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क्या वाकई कोयले का अंत निकट है?

स्टुअर्ट ब्राउन
३ दिसम्बर २०२१

सस्ती और टिकाऊ अक्षय ऊर्जा के लिए कोयले को हटाया जा रहा है. ऐसे में इस फॉसिल ईंधन का भविष्य धुंधला नजर आता है. लेकिन कोयला वापस अपनी जगह भी बना रहा है क्योंकि महामारी के बाद आर्थिक बहालियों को उससे ऊर्जा मिल रही है.

विशेषज्ञों का मानना है कि कोयला बिजलीघरों के दिन लद चलेतस्वीर: Charlie Riedel/AP/picture alliance

दुनियाभर में ऊर्जा संकट के बीच, वैश्विक कोयला ऊर्जा से उत्सर्जन महामारी पूर्व के दिनों की ऊंचाइयों पर पहुंच गए हैं, खासकर चीन और भारत में. तेल और गैस की बढ़ती कीमतों और सर्दी की आमद के बीच कोविड-पश्चात अर्थव्यवस्थाओं में नई जान फूंकने और उन्हें पटरी पर लाने की कवायद ने कोयले की मांग एक लंबे इंकार के बाद फिर बढ़ा दी है. सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन वाले फॉसिल ईंधन की बहाली को ग्लासगो के उस संशोधित जलवायु समझौते से और बल मिला जिसमें कोयले को 'हटाने' की प्रतिबद्धता के बदले उसे 'कम करने' की बात जोड़ी गई थी.

कॉप26 शुरू होने से पहले सम्मेलन के अध्यक्ष आलोक शर्मा ने उम्मीद जताई थी कि वैश्विक तापमान को डेढ़ डिग्री सेल्सियस के करीब रखने के लिए ये सम्मेलन 'कोयले को इतिहास में डालने में' सफल होगा. ऐसा हो नहीं पाया. उस दौरान कोयला छोड़ने की योजना में आखिरी मिनट के रद्दोबदल पर प्रतिक्रिया देते हुए ऑस्ट्रेलिया के पूर्व संसाधन मंत्री मैट कैनावान ने कहा था कि उससे "और अधिक कोयला उत्पादन के लिए हरी झंडी” मिल गई है. एक टीवी इंटरव्यू में उन्होंने कहा, "भारत, चीन और दक्षिणपूर्वी एशिया के देश, हमारे इलाके के ये सभी देश अपने उद्योगों को विकसित कर रहे हैं और कोयले की उनकी मांग की कमोबेश कोई सीमा नहीं है."

जानकार इस बात को मानते हैं कि ग्लासगो समझौते की कमजोर कर दी गई भाषा की वजह से 2030 या 2040 तक कोयले को हटाने की गति में और शिथिलता आ सकती है. लेकिन कार्बन ट्रैकर नाम के जलवायु थिंक टैंक में शोध की प्रमुख कैथरीना हिलेनब्रांड फॉन डेर नeयन मानती हैं कि कोयले की मांग में मौजूदा तेजी थोड़े समय की बात है.  वह कहती हैं, "मैं उस नजरिए के पूरी तरह खिलाफ हूं कि जो इसे कोयले को मिला नया जीवन बताता है."

कोयले की मांग लंबी नहीं टिकेगी

नेयन को उम्मीद है कि कोविड पूर्व समय में सस्ते अक्षय ऊर्जा स्रोतों की बदौलत कोयले की मांग में आई गिरावट फिर से दिखने लगेगी. ऐसा चीन में भी होगा जिसने 2020 में दुनिया की कोयला-चालित बिजली का आधा हिस्सा अकेले ही फूंक डाला था. वह कहती हैं, "संरचनात्मक रुझान तो तेजी से कम होते लोड का है.” मतलब यह कि अक्षय ऊर्जा स्रोतों से मिल रही टक्कर से कोयला संयंत्र पूरी क्षमता के साथ नहीं चल रहे हैं, और इस वजह से अलाभकारी बन गए हैं. नये कोयला बिजली संयंत्र बनाए तो जा रहे हैं, लेकिन वे ओवरसप्लाई में योगदान दे रहे हैं जिसकी बदौलत समस्या और उग्र ही हो रही है.

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कार्बन ट्रैकर के मुताबिक, नतीजतन दुनिया के कोयला भंडार का 27 प्रतिशत हिस्सा अलाभकारी रह गया है. नायन कहती हैं, "अगर मैं अपने सारे अंडे फिर से कोयले की टोकरी में डाल सकूं तो आप पाएंगे कि वे तेजी से फर्श पर गिर रहे होंगे." बर्लिन स्थित थिंक टैंक क्लाइमेट एनालिटिक्स में शोधकर्ता गौरव गांती इस बात से सहमत हैं, "ये कम अवधि का पुनर्जागरण टिके रहने वाला नहीं हैं क्योंकि कम कीमत वाले अक्षय ऊर्जा स्रोत तेजी से अपनी जगह बनाते जा रहे हैं."

जलवायु परिवर्तन पर काम कर रही संस्था ई3जी के मुताबिक भले ही चीन और भारत अपनी कोविड रिकवरी में कोयले की मदद ले रहे हैं, लेकिन यह सच्चाई है कि नये कोयला संयंत्रों की संख्या में, पेरिस समझौते के बाद से यानी 2015 से 76 फीसदी गिरावट आई है. यह चीन की कुल कोयला क्षमता के बराबर है.

