तालिबान ने अफगान नागरिकों की देश से निकासी पर प्रतिबंध लगा दिया है. इसको लेकर अफगान सुरक्षा बलों ने एक राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू किया है. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने यात्रा प्रतिबंध पर चिंता जाहिर की है.
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तालिबान सरकार के मुताबिक किसी भी अफगान को देश छोड़ने की इजाजत नहीं होगी. वहीं, अफगान बलों ने सोमवार 28 फरवरी से घर-घर जाकर एक अभियान शुरू किया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अफगान नागरिक देश को छोड़कर विदेश न जाएं. तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने रविवार देर शाम इन प्रतिबंधों की घोषणा की.
तालिबान के प्रवक्ता ने कहा कि प्रतिबंध का उद्देश्य अफगानों को विदेशों में कठिनाइयों से बचाना है.
मुजाहिद के मुताबिक राष्ट्रों या गैर-सरकारी संगठनों द्वारा आयोजित निकासी पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, जबकि यहां तक कि खुद से देश छोड़ने का प्रयास करने वाले परिवारों को अब "कारण" बताना होगा या उन्हें इमिग्रेशन द्वारा रोक दिया जाएगा.
मुजाहिद ने संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए, "मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि जो लोग अपने परिवार के साथ देश छोड़कर जाते हैं और उनके पास इस निकासी का कोई कारण नहीं है. हम उन्हें देश छोड़ने की अनुमति नहीं देंगे और उन्हें रोका जाएगा."
अफगान शरणार्थियों का स्वागत करता एक छोटा सा शहर
तालिबान के चंगुल से खुद को बचाकर काबुल से भागा एक परिवार अमेरिका के केंटकी राज्य के एक छोटे से शहर में आ पहुंचा है. देखिए कैसे ये शरणार्थी और यह शहर एक दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे हैं.
तस्वीर: Amira Karaoud/Reuters
काबुल से केंटकी तक
बोलिंग ग्रीन नाम का यह शहर शरणाथियों को पनाह देने के लिए जाना जाता है. काबुल से आया जदरान परिवार को इंटरनैशनल सेंटर नाम की स्थानीय पुनर्वास संस्था की मदद से यहां एक घर मिल गया है और बच्चों को एक स्कूल में दाखिला भी.
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कभी नेता, अब शरणार्थी
41 साल के वजीर खान जदरान अफगानिस्तान में एक कबायली नेता थे जिन्होंने तालिबान के हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. वो बताते हैं कि अगस्त 2020 में अमेरिकियों ने उन्हें और उनके परिवार को एक चिनूक हेलीकॉप्टर में बिठा कर काबुल हवाई अड्डे तक पहुंचाया, जहां से वो अफगानिस्तान छोड़ सके.
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बाहें फैलाने वाला शहर
जदरान और उनकी पत्नी नूरीना का बोलिंग ग्रीन में स्वागत हुआ है. इस शहर ने पिछले चार दशकों में कई शरणार्थियों को पनाह दी है. सबसे पहले 1980 के दशकों में कंबोडिया से शरणार्थी आए, फिर 90 के दशकों में बॉस्निया से. बाद में इराक, म्यांमार, रवांडा और फिर कॉन्गो जैसी जगहों से लोगों ने यहां बस कर मात्र 72,000 की आबादी के इस शहर को विविधताओं से भर दिया और आर्थिक रूप से संपन्न बना दिया.
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स्थानीय लोगों से मिली मदद
जदरान यहां खुश हैं. उनके छह बच्चे यहां स्कूल जा रहे हैं, अंग्रेजी में गाने सीख रहे हैं, लाइब्रेरी से किताबें उधार ले रहे हैं और उन्होंने सैंटा क्लॉस को चिट्ठियां भी लिखी हैं. जदरान कहते हैं, "हम बोलिंग ग्रीन में बहुत खुश हैं. स्थानीय लोग हमारी मदद कर रहे हैं और यहां की संस्कृति से हमारा परिचय करा रहे हैं."
