सुदूर अंतरिक्ष में एक ग्रह पर ऐसे तत्व मिले हैं जो सिर्फ जीवन होने पर पैदा होते हैं. क्या वहां जीवन है?
एग्जोप्लेनेट के2-बी18 पर जीवन के संकेततस्वीर: ESA/Hubble/ZUMA Press/IMAGO
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अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने कहा है कि उसे एक एग्जोप्लैनेट यानी बाह्यग्रह पर जीवन के संकेत मिले हैं. के2-18बी नाम के इस ग्रह पर हाइड्रोजन से भरपूर वातावरण और सागर होने का पता चला है.
अभी वैज्ञानिक ऐसा नहीं कह रहे हैं लेकिन वे नयी खोज से बेहद उत्साहित हैं क्योंकि जो उन्हें मिला है, वह जीवन होने का बड़ा संकेत है. धरती से 8.6 गुना बड़े के2-18बी ग्रह पर हाइड्रोजन से भरपूर वातावरण और समुद्र होने के संकेत मिले हैं. साथ ही उन्हें डीएमएस नाम का एक तत्व मिला है जो कम से कम धरती पर जीवन के होने के कारण ही पाया जाता है.
उत्साहजनक वातावरण
नासा ने सोमवार को इस खोज की जानकारी देते हुए बताया कि कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन से भरपूर मॉलीक्यूल का होना उत्सुकता जगाता है क्योंकि कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि ये "जीवन की खोज के लिए बहुत उत्साहजनक वातावरण" हैं.
केंब्रिज यूनिवर्सिटी में खगोलविद और शोधकर्ता निक्कू मधुसूदन कहते हैं, "हमारी खोज बताती है कि अन्य जगहों पर जीवन खोजने के लिए जीवन लायक विविध वातावरण को ध्यान में रखना जरूरी है.”
वॉयजर मिशन: ब्रह्मांड का अनोखा मुसाफिर
नासा ने वॉयजर 2 अंतरिक्षयान से संपर्क फिर से बहाल कर लिया है. इससे दोबारा डेटा भी मिलने लगा है. 1977 में वॉयजर अंतरिक्ष यात्रा पर रवाना हुआ था. इसकी पृथ्वी पर कभी वापसी नहीं होगी. जानिए क्यों बहुत खास है वॉयजर मिशन...
तस्वीर: ZUMA/imago images
176 सालों में बनने वाला खास संयोग
1965 में गणनाओं से पता चला कि अगर 1970 के दशक के अंत तक अंतरिक्षयान लॉन्च किया जाए, तो वो आउटर प्लैनेट के चारों विशाल ग्रहों- बृहस्पति, शनि, अरुण और वरुण तक पहुंच सकता है. अंतरिक्षयान को 176 सालों में बनने वाले एक ऐसे अनूठे अलाइनमेंट से मदद मिल सकती है, जिससे वो इन चारों में से हर एक ग्रह के गुरुत्वाकर्षण का इस्तेमाल कर अगले की ओर घूम सकता है. तस्वीर में: 1998 में वॉयजर की ली नेप्च्यून की तस्वीर
तस्वीर: NASA/JPL
जुड़वां यात्री
इसके बाद शुरू हुआ "द मरीनर जूपिटर/सैटर्न 1977" प्रोजेक्ट. मार्च 1977 में मिशन का नाम बदलकर वॉयजर रखा गया. इस मिशन के दो हिस्से हैं, वॉयजर 1 और वॉयजर 2. ये जुड़वां अंतरिक्षयान हैं. योजना के मुताबिक, वॉयजर 2 को वॉयजर 1 के बाद बृहस्पति और शनि ग्रह तक पहुंचना था. इसीलिए पहले रवाना होने के बावजूद इसका क्रम 2 है, 1 नहीं. फोटो में: 14 जनवरी, 1986 को वॉयजर 2 द्वारा ली गई यूरेनस की तस्वीर
तस्वीर: NASA/JPL
1977 में शुरू हुई यात्रा
वॉयजर 2 ने 20 अगस्त, 1977 को फ्लोरिडा के केप केनावरल से सफर शुरू किया. वॉयजर 1 ने भी 5 सितंबर, 1977 को यहीं से यात्रा शुरू की. दुनिया ने अंतरिक्षयान से ली गई पृथ्वी और चांद की जो पहली तस्वीर देखी, उसे 6 सितंबर 1977 को वॉयजर 1 ने ही भेजा था. 40 साल से ज्यादा वक्त से ये दोनों अंतरिक्ष के ऐसे सुदूर हिस्सों की खोजबीन कर रहे हैं, जहां धरती की कोई चीज पहले कभी नहीं पहुंची. फोटो: शनि ग्रह का सिस्टम
तस्वीर: NASA/abaca/picture alliance
बृहस्पति के राज बताए
5 मार्च, 1979 को वॉयजर 1 बृहस्पति के सबसे नजदीक आया. इसी से पता चला कि इस ग्रह पर सक्रिय ज्वालामुखी हैं. यह भी पता चला कि इसका "ग्रेट रेड स्पॉट" असल में एक बड़ा तूफान है और बृहस्पति पर भी बिजली गिरती है. जुलाई 1979 में वॉयजर 2 की भी बृहस्पति से मुलाकात हुई. इसी के मार्फत पहली बार बृहस्पति के छल्लों "रिंग्स ऑफ जूपिटर" की तस्वीर मिली. वॉयजर 2 ने बृहस्पति के चांद "मून यूरोपा" को भी करीब से देखा.
