़फाड़ करते, उन्हें बीमारियों का इंजेक्शन देते और जुड़वां बच्चों पर बर्बर प्रयोग करते. मेंगेले ने उनकी आंखें, शरीर के अंग और पूरे के पूरे शरीर बर्लिन भेजे. बाद में वह यूरोप से भाग गया और उस पर कभी मुकदमा नहीं चला.
तस्वीर: Staatliches Museum Auschwitz-Birkenau
Liberation comes too late
जब रूस की रेड आर्मी ने 27 जनवरी 1945 को आउशवित्स के यातना कैंप को आजाद कराया तो कैद में बच्चे बचे थे. सिंती और रोमा बंदियों के लिए आजादी की रात देर से आई थी. 2-3 अगस्त 1944 की रात को कैंप के प्रभारी अधिकारी ने सिंती और रोमा बंदियों को गैस चैंबर में भेजने का आदेश दिया था. अगले दिन "जिप्सी कैंप" से दो बच्चे रोते हुए बाहर निकले, उन्हें भी मार दिया गया.
तस्वीर: DW/A. Grunau
नस्लवादी उत्पीड़न
नाजी यातना शिविरों को आजाद कराए जाने के बाद मित्र देशों की सेना और जर्मन अधिकारियों ने जिंदा बचे लोगों को नस्लवादी उत्पीड़न और कैद होने का सर्टिफिकेट दिया. बाद में उनसे कहा गया कि उन्हें अपराधों के लिए सजा मिली है और हर्जाने की उनकी मांग ठुकरा दी गई. हिल्डेगार्ड राइनहार्ट ने आउशवित्स में अपनी तीन छोटी बेटियों को खोया है.
तस्वीर: Dokumentations- und Kulturzentrum Deutscher Sinti und Roma
मान्यता की अपील
1980 के दशक के आरंभ में सिंती और रोमा समुदायों के प्रतिनिधियों ने डाखाऊ के पूर्व यातना शिविर के सामने भूख हड़ताल की. वे अपने समुदाय को अपराधी बताने और नाजी यातना को मान्यता दिए जाने की मांग कर रहे थे. 1982 में तत्कालीन चांसलर हेल्मुट श्मिट ने पहली बार औपचारिक रूप से स्वीकार किया कि सिंती और रोमा समुदाय के लोग नाजी नरसंहार के शिकार हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
बर्लिन में स्मारक
2012 में बर्लिन में जर्मन संसद बुंडेसटाग के निकट नाजी उत्पीड़न के शिकार सिंती और रोमा लोगों के लिए स्मारक बना. ये स्मारक दुनिया भर के सिंती और रोमा के लिए भेदभाव के खिलाफ लंबे संघर्ष की निशानी है. इस समुदाय के लोगों को आज भी जर्मनी और यूरोप के दूसरे देशों में भेदभाव का शिकार बनाया जा रहा है.