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घुलते-मिलते बच्चे
सुपरमैन की पोशाक पहने छह साल के सनाउल्ला खान जदरान, चार साल की जहरा जदरान और 13 साल के समीउल्ला खान जदरान खेल रहे हैं. यह वियतनाम युद्ध के बाद अमेरिकी सरकार का सबसे बड़ा शरणार्थी निकास कार्यक्रम है. इसके तहत अमेरिका में 75,000 लोगों को बसाया जाना है. उम्मीद है कि अकेले बोलिंग ग्रीन में ही 2022 में 350 अफगान आएंगे.
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अमेरिका से हो रहा परिचय
परिवार अमेरिका में रहने के तौर तरीके सीख रहा है, जैसे गाड़ी चलाना, क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल करना जैसी चीजें. इसके अलावा जब बवंडर आए तो क्या करना है, वो भी. दिसंबर में केंटकी में जो बवंडर आए थे उन्होंने इस परिवार की सुरक्षा के एहसास को एक झटका दिया. जदरान कहते हैं, "हमने पहले कभी इस तरह का तूफान नहीं देखा था...हमें लगा जैसे हम फिर किसी युद्ध में जा रहे हों. लेकिन अल्लाह ने हमें बचा लिया."
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सुरक्षा का एहसास
बवंडरों को हटा दें, तो जदरान परिवार सुरक्षित है और खुशकिस्मत है कि उसे स्वागत करने वाले लोगों के बीच बगीचे वाला एक घर मिल गया है. बोलिंग ग्रीन के नए निवासियों के लिए यहां कई नौकरियां भी हैं. यह कृषि और औद्योगिक गतिविधियों का एक केंद्र है जिसे शायद सबसे ज्यादा जाना जाता है जनरल मोटर्स कंपनी के असेंबली प्लांट के लिए जहां उसकी लोकप्रिय कोरवेट स्पोर्ट्स कार बनती है.
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ताकि अपनी पहचान भी बाकी रहे
बोलिंग ग्रीन शरणार्थियों को अपनी पहचान बरकरार रखने की भी इजाजत देता है. यहां सब अपना अपना धर्म भी मान सकते हैं और एक पारिवारिक जीवन जी सकते हैं.
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एक नई संस्कृति
जदरान परिवार में बच्चे तेजी से यहां की नई संस्कृति में ढल रहे हैं. सबसे बड़ी 15 साल की जुलेखा अपने भाई बहनों को अंग्रेजी गाना "व्हाट आर यू थैंकफुल फॉर" सीखा रही हैं. बच्चे अपने ही प्रदर्शन पर तालियां बजाते हैं और "हो गया!" कहती हुई सुलेखा के चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कुराहट खिल जाती है. (केविन मर्टेन्स, रॉयटर्स से जानकारी के साथ)
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प्रतिबंध सभी पर लागू
तालिबान सरकार द्वारा घोषित प्रतिबंध और अफगान बलों के अभियान का असर सभी अफगानों पर पड़ेगा. महिलाएं भी विदेश नहीं जा सकतीं जब तक कि उनके साथ कोई पुरुष रिश्तेदार न हो. नया प्रतिबंध पिछले साल शुरू किए गए प्रतिबंधों की एक श्रृंखला का हिस्सा है, लेकिन उस समय शहरों और कस्बों के बीच अकेली महिलाओं की यात्रा पर प्रतिबंध लगाया गया था.
मुजाहिद ने अपने बयान में कहा, "जो महिलाएं विदेश यात्रा करना चाहती हैं, उनके साथ एक पुरुष सदस्य होना चाहिए. यह शरिया का नियम है.'' तालिबान की ओर से यह घोषणा ऐसे समय में की गई है जब अफगानिस्तान में अपहरणकर्ताओं, चोरों और लुटेरों की तलाश के लिए पिछले सप्ताहांत में अभियान चलाया गया था. यात्रा प्रतिबंध उन हजारों अफगानों के लिए एक झटका है, जिन्होंने अमेरिकी नेतृत्व वाली विदेशी ताकतों या अन्य पश्चिमी संगठनों के साथ काम किया था और उन्हें निकालने का वादा विदेशी सरकारों और संगठनों ने किया था.
