मुस्लिम महिलाओं को निशाना बनाने वाले 'बुल्ली बाई' और 'सुल्ली डील्स' जैसे अभियानों के पीछे नफरत की एक पूरी काली दुनिया है. इस दुनिया में हैं कट्टरपंथी विचारों में विश्वास करने वाले और फैलाने वाले पढ़े लिखे युवा.
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'बुल्ली बाई' ऐप की जांच के दौरान मुंबई और दिल्ली पुलिस ने अभी तक जिन चार लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उन्हें सोशल मीडिया पर 'ट्रैड्स' के नाम से जाने जाने वाले समूहों का हिस्सा बताया जा रहा है.
'ट्रैड्स' 'ट्रैडिशनलिस्ट्स' का लघु रूप है. यूं तो 'ट्रैडिशनलिस्ट' का मतलब परंपरावादी होता है, लेकिन सोशल मीडिया पर इस समूह की गतिविधियां किसी परंपरा को संजोए रखने पर नहीं बल्कि हिंदुत्व के सबसे उग्र, चरमपंथी विचारों को फैलाने पर केंद्रित हैं.
संगठित साइबर उत्पीड़न
कई पत्रकार हैं जिन्होंने इन 'ट्रैड्स' पर लंबे समय से नजर रखी हुई है. इन पत्रकारों का कहना है कि सोशल मीडिया पर इस तरह के हजारों खाते हैं. इनमें से कुछ के तो लाखों फॉलोवर हैं. ट्विटर पर इनमें से शायद ही कोई ब्लू टिक वाला सत्यापित खाता होगा लेकिन इनमें से कई खातों की ट्वीटों को कुछ सेलिब्रिटी खाते लाइक और रीट्वीट जरूर करते हैं.
पत्रकार नील माधव करीब पांच साल से इन 'ट्रैड्स' की गतिविधियों पर नजर रख रहे हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि ये साइबर बुलीइंग और उत्पीड़न बहुत संगठित तरीके से करते हैं. नील माधव कहते हैं कि अगर इन्हें ऑनलाइन आपको निशाना बनाना हो तो ये अपने समूहों में बड़ी बारीकी से इसकी योजना बनाएंगे और फिर बड़ी संख्या में आप पर हमला करेंगे.
ये 'ट्रैड्स' मुख्य रूप से दलितों, मुस्लिमों, ईसाईयों और सिखों के खिलाफ ना सिर्फ विचारों बल्कि सक्रिय रूप से हिंसा को बढ़ावा देते हैं. ये खुद भी हत्या, बलात्कार और हर तरह की हिंसा करने की खुलेआम धमकी देते हैं.
ये इतने चरमपंथी विचारों के होते हैं कि कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के खिलाफ नफरत व्यक्त करने के अलावा ये कई बार बीजेपी पर भी दलितों और मुस्लिमों की तरफ 'नरम' होने का आरोप लगाते हैं और आलोचना करते हैं. इस मोर्चे पर ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी नहीं बख्शते हैं.
आपराधिक गतिविधियां
नील माधव और इन पर नजर रखने वाले कुछ और पत्रकारों का मानना है कि जाति को लेकर इनके विचार सिर्फ दलित-विरोधी होने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि ये ब्राह्मणों की एक तरह की नस्ली श्रेष्ठता में विश्वास रखते हैं.
'ट्रैड्स' ना सिर्फ ट्विटर बल्कि फेसबुक, टेलीग्राम और रेडिट जैसे मंचों पर भी सक्रिय हैं, जहां ये ना सिर्फ नफरत भरी बातें करते हैं बल्कि ऐसी भाषा और ग्राफिक का प्रयोग करते हैं जो भद्दी और आपराधिक होती हैं.
ये इनसे अलग विचारों वाले लोगों को अक्सर सोशल मीडिया पर निशाना बनाते हैं. वेबसाइट न्यूजलॉन्ड्री के लिए काम करने वाले पत्रकार प्रतीक गोयल बताते हैं कि 2020 में ट्विटर पर @TIinexile नाम के एक खाते और उसको फॉलो करने वालों ने बेंगलुरु की वरिष्ठ पुलिस अधिकारी डी रूपा को निशाना बनाया था.
पुलिस की कार्रवाई के बाद इस खाते को ट्विटर ने सस्पेंड कर दिया लेकिन उसके बाद इसी यूजर ने @BharadwajSpeaks के नाम से एक और खाता बना लिया. कुछ ही घंटों में इस खाते को एक लाख से ज्यादा फॉलोवर भी मिल गए. इसी खाते ने बाद में पूर्व राज्यपाल स्वराज कौशल को भी ट्विटर पर निशाना बनाया.
