मानव जीनोमः वैश्विक डीएनए डाटा में विविधता का धमाल
फ्रेड श्वालर | जुल्फिकार अबानी
१२ मई २०२३
मानव जीनोम की पहली सीक्वेंसिंग के बीस साल बाद, वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने नये 'पैनजीनोम' डाटा के जरिए, जेनेटिक्स को लेकर हमारी समझ में डीएनए डाइवर्सिटी यानी विविधता को जोड़ा है.
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ह्युमन जीनोम प्रोजेक्ट (एचजीपी) से जुड़े वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय समूह ने जब 2003 में सबसे पहली बार मानव जीनोम की सिक्वेंस बनाई थी, तो उसमें डीएनए की तीन अरब इकाइयां मौजूद थीं. उसे इंसानी जीवन के ब्लूप्रिंट के तौर पर खूब सराहा गया था.
जीनोम मैपिंग के तौर पर मशहूर ये पद्धति बड़े काम की रही है. इवोल्युश्नरी बायोलजी के क्षेत्र में शायद सबसे उल्लेखनीय काम इसका उस विज्ञान के बारे में बताने का था कि इस धरती पर जीवन का उद्भव कैसे हुआ.
लेकिन बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि होने के बावजूद, उसकी सीमाएं भी थीं. संक्षेप में कहें तो डाटा में डाइवर्सिटी यानी विविधता का अभाव था. मौलिक संदर्भ जीनोम का अधिकांश डाटा सिर्फ एक ही व्यक्ति से आया था, हालांकि उसमें करीब 20 अन्य लोगों का डाटा भी जोड़ा गया था.
हजारों साल पुराने पूर्वजों से मुलाकात
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रिफ्रेंस जीनोम यानी संदर्भ जीनोम, इंसानी जीनोम सिक्वेंस का वो एक निर्धारित प्रतिनिधित्व है जिसका इस्तेमाल, शोधकर्ता अपने अध्ययनों से तैयार डीएनए सिक्वेंसो से तुलना में करते हैं. जैसे कि जब वे बीमारियों के उपचार खोज रहे होते हैं.
ज्यादा विविध तरीकाः मानव पैनजीनोम रिफ्रेंस
यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के स्कूल ऑफ मेडिसिन (यूडब्लू मेडिसिन) के वैज्ञानिक कहते हैं कि उन्होंने एक नया रिफ्रेंस जीनोम तैयार किया है जो ह्युमन जीनोम प्रोजेक्ट की विविधता और साम्यता में सुधार लाएगा.
ह्युमन पैनजीनोम रिफ्रेंस के तौर पर ज्ञात इस पद्धति में उन 47 लोगों का करीब करीब पूरा जीनोमिक डाटा मौजूद है जिनकी वंशावली दुनिया भर की विभिन्न आबादियों में बिखरी हुई है.
सिएटल में यूडब्लू मेडिसिन में जीनोम साइंसेस के प्रोफेसर इवान इशलर कहते हैं, "पेंगेनोम पद्धति मानव की आनुवंशिक विभिन्नता के बारे में गौर करने के एक नये तरीके का प्रतिनिधित्व करती है." इशलर ह्युमन पेंगेनोम रिफ्रेंस कंजोर्टियम में शामिल वरिष्ठ वैज्ञानिकों में से एक हैं. उन्होंने ये बात नेचर पत्रिका में साझा अध्ययन के प्रकाशित होने से पहले कही.
बायोलॉजिकल क्रांति के केंद्र में जीनोमिक चिकित्सा रही है. 2003 से दस लाख लोगों के जीनोमों की सिक्वेंसिग के बाद वैज्ञानकों ने देख लिया है कि कैसे लोगों के बीच आनुवंशिक विभिन्नता, बीमारी के खतरे को प्रभावित करती है.
कैसे पता चला हमारे पूर्वजों के बारे में
इस्राएल में हाल ही में पाए गए मानव अवशेषों से मानव विकास की कहानी में नई परतें जुड़ गई हैं. एक नजर इस तरह की और भी अहम खोजों पर जो हमारे पूर्वजों और उनकी जीवन शैली पर रोशनी डालती हैं.
