अफगानिस्तान के ग्रामीण क्षेत्र में शांति की उम्मीद जगी
१५ नवम्बर २०२१
एक समय पर लड़ाई का खामियाजा भुगतने वाले अफगानिस्तान के कई गांवों में तालिबान की जीत ने हवाई हमलों और अंतिम संस्कार के एक चक्र को तोड़ दिया है.
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समाचार एजेंसी एएफपी की एक रिपोर्ट के मुताबिक अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार की स्थापना और अमेरिकी सैनिकों की वापसी ने इस संभावना को बढ़ा दिया है कि देश के गांवों में लोगों की दिनचर्या अब पहले जैसी हो सकती है. काबुल पर तालिबान के कब्जे और अगस्त में अमेरिकी सैनिकों की वापसी ने दुनिया को हिला दिया और अफगानों की आजादी को प्रभावित किया. जिसका विशेष रूप से शहरी मध्यम वर्ग द्वारा आनंद लिया जा रहा था.
हिंसा से मिली आजादी
उत्तरी अफगानिस्तान के बल्ख से लगभग 30 किलोमीटर दूर दश्तन गांव की एक अमीर महिला माकी का कहना है कि वह तालिबान को सब कुछ दे देगी क्योंकि गोलियों की आवाज अब थम गई है. माकी अपना समय अपने गांव की कुछ अन्य महिलाओं के साथ कपास की कताई में बिताती है और यही उसकी आजीविका का स्रोत है. माकी जैसे कुछ ग्रामीण सोचते हैं कि युद्ध समाप्त हो गया है और लोग तालिबान से खुश हैं. माकी एएफपी से कहती हैं, "अब फायरिंग की कोई आवाज नहीं आती है. युद्ध खत्म हो गया है और हम तालिबान से खुश हैं."
अफगानिस्तान पर 10 बेहतरीन फिल्में
अफगानिस्तान कई अंतरराष्ट्रीय फिल्मों की पृष्ठभूमि रहा है. देश को और करीब से जानने के लिए ये 10 फिल्में मददगार हो सकती हैं.
तस्वीर: 2007 Universal Studios
हवा, मरयम, आएशा (2019)
अफगान निदेशक सहरा करीमी की यह फिल्म वेनिस फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई थी. इसमें काबुल में रहने वाली तीन महिलाओं की कहानी है, जो अपने-अपने तरीकों से गर्भावस्था के हालात से जूझती हैं. सहरा करीमी ने हाल ही में सोशल मीडिया पर एक खुले खत में दुनियाभर से उनके देश की मदद का आग्रह किया था.
तस्वीर: http://hava.nooripictures.com
ओसामा (2003)
1996-2003 के दौरान अफगानिस्तान पर तालिबान का शासन था. ज्यादातर क्षेत्रों में महिलाओं के काम करने पर पाबंदी थी. ऐसे में जिन परिवारों के मर्द मारे जाते, उनके सामने बड़ी मुश्किलें खड़ी हो जातीं. ओसामा ऐसी किशोरी की कहानी है जो अपने परिवार की मदद के लिए लड़का बनकर काम करती है. 1996 के बाद यह पहली ऐसी फिल्म थी जिसे पूरी तरह अफगानिस्तान में फिल्माया गया.
तस्वीर: United Archives/picture alliance
द ब्रैडविनर (2017)
आयरलैंड के स्टूडियो कार्टून सलून ने ‘ओसामा’ से मिलती जुलती कहानी पर एनिमेशन फिल्म बनाई थी. यह डेब्रा एलिस के मशहूर उपन्यास पर आधारित थी. फिल्म को ऑस्कर में नामांकन मिला था.
खालिद हुसैनी के उपन्यास पर जर्मन-स्विस फिल्मकार मार्क फोरस्टर ने यह फिल्म बनाई थी जो अफगानिस्तानी जीवन के बहुत से पहलुओं का संवेदनशील चित्रण है.
तस्वीर: Mary Evans Picture Library/picture-alliance
कंदहार (कंधार) (2001)
ईरान के महान फिल्मकारों में शुमार मोहसिन मखमलबाफ की यह फिल्म कनाडा में रहने वालीं एक ऐसी अफगान महिला की कहानी है जो अपनी बहन को खुदकुशी से रोकने के लिए घर लौटती है. फिल्म का प्रीमियर कान फिल्म महोत्सव में हुआ था.