लापरवाही बरतने की गुंजाइश नहीं

2020 में चीन ने 75 फीसदी वैश्विक कोयला निवेश मुहैया कराया है लेकिन एक हद के बाद कोयला परियोजनाओं को फंडिंग खत्म करने का सितंबर में उसने फैसला कर लिया था. इसी तरह 2060 की अपनी नेट जीरो उत्सर्जन योजनाओं के तहत 2025 तक कोयले का खुद का इस्तेमाल अधिकतम करने का भी फैसला चीन कर चुका है. गांती कहते हैं कि ये फैसले इस बात के और पुख्ता संकेत हैं कि कोयला का पतन अवश्यंभावी है. लेकिन वह कहते हैं कि लापरवाही नहीं बरती जा सकती है. भले ही कॉप26 में 47 देशों ने एक बयान के जरिए कोयले का हटाने का वृहद् संकल्प लिया है. इस बयान में कहा गया है, "हमारा काम ये दिखाता है कि पेरिस समझौते के तहत वॉर्मिंग की सीमा डेढ़ डिग्री सेल्सियस रखने के लिए 2030 तक विकसित देशों में और 2040 तक अन्य जगहों से कोयले को हटाना होगा. विकासशील देशों को इस काम में ठोस और पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय मदद की दरकार होगी."

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भले ही ग्लासगो सम्मेलन कोयले के खात्मे पर एक दृढ़ भाषा देने से चूक गया, अपने अपने स्तर पर सभी देश कोयला हटाने की अपनी अपनी डेडलाइन के साथ सामने आए हैं. जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक (एसडीपी), ग्रीन्स और फ्री डेमोक्रेटिक (एफडीपी) दलों की नई गठबंधन सरकार ने कोयले से निजात का 2030 का लक्ष्य रखा है जबकि पूर्व निर्धारित तारीख आज से आठ साल बाद की थी. जर्मनी यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उपभोक्ता और उत्पादक देश है. एटमी ऊर्जा को हटाने के दरमियान भी वो 2010 और 2020 के बीच कोयला ऊर्जा खपत को आधा करने में पहले ही कामयाब हो चुका है. यह सच है कि जर्मनी में भी 2021 मे कोयले की मांग बढ़ गई थी लेकिन इसकी एक वजह यह थी कि पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा के लिए असामान्य रूप से खराब मौसमी स्थितियां आ गई थीं.

कोयला हटाओ मुहिम को वित्तीय मदद

यूरोपीय संघ के अन्य देशों और अमेरिका के साथ मिलकर, जर्मनी दक्षिण अफ्रीका में कोयले के फेजआउट में वित्तीय मदद के रहा है. दक्षिण अफ्रीका कोयले से अपनी 90 फीसदी बिजली हासिल करता है. कोयले से ग्रीन हाउस गैसों का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाला अफ्रीकी देश वही है. जर्मनी के पूर्व पर्यावरण मंत्री का कहना है कि कोयले से साफ ऊर्जा की ओर बदलाव की वित्तीय मदद के लिए ग्लासगो सम्मेलन में आधा अरब डॉलर की धनराशि पर बनी सहमति दूसरे इलाकों के लिए एक संभावित ब्लूप्रिंट का काम करेगी.  

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इस बीच पुर्तगाल ने पिछले दिनों बिजली के लिए कोयला फूंकना पूरी तरह से बंद कर दिया है. यह उसके फेजआउट के निर्धारित समय से दो साल पहले ही हो रहा है. फॉसिल ईंधन के पावरहाउस यूक्रेन ने भी 2035 या अधिकतम 2040 तक कोयले से बिजली उत्पादन खत्म करने का संकल्प लिया है. कॉप26 में यूक्रेन "पावरिंग पास्ट कोल अलायंस" (पीपीसीए) में भी शामिल हो गया था. सरकारों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों और संगठनों का ये गठबंधन द्रुत गति से कोयले से छुटकारा पाने के लिए प्रतिबद्ध है.

फंसी हुई कोयला परिसंपत्तियां

शोधकर्ताओ ने आगाह किया है कि वे सरकारें जो कोयले से चिपकी हैं वे फंसी हुई परिसंपत्तियों में अरबों की धनराशि गंवा सकती हैं और सैकड़ों हजारों रोजगार भी क्योंकि दुनिया गर्मी को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित रखने के लिए कार्बन मुक्त हो रही है. अवरुद्ध परिसंपत्ति वो होती है जिसका एक समय पर तो मूल्य होता है और आय भी होती है लेकिन एक समय के बाद वो वैसी नहीं रह जाती.

जून 2021 की एक रिपोर्ट के मुताबिक यूरोप, उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में एक तिहाई कोयला खदानें 2040 तक अवरुद्ध परिसंपत्तियां बन जाएंगी, अगर देश अपने जलवायु लक्ष्यों को हासिल कर लें. जैसे इन हालात में ऑस्ट्रेलिया को हर साल 25 अरब डॉलर का नुकसान हो सकता है. अगर देशों ने साफ ऊर्जा प्रणालियों का रुख करने में तेजी नहीं दिखाई तो वैश्विक स्तर पर 22 लाख नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं.

लेकिन कोयले से निजात पाने के लिए आर्थिकी ही एकमात्र प्रेरणा या बहाना नहीं हैं. गौरव गांती कहते हैं, "सरकारों के सामने दो रास्ते हैं- कल के जीवाश्म ईंधनों में निवेश कर संपत्तियों के फंस जाने का जोखिम मोल लें या अक्षय ऊर्जा में निवेश कर डेढ़ डिग्री सेल्सियस के रास्ते पर आगे बढ़ें."

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