तस्वीर: Avi Levin/AP/picture alliance
वंश वृक्ष की एक नई शाखा
इस्राएल में खुदाई के दौरान कुछ ऐसे अवशेष मिले हैं जो एक ऐसी मानव प्रजाति के हैं जिसके बारे में आज तक कोई जानकारी नहीं थी. अभी तक यह पता चल पाया है कि यह आदिमानव 1,00,000 सालों से भी ज्यादा पहले हमारी प्रजाति यानी होमो सेपिएंस के साथ साथ ही रहता होगा.
तस्वीर: Ammar Awad/REUTERS
'नेशर रामला होमो'
ये अवशेष इस्राएल के नेशर रामाल्लाह नाम की जगह पर मिले. माना जा रहा है कि ये प्राचीन मानवों के "आखिरी उत्तरजीवियों" में से एक मानव के हैं, जिसका यूरोपीय नियान्डेरथल से करीबी संबंध हो सकता है. यह भी माना जा रहा है कि इनमें से कुछ मानव पूर्व में भारत और चीन की तरफ भी गए होंगे. पूर्वी एशिया में मिले कुछ अवशेषों में इन नए अवशेषों से मिलती जुलती विशेषताएं पाई गई हैं.
नियान्डेरथलों को लोकप्रिय रूप से अक्सर गलत छवि दिखाई गई है. उन्हें अक्सर पीठ पर कूबड़ वाले और हाथों में मुगदर लिए आदिमानवों के रूप में दिखाया जाता है. यह छवि 1908 में मिले एक कंकाल के पुराने और छिछले अध्ययनों पर आधारित है. इस कंकाल की रीढ़ विकृत थी और घुटने मुड़े हुए थे.
तस्वीर: Federico Gambarini/dpa/picture alliance
जितना हम सोचते हैं उससे ज्यादा करीबी
लेकिन 21वीं सदी में पता चला कि नियान्डेरथल आधुनिक मानव के काफी करीब थे. वो उपकरण बनाने के लिए काफी विकसित तरीके इस्तेमाल करते थे, अपने आस पास की चीजों का इस्तेमाल कर आग और ज्यादा तेजी से लगा लिए करते थे, बड़े जानवरों का शिकार करते थे और आधुनिक मानवों के साथ प्रजनन भी करते थे.
तस्वीर: Imago/F. Jason
जिस पूर्वज का नाम बीटल्स की वजह से पड़ा
'लूसी' एक महिला का कंकाल है जिसे पूरी दुनिया में पाए गए सबसे पुरानी मानव पूर्वज प्रजातियों में से माना जाता है. इसकी खोज अफ्रीका के इथियोपिया के हदर में 1974 में जीवाश्मिकी वैज्ञानिक डॉनल्ड सी जोहानसन ने की थी. जिस दिन इसकी खोज हुई उस दिन खोज के जश्न में आयोजित की गई एक पार्टी में बार बार बीटल्स का एक गाना बज रहा था - "लूसी इन द स्काई विद डायमंड्स" और उसी के नाम पर कंकाल का नाम लूसी रख दिया गया.
तस्वीर: Jenny Vaughan/AFP/Getty Images
फ्लो, उर्फ 'द हॉब्बिट'
'फ्लो' की खोज इंडोनेशिया के द्वीप फ्लोरेस में 2004 में हुई थी. होमो फ्लोरेसिएन्सिस प्रजाति की एक आदिम मानव के इन अवशेषों को 12,000 साल पुराना माना जाता है. फ्लो सिर्फ 3.7 फिट लंबी थी, जिसकी वजह से उसका नाम 'लॉर्ड ऑफ द रिंग्स' फिल्मों के एक किरदार के नाम पर 'द हॉब्बिट' रख दिया गया.
तस्वीर: AP/STR/picture alliance
दो पैरों पर चलने का सबूत
1924 में दक्षिण अफ्रीका के ताउन्ग में शरीर रचना विशेषज्ञ रेमंड डार्ट ने एक खदान में पाई गई एक विचित्र सी खोपड़ी का निरीक्षण करने पर पाया कि वो एक तीन साल के आदिमानव की थी, जिसका उन्होंने नाम रखा ऑस्ट्रेलोपिथेकस अफ्रिकानस. ये करीब 28 लाख साल पहले जीवित रहा होगा और इसे मानवों के दो पैरों पर चलने का प्रारंभिक सबूत भी माना जाता है. इससे मानवों के अफ्रीका में विकास होने की अवधारणा को भी बल मिला.