तस्वीर: Mary Evans Arichive/imago images
एट फाइव इन द आफ्टरनून (2003)
मोहसिन मखमलबाफ की बेटी समीरा ने अफगान महिलाओं पर यह फिल्म बनाई जिसमें देश का राष्ट्रपति बनने का ख्वाब देखती एक अफगान महिला की कहानी है.
तस्वीर: Mary Evans Picture Library/picture alliance
इन दिस वर्ल्ड (2002)
यह फिल्म एक अफगान शरणार्थी की पाकिस्तान होते हुए लंदन पहुंचने की अवैध यात्रा की कहानी कहती है. माइकल विंटरबॉटम ने इस फिल्म को डॉक्युमेंट्री के अंदाज में फिल्माया था. फिल्म ने बर्लिन में गोल्डन बेयर और BAFTA का सर्वश्रेष्ठ गैर-अंग्रेजी भाषी फिल्म का पुरस्कार जीता था.
तस्वीर: Mary Evans Picture Library/picture-alliance
लोन सर्वाइवर (2013)
यह फिल्म अमेरिकी नेवी सील मार्कस लटरेल की किताब पर आधारित है जिसमें 2005 में कुनार प्रांत में हुए ‘ऑपरेशन रेड विंग्स’ की कहानी बयान की गई है. उस अभियान में लटरेल के तीन साथी मारे गए थे और वह अकेले लौट पाए थे.
तस्वीर: Gregory E. Peters/SquareOne/Universum Film/dpa/picture alliance
रैंबो lll (1988)
सिल्वेस्टर स्टैलन की मशहूर सीरीज रैंबो की तीसरी फिल्म में नायक रैंबो अपने पूर्व कमांडर को बचाने के लिए अफगानिस्तान जाता है.
तस्वीर: United Archives/IFTN/picture alliance
चार्ली विल्सन्स वॉर (2007)
यह फिल्म तब की कहानी है जब अमेरिका ने रूस के खिलाफ मुजाहिद्दीन की मदद की थी, जिन्होंने बाद में तालिबान और अल कायदा जैसे संगठन बनाए. टॉम हैंक्स अभिनीत यह फिल्म माइक निकोलस ने निर्देशित की और अपने समय की बेहतरीन फिल्मों में गिनी गई.
तस्वीर: Mary Evans Picture Library/picture-alliance
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दश्तन के एक अन्य निवासी हाजीफत खान ने कहा कि गांव में महिलाएं और सभी पुरुष तालिबान समर्थक थे और सत्ता पर तालिबान के कब्जा करने से बहुत खुश थे. 82 वर्षीय हाजीफत का कहना है कि उनके देश में अब शांति है.
अफगानिस्तान के गांवों में गरीबी का स्तर बेहद गंभीर हो गया है. ग्रामीणों के पास खाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं है और मौसम भी ठंडा हो रहा है. सर्दी से बचने के लिए वे लकड़ी जलाते हैं.
मुश्किल परिस्थितियों में जी रहे लोग
दश्तन गांव कभी आरामदायक था और अधिकांश परिवार आसानी से जिंदगी बिता सकते थे, लेकिन युद्ध के दौरान गरीबी इतनी बढ़ गई कि अधिकांश परिवारों ने अपना घर छोड़ दिया. अब कुछ परिवार मुश्किल परिस्थितियों में रह रहे हैं.
अफगान शहरों में जीवन में कुछ हद तक सुधार हुआ है क्योंकि अरबों डॉलर की मदद का एक छोटा सा हिस्सा किसी तरह निचले इलाकों तक पहुंच जाता है. दूसरी ओर गांवों में जीवन अत्यंत कठिन, परेशान करने वाला और दयनीय है. इन गांवों के लोगों का मानना है कि तालिबान जो इस्लामी आंदोलन के सदस्य होने का दावा करते हैं देश के हर वर्ग में फैले भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए व्यावहारिक उपायों की शुरुआत करते हुए अपनी सरकार को मजबूत करेंगे.
एए/सीके (एएफपी)
कोरोना से ज्यादा भुखमरी से मर रहे लोग
गैर सरकारी संस्था ऑक्सफैम का कहना है कि दुनिया भर में हर एक मिनट में 11 लोगों की मौत भूख के कारण हो जाती है. विश्व में अकाल जैसी परिस्थितियों का सामना करने वालों की संख्या में पिछले वर्ष की तुलना में छह गुना वृद्धि हुई.