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सिर्फ ऑनलाइन नेटवर्क नहीं
नील माधव ने यह भी बताया कि 'ट्रैड्स' भले ही सोशल मीडिया पर अपनी पहचान गुप्त रखते हों, लेकिन ये एक दूसरे को अच्छी तरह से चेहरों से और नामों से जानते हैं. प्रतीक का भी कहना है कि बेनाम खातों के पीछे कौन व्यक्ति है ये लोग अच्छी तरह से जानते हैं और नियमित रूप से एक दूसरे से संपर्क में रहते हैं.
इसका मतलब 'ट्रैड्स' सिर्फ एक ऑनलाइन नेटवर्क नहीं हैं, बल्कि एक ऑफलाइन नेटवर्क भी है. अब सवाल यह बनता है कि सोशल मीडिया पर इस तरह की आपराधिक गतिविधियां इस तरह खुलेआम हो कैसे रही हैं? पुलिस और दूसरी कानूनी एजेंसियां इनके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं करतीं?
प्रतीक गोयल ने डीडब्ल्यू को बताया कि 'बुल्ली बाई' मामले में गिरफ्तार किए गए नीरज बिश्नोई और कुछ और लोगों के खिलाफ कुछ लोगों ने पुणे पुलिस और गुजरात पुलिस को शिकायत की थी, लेकिन दोनों स्थानों की पुलिस ने शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं की.
प्रतीक गोयल बताते हैं कि 'ट्रैड्स' खातों को कई बार ट्विटर को रिपोर्ट किया जा चुका है. ज्यादा शिकायतें मिलने पर ट्विटर इन खातों को सस्पेंड कर देता है, लेकिन ये नए नामों से फिर वापस आ जाते हैं.
इस सब बातों की रोशनी में 'ट्रैड्स' को लेकर कई तरह के सवाल उठते हैं जिनके जवाब शायद पुलिस जांच के बिना ना मिल पाएं. मसलन क्या वाकई इनका एक संगठित नेटवर्क है? क्या इस नेटवर्क का कोई सरगना है? अगर है तो कौन है? 'बुल्ली बाई' मामले में पहली बार ऐसे लोग पुलिस के गिरफ्त में आए हैं. देखना होगा कि जांच कहां तक जाती है.
फेसबुक को फोन नंबर देने से पहले हजार बार सोचिए
अपने ऑनलाइन एकाउंट की सुरक्षा के लिए यूजर पासवर्ड के अलावा टू फैक्टर ऑथेन्टिकेशन प्रक्रिया का इस्तेमाल करते हैं. इसमें सिक्युरिटी कोड फोन पर आ जाता है. लेकिन क्या फेसबुक जैसी कंपनी पर भरोसा किया जा सकता है.
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क्या है फीचर
फेसबुक का एक सिक्युरिटी फीचर है "टू फैक्टर ऑथेन्टिकेशन". फीचर का मकसद है यूजर के एकाउंट को हैकर्स से बचाना. इस सिस्टम में यूजर सबसे पहले अपने एकाउंट में लॉग-इन करता है और फिर अपना पासवर्ड डालता है. लेकिन इसके बाद यूजर की पहचान को पुख्ता करने के लिए दूसरे चरण में एक कोड यूजर के स्मार्टफोन पर भेजा जाता है. इसके बाद ही यूजर अपना फेसबुक एकाउंट एक्सेस करता है.
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ये हैं खामियां
फेसबुक के इस सिक्युरिटी फीचर में ढेर सारी खामियां हैं, जिसमें सबसे अहम है कि यह सब एक बाहर की कंपनी के प्लेटफॉर्म पर होता है. एक अमेरिकी स्टडी के मुताबिक जब यूजर अपने मोबाइल नंबर को फेसबुक पर रजिस्टर करता है तो वह अपने नंबर को मार्केटिंग से जुड़ी चीजों के लिए भी इस्तेमाल करने की इजाजत दे देता है.
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मार्केटिंग और बहुत कुछ
मार्केटिंग के अलावा, कंपनियां यूजर्स को फोन नंबर की मदद से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर तलाश भी कर सकती हैं. इसका मतलब है कि अगर आपके पास किसी का मोबाइल नंबर है तो आप उसका प्रोफाइल आसानी से खोज सकते हैं. हैरानी की बात है कि इस फीचर को बंद नहीं किया जा सकता, लेकिन अपने फेसबुक फ्रेंड्स और उनकी फ्रैंड्स लिस्ट के लिए इसे सीमित किया जा सकता है.
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क्या है डर
जर्मनी के हैम्बर्ग में डाटा प्रोटेक्शन कमिश्नर योहानस कास्पर कहते हैं कि फेसबुक लोगों की सिक्योरिटी से जुड़ी चिंता को भुना रहा है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "फेसबुक यूजर्स से बिना पूछे डाटा इस्तेमाल कर रहा है जो यूरोपीय कानूनों का उल्लघंन हैं." वहीं फेसबुक इस पर कुछ और ही तर्क देता है.