तस्वीर: imago stock&people
डीएनए से मदद
2008 में पुरातत्वविद माइकल शून्कोव को रूस और कजाकिस्तान की सीमा पर अल्ताई पर्वत श्रृंखला के काफी अंदर एक गुफा में एक अज्ञात आदिमानव के अवशेष मिले. आनुवांशिकी विज्ञानियों ने पाया कि इन अवशेषों के माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए का संबंध एक अज्ञात पूर्वज से था. इन्हें उस गुफा के नाम पर डेनिसोवियन्स कहा गया. ये भी अफ्रीका से ही निकले थे, लेकिन शुरुआती नियान्डेरथल और होमो सेपिएंस से अलग.
तस्वीर: Maayan Harel/AP/picture alliance
होमो सेपिएंस के नए रिश्तेदार
2015 में दक्षिण अफ्रीका की राइजिंग स्टार गुफाओं में कम से कम 15 लोगों के 1,500 से भी ज्यादा अवशेष मिले थे, जिनमें होमो नलेडी समूह के शिशुओं से लेकर बुजुर्ग तक शामिल थे. हालांकि विशेषज्ञों के बीच इनकी पहचान को लेकर सहमति नहीं थी: क्या ये प्राचीन मानव थे या प्रारम्भिक होमो इरेक्टस?
प्राचीन मानवों द्वारा बनाई गई कलाकृतियों में भी हमारे अतीत के सुराग होते हैं. कोलंबिया के चिरिबिकेट राष्ट्रीय उद्यान में पाए गए ये गुफा चित्र 22,000 साल से भी ज्यादा पुराने हैं. कुछ दूसरे पुरातत्व-संबंधी सबूतों के साथ ये चित्र इस अवधारणा के ओर इशारा करते हैं कि आज उत्तर और दक्षिणी अमेरिका कहे जाने वाले इलाके में मानवों का 20,000 से 30,000 साल पहले कब्जा था.
तस्वीर: Jorge Mario Álvarez Arango
अभी तक के सबसे प्राचीन गुफा चित्र
2021 में ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया के पुरातत्वविदों को इंडोनेशिया के सुलावेसी में और भी पुराने गुफा चित्र मिले. ये लिखित इतिहास के पहले के इंडोनेशियाई सूअरों की तस्वीरें थीं जो ओकर नाम के एक अकार्बनिक पदार्थ से बनाई गई थीं जिसकी कार्बन-डेटिंग नहीं हो पाती है. तो शोधकर्ताओं ने चित्रों के इर्द-गिर्द चूने के स्तंभों की डेटिंग की और पाया कि सबसे पुराने चित्र को कम से कम 45,500 साल पहले बनाया गया होगा.
तस्वीर: Maxime Aubert/Griffith University/AFP
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यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन (यूके) में मेडिकल जेनेटिक्स के प्रोफेसर डेविट कर्टिस कहते हैं, "बीमार शिशु के समूचे जीनोम सिक्वेंस को तैयार कर, कुछ ही दिनों में उसकी बीमारी के कारणों का पता कर पाना वाकई उल्लेखनीय काम है."
कर्टिस के मुताबिक चिकित्सा अभ्यास में आनुवंशिक प्रौद्योगिकी का रूटीन उपयोग, एचजीपी से हासिल होने वाला सबसे बड़ा लाभ है.
कर्टिस ने डीडब्लू को बताया, "बड़े सिक्वेंसिंग अध्ययनों के पिछले कुछ वर्षों में हमें शिजोफ्रेनिया का पहला जीन मिल गया. आज हमारे पास 10 हैं. अगर ये जीन क्षतिग्रस्त होते हैं तो शिजोफ्रेनिया के खतरे पर इसका बड़ा असर होता है."
और शिजोफ्रेनिया अकेला रोग नहीं है जिसमें जीनों को बीमारियों से जोड़ा गया है. वैज्ञानकों ने कैंसर, हृदय रोग, डायबिटीज जैसी तमाम बीमारियों का कारण बनने वाले म्युटेटड जीन्स भी पाए हैं. अगला बड़ा लाभ नयी थेरेपियां विकसित करने में सक्षम होने से जुड़ा है. इसके लिए लैब में जेनेटिक म्युटेशनों का अध्ययन किया जाता है.
जीन आधारित थेरेपियो में हम पहले ही कुछ कामयाबी देख चुके हैं- कैंसर से लड़ने के लिए प्रतिरोधी कोशिकाओं की रिट्रेनिंग से लेकर सिकल सेल डिजीज के उपचार में क्रिस्पर-कैस9 जीन एडिटिंग औजारों के इस्तेमाल तक.