हजारों लोग अभी भी अफगानिस्तान में हैं, लेकिन वे बाहर निकलने के लिए बेताब हैं और ऐसी आशंका है कि तालिबान उन्हें "विदेशी तत्वों के भागीदार या सूत्रधार" के रूप में निशाना बना सकता है. यूरोप और अन्य देश जाने के लिए लोग ईरान पहुंच रहे थे.
एए/सीके (एएफपी, रॉयटर्स)
मिल गया काबुल की भगदड़ में खोया सोहेल
अगस्त में जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया और तमाम लोग देश छोड़कर भागना चाहते थे, तो एक भगदड़ मच गई थी. उस भगदड़ में दो महीने का सोहेल अपने परिवार से बिछड़ गया था. पांच महीने बाद सोहेल मिल गया है.
तस्वीर: Ali Khara/REUTERS
पांच महीने बाद मिला नन्हा सोहेल
काबुल की भगदड़ में अपने माता-पिता से बिछड़ा सोहेल तब दो महीने का था. 19 अगस्त को सोहेल लापता हो गया था.
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भागते मां-बाप के हाथों से छूटा
तालिबान के आने के बाद जब लोग किसी भी तरह काबुल से बाहर निकलना चाहते थे तब सोहेल को दीवार के ऊपर से एक अमेरिकी सैनिक को सौंपा गया था
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भटकते रहे माता-पिता
सोहेल के पिता मिर्जा अली अहमदी अमेरिकी दूतावास में सिक्यॉरिटी गार्ड के तौर पर काम करते थे. उन्हें, उनकी पत्नी और चार अन्य बच्चों को एक अमेरिकी विमान से काबुल से बाहर निकाला गया.
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महीनों तक पता नहीं चला
वे लोग तो अमेरिका चले गए लेकिन दो महीने का सोहेल पीछे छूट गया. महीनों तक वे दर-दर भटकते रहे लेकिन सोहेल का कहीं पता नहीं चला.
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खबरों से पता चला
सोहेल के बारे में कई जगह समाचार छपे. उन समाचारों को काबुल में भी लोगों ने पढ़ा. और तब बात एक टैक्सी ड्राइवर हामिद सफी तक पहुंची.
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सोहेल को मिला नया नाम
सफी ने बताया कि उन्होंने सोहेल के घरवालों को काफी खोजा फिर उसे वे अपने घर ले गए. उन्होंने उसे मोहम्मद आबिद नाम भी दिया और अपने फेसबुक पेज पर उसकी तस्वीरें पोस्ट की.
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दादा को सौंपा सोहेल
सारी मालूमात के बाद सोहेल के दादा मोहम्मद कासिम रजावी सफी से मिले. दोनों परिवारों के बीच सात हफ्ते तक बातचीत होती रही. इस बीच पुलिस को भी दखल देना पड़ा.
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आखिरकार घर लौटा सोहेल
रजावी ने जब अपने पोते को सफी से गोद में लिया तो सफी फूट-फूटकर रो रहे थे. पांच महीने में ही सोहेल उनका अपना हो गया था.
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अब अमेरिका का सफर
सोहेल के सौंपे जाने को उसके माता-पिता वीडियो चैट से देख रहे थे. रजावी बताते हैं कि वे खुशी से नाचने-गाने और उछलने लगे थे. परिवार को उम्मीद है कि सोहेल के अमेरिका जाने का प्रबंध जल्दी ही किया जाएगा जहां वह महीनों बाद अपनी अम्मी से मिल पाएगा.