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फेसबुक का तर्क
अमेरिकी मीडिया में फेसबुक के हवाले से कहा गया है कि फेसबुक का यह फीचर यूजर को मोबाइल नंबर के जरिए अपने ऐसे दोस्तों को ढूंढने का मौका देता है जो उनके परिचित तो हैं लेकिन फेसबुक पर जुड़े नहीं हैं. फेसबुक का कहना है जो भी इस प्रक्रिया को गलत समझता है वह अपना मोबाइल नंबर नेटवर्क से डिलीट कर दे.
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नया फीचर
इस बहस के बीच एक नया टू फैक्टर ऑथेन्टिकेशन फीचर लॉन्च किया गया है, जिसमें मोबाइल नंबर के बजाय किसी बाहर की कंपनी द्वारा तैयार की गई ऑथेन्टिकेशन ऐप इस्तेमाल की जाती है. ऐप इस्तेमाल को विशेषज्ञ ज्यादा सुरक्षित तरीका मान रहे हैं. वहीं फेसबुक अब भी अपने यूजर्स से टू फैक्टर ऑथेन्टिकेशन के इस्तेमाल के लिए कह रहा है.
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बैंकिंग में इस्तेमाल
कुछ मामलों में विशेषज्ञ टू-फैक्टर प्रक्रिया के इस्तेमाल पर जोर देते रहे हैं. ऐसे फीचर आमतौर पर बैंकिंग में इस्तेमाल किए जाते हैं. लेकिन मोबाइल फोन के जरिए यूजर ऑथेन्टिकेशन को अब सुरक्षित नहीं माना जा रहा है क्योंकि यह फीचर काफी कुछ उस कंपनी पर निर्भर करता है जो इसे ऑपरेट करती है.
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हैकर्स का खतरा
एक खामी और भी है. स्मार्टफोन पर टेकस्ट मैसेज तब भी दिखाई देते हैं जब फोन स्टैंडबाय पर हो, साथ ही फोन पर आया सिक्योरिटी कोड से जुड़ा मैसेज इन्क्रिप्टेड मतलब किसी कोड में नहीं होता. ऐसे में हैकर्स के लिए ऐसे संदेशों को मॉनिटर करना बेहद आसान हो जाता है. ऐसी सब कमियों के चलते अब विशेषज्ञ टू-फैक्टर ऑथेन्टिकेशन के बजाय, ऑथेन्टिकेशन ऐप्स के इस्तेमाल की वकालत कर रहे हैं.
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मोबाइल नंबर से पहचान
विशेषज्ञ अब कहने लगे हैं कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर मोबाइल नंबर देना जोखिम भरा हो सकता है. अब कई कंपनियां यूजर से ईमेल एकाउंट सेट करने के लिए भी फोन नंबर मांगती हैं. जानकार कहते हैं कि मोबाइल नंबर किसी को पहचानने का सबसे बड़ा तरीका है. मोबाइल नंबर के जरिए कंपनियां यूजर की गतिविधियों पर नजर रख सकती हैं इसलिए डाटा पर निर्भर रहने वाली फेसबुक जैसी कंपनियां फोन नंबर पर जोर देती हैं.
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फीचर का विरोध
टेक उद्यमी जेरेमी बर्ज ट्विटर पर फेसबुक के इस फीचर का लंबे समय से विरोध कर रहे हैं. फेसबुक के पूर्व चीफ सिक्योरिटी ऑफिसर एलेक्स स्टामोस भी इस फीचर की आलोचना करते हैं. एलेक्स कहते हैं, "फेसबुक का टू फैक्टर फीचर इसकी विश्वसनीयता को खतरे में डाल रहा है." कुछ विशेषज्ञ तो ये भी मानते हैं कि ये फीचर राजनीतिक ताकतों का विरोध करने वाले ऐसे लोगों के लिए खतरा साबित हो सकते हैं जो गुमनाम रहना चाहते हैं.
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असंवेदनशील होते यूजर
फेसबुक के इस मॉडल के चलते जानकारों को एक और डाटा स्कैंडल का डर सताने लगा है. कास्पर को डर है कि फेसबुक से जुड़े ऐसे खुलासे यूजर्स को असंवेदनशील बना सकते हैं, और इस वजह से हो सकता है फेसबुक डाटा सिक्योरिटी जैसी बातों पर ध्यान न दे और अपने मौजूदा बिजनेस मॉडल पर कायम रहे.
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फेसबुक नहीं सुधरा
पिछले सालों में एलेक्स स्टामोस की तरह फेसबुक के कई बड़े अधिकारियों ने कंपनी को अलविदा कह दिया है. न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक फेसबुक छोड़ कर गए अधिकारी डाटा सिक्योरिटी से जुड़े मुद्दों पर कंपनी के साथ सहमत नहीं थे. यहां तक कि फेसबुक में चीफ सिक्योरिटी ऑफिसर का पद अब तक खाली पड़ा हुआ है. इससे कहीं न कहीं ऐसा लगता है कि डाटा सिक्योरिटी जैसे मुद्दों पर फेसबुक जैसी कंपनी गंभीर नहीं है.