तस्वीर: Florian Lang/Welthungerhilfe
कोरोना पर भी भारी भुखमरी
ऑक्सफैम ने अपनी ताजा रिपोर्ट का शीर्षक "हंगर वायरस मल्टीप्लाइज" दिया है. गैर सरकारी संस्था ऑक्सफैम का कहना है कि भुखमरी के कारण मरने वाले लोगों की संख्या कोविड-19 के कारण मरने वाले लोगों की संख्या से अधिक हो गई है. कोविड-19 से दुनिया में हर एक मिनट में करीब सात लोगों की मौत होती है.
तस्वीर: Laetitia Bezain/AP/picture alliance
एक साल में बढ़ी संख्या
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले एक साल में अकाल जैसे हालात का सामना करने वाले लोगों की संख्या पूरी दुनिया में छह गुना बढ़ गई है. ऑक्सफैम अमेरिका के अध्यक्ष और सीईओ एबी मैक्समैन के मुताबिक, "आंकड़े चौंका देने वाले हैं, लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि ये आंकड़े अकल्पनीय पीड़ा का सामना करने वाले अलग-अलग लोगों से बने हैं. यहां तक की एक व्यक्ति भी बहुत अधिक है."
तस्वीर: Eshete Bekele/DW
15.5 करोड़ लोगों के सामने खाद्य असुरक्षा का संकट
ऑक्सफैम की रिपोर्ट में कहा गया कि दुनिया में करीब 15.5 करोड़ लोग खाद्य असुरक्षा के भीषण संकट का सामना कर रहे हैं. यह आंकड़ा पिछले साल के आंकड़ों की तुलना में दो करोड़ ज्यादा है. इनमें से करीब दो तिहाई लोग भुखमरी के शिकार हैं और इसका कारण है उनके देश में चल रहा सैन्य संघर्ष.
तस्वीर: Jack Taylor/Getty Images
कोविड और जलवायु परिवर्तन का भी असर
एबी मैक्समैन का कहना है, "आज कोविड-19 के कारण आर्थिक गिरावट और निरंतर संघर्षों और जलवायु संकट ने दुनिया भर में 5.20 लाख से अधिक लोगों को भुखमरी की कगार पर पहुंचा दिया है." उन्होंने कहा वैश्विक महामारी से निपटने के बजाय युद्धरत गुट एक दूसरे से लड़ाई लड़ रहे हैं. जिसका सीधा असर ऐसे लाखों लोगों पर पड़ता है जो पहले से ही मौसम से जुड़े आपदाओं और आर्थिक झटकों से कराह रहे हैं.
तस्वीर: picture-alliance/M. Hamoud
महामारी में भी सैन्य खर्च
ऑक्सफैम का कहना है कि महामारी के बावजूद वैश्विक सैन्य खर्च बढ़कर 51 अरब डॉलर हुआ है. यह राशि भुखमरी को खत्म करने के लिए संयुक्त राष्ट्र को जितने धन की जरूरत है उसके मुकाबले कम से कम छह गुना ज्यादा है.
तस्वीर: Ismail Hakki/AFP/Getty Images
इन देशों में स्थिति बेहद खराब
रिपोर्ट में उन देशों को शामिल किया गया है जो भुखमरी से "सबसे ज्यादा प्रभावित" हैं. इसमें अफगानिस्तान, इथियोपिया, दक्षिण सूडान, सीरिया और यमन शामिल हैं. इन सभी देशों में संघर्ष जारी है.
ऑक्सफैम का कहना है कि भुखमरी को युद्ध के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. लोगों को भोजन और पानी से वंचित रखकर, मानवीय सहायता में बाधा पहुंचाकर भुखमरी को युद्ध के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. ऑक्सफैम के मुताबिक जब उनके बाजारों, खेतों और जानवरों पर बमबारी हो रही हो तो वे सुरक्षित रूप से नहीं रह सकते या भोजन नहीं तलाश सकते हैं.
तस्वीर: Nabeel al-Awzari/REUTERS
संघर्ष रोकने की अपील
संस्था ने सरकारों से हिंसक संघर्षों को रोकने का आग्रह किया है. संस्था ने सरकारों से संघर्षों को विनाशकारी भूख पैदा करने से रोकने की अपील की है. उसने कहा है कि सरकारें यह सुनिश्चित करें कि जरूरतमंदों तक राहत एजेंसियां पहुंच सकें और दान देने वाले देशों से कहा है कि वह यूएन के प्रयासों को तुरंत निधि दें.