कर्टिस कहते हैं, "बीमारियों का अध्ययन करने के लिए आनुवंशिकी बहुत मददगार है और जेनेटिक थेरेपी में बहुत बड़ा स्कोप है."
मेडिकल जेनेटिक्स की सीमाएं
लेकिन नये उछाल ने आनुवंशिक चिकित्सा की सीमाएं भी दिखाई हैं. ये बात सही है कि बीमारियों के मामले में जीन्स सिर्फ एक फैक्टर है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाने वाली चुनिंदा बीमारियां एक अकेली जीन में म्युटेशन की वजह से होती हैं.
कितने समान हैं इंसान और चिंपैंजी
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कर्टिस कहते हैं कि शिजोफ्रेनिया के मामले में, रोगग्रस्त सिर्फ एक फीसदी लोगों की उन 10 चिन्हित जीनों में से एक में म्युटेशन होता है. कुल मिलाकर, शिजोफ्रेनिया से जुड़े 250 से ज्यादा आनुवंशिक "रिस्क फैक्टर" हैं. इनकी संख्या और ये तथ्य कि वे बीमारियों में क्या योगदान देते हैं, ये हम नही जानते- दोनों बातें चिकित्सा में एक वास्तविक चुनौती पेश करती हैं.
कर्टिस कहते हैं, "कुछ लोगों में म्युटेशन होता है और उनमें शिजोफ्रेनिया नहीं होता या उनमें पूरी तरह से कोई और ही बीमारी होती है. जेनेटिक म्युटेशन और बीमारी के बीच समूचा संबंध (जीनोम सिक्वेंसिंग के बाद से) और कमजोर हुआ है." इवोल्युश्नरी बायोलजी में जीनोम सिक्वेंसिंग ने सच्चे अर्थों में अभूतपूर्व काम किया है.
यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंगलिया में इवोल्युश्नरी बायोलजिस्ट एंडर्स बर्गश्ट्रोम ने डीडब्लू को बताया, "ह्युमन जीनोम सिक्वेंस की तुलना हम अपने करीबी परिजनों से कर सकते हैं और अपनी नस्ल को एक व्यापक या वृहद्त्तर इवोल्युश्नरी संदर्भ में रख सकते हैं. इसने हमें दिखाया है कि मानव इतिहास किसी भी अनुमान से कहीं ज्यादा डाइनेमिक यानी गतिशील रहा था."
आदि और आधुनिक मानवों के जीनोम सिक्वेंसों का अध्ययन कर रहे वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि हमारे पूर्वजों ने नीएन्दरथल और डेनिसोवान जैसे दूसरे होमिनिन के साथ ब्रीड या संकरित किया था. मध्य यूरोप के निएंदरथल समुदायों की जिंदगियों के बारे में हमारे पास अब जानकारी है, उनकी आबादी के पतन के कारण पता चले हैं,
साथ ही साथ, आधुनिक समय के क्रेटनों में बहुत पहले गुम हो चुके मिनोअन जैसे लोगों की आनुवंशिक विरासत का भी पता लगा.
प्राचीन डीएनए और हमारे भीतर मौजूद पूर्वजों के थोड़े से निशानों का अध्ययन करने से हम समझ पा रहे हैं कि कैसे हमारी नस्ल दुनिया भर में फैली, दूरस्थ स्थानों तक कैसे कृषि जैसी सांस्कृतिक तरक्कियों को पहुंचा पाई, और बीमारियों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर पाई.
क्या है मानव?
आनुवंशिकी के बारे में सबसे बड़े सवालों के जवाब बाकी हैं. एक तो यही है कि सिर्फ करीब एक फीसदी जीनोम कोड प्रोटीनों के बारे में हमें पता है. शेष 99 फीसदी क्या करते हैं हम वाकई नहीं समझ पाते हैं.
फिंगरप्रिंट का सबक: अनोखा है हर इंसान
125 साल पहले अर्जेंटीना के अपराध विज्ञानियों ने कैदियों के फिंगरप्रिंट लिये. तब से अब तक कैसा रहा है पहचान और शिनाख्त की वैज्ञानिक दुनिया का सफर.