तस्वीर: Science Photo Library/IMAGO
शनि के चंद्रमा
नवंबर 1979 में वॉयजर 1 ने शनि ग्रह के सबसे बड़े चंद्रमा टाइटन को सबसे करीब से देखा. इसी यात्रा में मिले डेटा से पहली बार हमारी पृथ्वी से परे टाइटन पर नाइट्रोजन युक्त वातावरण की जानकारी मिली. इससे यह संभावना मिली कि टाइटन की सतह के नीचे तरल मीथेन और इथेन मौजूद हो सकती है. 1981 में वॉयजर 2 ने भी शनि के कई बर्फीले चंद्रमाओं को देखा.
तस्वीर: NASA/EPA/dpa/picture alliance
सौर मंडल का सबसे ठंडा ग्रह
जनवरी 1986 में वॉयजर 2 के मार्फत इंसानों ने यूरेनस का क्लोज-अप देखा. पहली बार पता लगा कि यहां तापमान माइनस 195 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है. यानी, यूरेनस या अरुण हमारे सौर मंडल का सबसे ठंडा ग्रह है. अगस्त 1989 में वॉयजर 2, नेप्च्यून या वरुण को सबसे पास से देखने वाला पहला अंतरिक्षयान बना. फिर इसने सौर मंडल के बाहर अपनी यात्रा शुरू की. तस्वीर में: वॉयजर 2 की भेजी तस्वीरों से बनाई गई यूरेनस की फोटो
तस्वीर: NASA/JPL/REUTERS
सुदूर अंतरिक्ष का यात्री
17 फरवरी, 1998 को पायनियर 10 को पीछे छोड़कर वॉयजर 1 अंतरिक्ष में सबसे सुदूर पहुंचा मानव निर्मित यान बना. 25 अगस्त, 2012 को वॉयजर 1 इंटरस्टेलर स्पेस में दाखिल हुआ. यह ऐसा करने वाली पहली मानव निर्मित वस्तु थी.
तस्वीर: United Archives/picture alliance
हेलियोस्फीयर के पार
फिर 5 नवंबर, 2018 को वॉयजर 2 हेलियोस्फीयर पार कर इंटरस्टेलर स्पेस में घुसा. हेलियोस्फीयर, सूर्य के सुदूर वातावरण की परत है, जो अंतरिक्ष में एक तरह का सुरक्षात्मक चुंबकीय बुलबुला है. वॉयजर 1 और 2 ने हमारे सौर मंडल के सारे बड़े ग्रहों की खोजबीन की. ये ग्रह हैं: बृहस्पति, शनि, अरुण और वरुण.
गोल्डन रेकॉर्ड: पृथ्वी का पैगाम
दोनों वॉयजर पर एक अद्भुत चीज है; 12 इंच की गोल्ड प्लेटेड कॉपर डिस्क. इसे कहा जाता है, गोल्डन रेकॉर्ड. अगर कभी पृथ्वी से परे जीवन के किसी रूप से इनकी मुलाकात हुई, तो ये गोल्डन रेकॉर्ड उन तक हमारे अस्तित्व का संदेश पहुंचाएंगे. पृथ्वी का जीवन, जीवन की विविधता, हमारी संस्कृति... सबका हाल सुनाएंगे. साथ ही, गोल्डन रेकॉर्ड कैसे बजाया जाए, इसके लिए सांकेतिक निर्देश भी हैं.
तस्वीर: ZUMA/imago images
संगीत और ध्वनियां भी हैं
इस रेकॉर्ड की सामग्रियों को नासा की एक कमिटी ने चुना था, जिसके अध्यक्ष मशहूर अमेरिकी खगोलशास्त्री कार्ल सागन थे. इनमें हमारे सौर मंडल का मानचित्र है. यूरेनियम का एक टुकड़ा है, जो रेडियोएक्टिव घड़ी का काम करता है और अंतरिक्षयान के रवाना होने की तारीख बता सकता है. पृथ्वी पर जीवन का स्वरूप बताने के लिए इनकोडेड तस्वीरें हैं. संगीत और कई ध्वनियां भी हैं. तस्वीर: कार्ल सागन
तस्वीर: IMAGO/UIG
अभी कहां हैं दोनों वॉयजर
वॉयजर एक अनंत यात्रा का राहगीर है, जो ब्रह्मांड में आगे बढ़ता रहेगा. नासा के "आईज ऑन द सोलर सिस्टम" ऐप पर आप दोनों वॉयजर यानों की यात्रा और लोकेशन देख सकते हैं. अभी तो वॉयजर अपने पावर बैंक की मदद से डेटा भेजते हैं, लेकिन 2025 के बाद इसके पावर बैंक धीरे-धीरे कमजोर होते जाएंगे. इसके बाद भी ये मिल्की वे में तैरना-टहलना जारी रखेगा. चुपचाप, शायद अनंत काल तक.
