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क्या कंपनियों के विरोध के बाद टल गया कर्नाटक का स्थानीय कोटा

चारु कार्तिकेय
१८ जुलाई २०२४

कर्नाटक सरकार ने नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए 75 प्रतिशत तक का कोटा लागू करने के एक बिल को हरी झंडी दे दी थी. लेकिन कंपनियों ने और नैसकॉम ने इस बिल की कड़ी आलोचना की है.

अधिकारियों के साथ खड़े कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया
कर्नाटक सरकार को इस बिल के बारे में जानकारी सार्वजनिक करते ही पीछे हटना पड़ातस्वीर: IDREES MOHAMMED/AFP

कर्नाटक मंत्रिमंडल ने 16 जुलाई को इस बिल को मंजूरी दी थी. इसी दिन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर इस बारे में जानकारी भी दी. लेकिन कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु को भारत की 'सिलिकॉन वैली' बनाने वाली कई बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों ने इस प्रस्ताव का स्वागत नहीं किया.

कई जानकारों का मानना है कि कंपनियों के रुख को देखते हुए ही राज्य सरकार ने अपने पांव पीछे किए और सिद्धारमैया ने अपना ट्वीट भी हटा दिया. राज्य सरकार के मंत्रियों ने पत्रकारों से बातचीत में पुष्टि करते हुए कहा है कि बिल को फिलहाल नहीं लाया जाएगा.

क्या कहता है बिल

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, 'द कर्नाटका स्टेट एम्प्लॉयमेंट ऑफ लोकल कैंडिडेट्स इन द इंडस्ट्रीज, फैक्ट्रीज एंड अदर एस्टैब्लिशमेंट्स बिल 2024' का उद्देश्य राज्य में निजी क्षेत्र की नौकरियों में कन्नडिगा लोगों के लिए सीटें आरक्षित करना है.

बेंगलुरु को भारत के सिलिकॉन वैली के नाम से मशहूर बनाने वाली कंपनियां इस बिल से निराश थींतस्वीर: Altaf Qadri/AP Photo/picture alliance

इसके तहत प्रबंधकीय (मैनेजरियल) स्तर की नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण और गैर-प्रबंधकीय (नॉन-मैनेजरियल) नौकरियों में कन्नडिगा लोगों के लिए 75 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है.

क्या निजी कंपनियां स्थानीय लोगों को आरक्षण देंगी?

अगर किसी नौकरी के लिए स्थानीय लोगों में पर्याप्त योग्य उम्मीदवार ना मिलें, तो बिल कहता है कि उस उद्योग को राज्य सरकार के साथ मिलकर तीन सालों के अंदर स्थानीय उम्मीदवारों को प्रशिक्षण देना चाहिए और फिर नौकरी देनी चाहिए. राज्य सरकार इन नियमों को लागू करवाने के लिए एक नोडल एजेंसी भी नियुक्त करेगी.

बिल के मुताबिक, "स्थानीय" उम्मीदवार उसे माना जाएगा जिसका जन्म कर्नाटक में हुआ हो और वह 15 सालों से राज्य में रह रहा हो. इसके अलावा उसे कन्नड़ बोलना, पढ़ना और लिखना आना चाहिए.

उनके पास माध्यमिक स्कूल में कन्नड़ की पढ़ाई करने का सर्टिफिकेट होना भी चाहिए. अगर यह सर्टिफिकेट नहीं हो, तो नोडल एजेंसी एक परीक्षा करवाएगी जिसे पास करना होगा. बिल में इन नियमों के उल्लंघन के लिए 10,000 से लेकर एक लाख रुपये तक जुर्माने का भी प्रावधान है.

कंपनियों की नाराजगी

कई कंपनियों ने इस बिल को लेकर असंतोष और नाराजगी व्यक्त की है. बायोफार्मास्यूटिकल कंपनी बायोकॉन की संस्थापक और अध्यक्ष किरण मजूमदार शॉ ने एक्स पर लिखा कि इस कदम से टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में कर्नाटक के अग्रणी स्थान पर असर पड़ सकता है.

भारत के चुनावों में मुद्दा बन रहा बेरोजगारी

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टेक्नोलॉजी कंपनी इंफोसिस के पूर्व सीएफओ और वेंचर कैपिटलिस्ट टीवी मोहनदास पाई ने बिल की कड़ी आलोचना करते हुए इसे "असंवैधानिक, अनावश्यक, ड्रेकौनियन" और भेदभाव करने वाला बताया.

डिजिटल पेमेंट कंपनी फोनपे के सीईओ समीर निगम ने एक्स पर लिखा कि वह कभी किसी राज्य में 15 साल नहीं रहे, लेकिन क्या इसका मतलब है कि बेंगलुरु में पले-बढ़े उनके बच्चे अपने ही शहर में नौकरी मिलने के योग्य नहीं हैं?

भारत की टेक्नोलॉजी कंपनियों के समूह नैसकॉम ने भी इस बिल का आधिकारिक रूप से विरोध किया. समूह ने एक बयान में कहा कि इस तरह के आरक्षण से टेक्नोलॉजी उद्योग के विकास को नुकसान पहुंचेगा, नौकरियों पर असर पड़ेगा और यह कंपनियों को राज्य छोड़ने पर मजबूर करेगा.

इतने विरोध के बाद राज्य सरकार एक कदम पीछे हट गई. सिद्धारमैया ने अपना ट्वीट हटा दिया. बाद में राज्य के उद्योग मंत्री एमबी पाटिल ने जानकारी दी कि बिल पर और विमर्श किया जाएगा और तब तक इसे वापस ले लिया गया है.

दूसरे राज्य भी कर चुके हैं कोशिश

उन्होंने यह भी कहा कि "उद्योग के नेताओं को घबराने की जरूरत नहीं है." आईटी मंत्री प्रियांक खड़गे ने भी टेक्नोलॉजी उद्योग के नेताओं को आश्वासन दिलाया कि बिल को पारित करने से पहले "और ज्यादा विमर्श" किया जाएगा.

हालांकि कर्नाटक ऐसा बिल लाने वाला पहला राज्य नहीं है. बढ़ती बेरोजगारी को देखते हुए कई राज्य सरकारें स्थानीय लोगों को लुभाने के लिए अपने-अपने राज्य में निजी नौकरियों में स्थानीय कोटा बनाने की कोशिश कर चुकी हैं.

2019 में आंध्र प्रदेश में भी ऐसा ही बिल लाया गया था, जिसे प्रदेश हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. अदालत ने कहा कि यह असंवैधानिक हो सकता है. कानून को अभी तक प्रदेश में लागू नहीं किया गया है. 2020 में हरियाणा सरकार भी ऐसा ही एक कानून लेकर आई. इसे भी हाई कोर्ट में चुनौती दी गई और अदालत ने इसे असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया.

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