तस्वीर: Canberra Deep Space Com. Complex/NASA/ZUMA/picture alliance
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मीथेन और कार्बन डाई ऑक्साइड की बहुलता और अमोनिया की कम मात्रा इस बात की पुष्टि करती है कि के2-18बी के हाइड्रोजन से भरपूर वातावरण के नीचे महासागर हो सकते हैं. साथ ही जेम्स वेब के भेजे आंकड़े इस बात का भी संकेत देते हैं कि वहां डाईमिथाइल सल्फाइड (डीएमएस) नामक मॉलीक्यूल मौजूद हो सकता है. यह मॉलीक्यूल धरती पर पाया जाता है लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि यह वहीं होता है, जहां जीवन हो. ऐसा इसलिए है क्योंकि डीएमएस वहां पैदा होता है जहां महासागरीय जीवन हो.
अभी कुछ भी पुष्ट नहीं
नासा इस खोज को लेकर सावधान करते हुए कहती है कि के2-18बी का वातावरण ऐसा है जहां जीवन हो सकता है, और वहां कार्बन भरपूर मॉलीक्यूल भी हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वहां जीवन है. इस ग्रह का विशाल आकार बताता है कि वहां उच्च दबाव में बर्फ मौजूद है. यह नेप्चुन जैसा है लेकिन यहां हाइड्रोजन भरपूर है और महासागर की सतह भी है. यह भी संभव है कि महासागर इतना अधिक गर्म हो कि वहां जीवन संभव ही ना हो. या फिर यह द्रव अवस्था में ही ना हो.
यूएई ने लीं मंगल के चांद डेमोस की सबसे करीबी तस्वीरें
लाल ग्रह मंगल के चांद की अब से पहले इतनी साफ और करीबी तस्वीरें कभी नहीं देखी गईं. यूएई के अंतरिक्ष यान अमाल ने ये तस्वीरें भेजी हैं जो 2020 में अंतरिक्ष में छोड़ा गया था.
तस्वीर: UAE Space Agency/AP/picture alliance
करीब से देखिए, मंगल का चांद डेमोस
मंगल ग्रह के चांद को इतनी पास से पहले कभी नहीं देका गया था. पिछले महीने यूएई का अमाल यान मंगल के उपग्रह डेमोस से सिर्फ 10 किलोमीटर दूर था.
तस्वीर: UAE Space Agency/AP/picture alliance
छोटा सा चांद
अमाल, जिसका अर्थ होता है, उम्मीद, डेमोस के दूसरी तरफ भी गया. मंगल के इस चांद का आकार ऊबड़-खाबड़ है. इसका कुल आकार 15X12X12 किलोमीटर ही है.
तस्वीर: UAE Space Agency/AP/picture alliance
फोबोस से दूर
मंगल का अन्य चांद फोबोस आकार में डेमोस से दोगुना बड़ा है. उसके बारे में इंसान को डेमोस से ज्यादा पता है. वह मंगल से सिर्फ 6,000 किलोमीटर की दूरी पर है.
तस्वीर: NASA/UPI/IMAGO
अब डेमोस की बारी
डेमोस की मंगल से दूरी करीब 23 हजार किलोमीटर है. इस मिशन की प्रमुख वैज्ञानिक हेसा अल-मातरूशी कहती हैं कि अब तक फोबोस पर ही ध्यान रहा है, अब डेमोस की बारी है.
तस्वीर: NASA/JPL/USGS
मंगल का टुकड़ा
नयी तस्वीरों का अध्ययन कर वैज्ञानिकों ने कहा है कि यह कोई उल्कापिंड नहीं है, जैसा कि अब तक माना जाता रहा है बल्कि हो सकता है यह मंगल का ही टुकड़ा हो.
तस्वीर: Viking Project/USGS/NASA
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अब वैज्ञानिक के2-18बी के वातावरण पर और अधिक शोध करेंगे. मधुसूदन कहते हैं, "हमारा लक्ष्य तो एक जीवन-लायक वातावरण वाले ग्रह पर जीवन की खोज करना है. यह ब्रह्मांड में हमारी उपस्थिति की समझ को पूरी तरह बदल देगा. हमारी खोज उस लक्ष्य की तरफ एक बड़ा कदम है.”