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125 साल बाद भी आधुनिक
1891 में अर्जेंटीना के अपराध विज्ञानी खुआन वुसेटिच ने मॉर्डन स्टाइल फिंगरप्रिंट आर्काइव बनाना शुरू किया. तब से फिंगरप्रिंट को अहम सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. इस तस्वीर में चोरी के बाद पुलिस अफसर दरवाजे के हैंडल को साफ कर रहा है, ताकि फिंगरप्रिंट साफ दिखाई पड़ें.
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सहेजना और तुलना करना
मौके से फिंगरप्रिंट जुटाने के लिए एक चिपचिपी फिल्म का इस्तेमाल किया जाता है. अचूक ढंग से फिंगरप्रिंट जुटाने में कई घंटे लग जाते हैं. एक बार फिंगरप्रिंट जुटाने के बाद जांचकर्ता उनकी तुलना रिकॉर्ड में संभाले गए निशानों से करते हैं. इन दिनों तेज रफ्तार कंप्यूटर ये काम बड़ी तेजी से कर देते हैं.
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स्याही की जरूरत नहीं
पहले फिंगरप्रिंट जुटाना बहुत ही मुसीबत भरा काम होता था, स्याही से हाथ भी गंदे हो जाते थे. लेकिन अब स्कैनर ने स्याही की जगह ले ली है. स्कैन करती ही डाटा सीधे बायोमैट्रिक डाटा बैंक को भेज दिया जाता है.
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क्यों खास है फिंगरप्रिंट
कंप्यूटर अंगुली की बारीक लाइनों और उनके पीछे के उभार को पहचान लेता है. अंगुली के केंद्र से अलग अलग लाइनों की मिलीमीटर के बराबर छोटी दूरी, उनकी घुमावट, उनकी टूटन सब दर्ज हो जाती है. दो लोगों के फिंगरप्रिंट कभी एक जैसे नहीं हो सकते, भले ही वे हूबहू दिखने वाले जुड़वा क्यों न हों.
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कहां कहां इस्तेमाल
नाइजीरिया में चुनावों में धांधली रोकने के लिए अधिकारियों ने फिंगरप्रिंट स्कैनर का इस्तेमाल किया. यही वजह है कि सिर्फ रजिस्टर्ड वोटर ही वोट डाल पाए वो भी सिर्फ एक बार.
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कौन कहां से कब आया
शरणार्थी संकट का सामना करते यूरोप में भी अधिकारी फिंगरप्रिंट का सहारा ले रहे हैं. यूरोपीय संघ के जिस भी देश में शरणार्थी पहली बार पहुंचेगा, उसका फिंगरप्रिंट वहीं लिया जाएगा. फिंगरप्रिंट लेने के लिए स्थानीय पुलिसकर्मियों को ट्रेनिंग दी गई है, उन्हें स्कैनर भी दिये गए हैं.
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ये मेरा डाटा है
अब कई स्मार्टफोन फिंगरप्रिंट डिटेक्शन के साथ आ रहे हैं. आईफोन और सैमसंग में टच आईडी है. फोन को सिर्फ मालिक ही खोल सकता है, वो भी अपनी अंगुली रखकर. अगर फोन खो जाए या चोरी भी हो जाए तो दूसरे शख्स को फोन का डाटा नहीं मिल सकता.
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ATM बैंकिंग
स्कॉटलैंड के डुंडी शहर में ऑटोमैटिक टेलर मशीन (एटीएम). इस मशीन से सिर्फ असली ग्राहक पैसा निकाल सकते हैं. फिंगरप्रिंट के जरिये मशीन कस्टमर की बायोमैट्रिक पहचान करती है. यह मशीन फर्जीवाड़े की संभावना को नामुमकिन कर देती है.
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पासपोर्ट की सेफ्टी
जर्मनी समेत कई देशों ने 2005 से पासपोर्ट में डिजिटल फिंगरप्रिंट डाल दिया. पासपोर्ट में एक RFID (रेडियो फ्रीक्वेंसी कंट्रोल्ड आईडी) चिप होती है. चिप के भीतर बायोमैट्रिक फोटो होती है, यह भी फिंगरप्रिंट की तरह अनोखी होती है.
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चेहरे की बनावट से पहचान
फेशियल रिकॉगनिशन सॉफ्टवेयर भी पहचान को बायोमैट्रिक डाटा में बदलता है. कंप्यूटर और उससे जुड़े कैमरे की मदद से संदिग्ध को भीड़ में भी पहचाना जा सकता है. इंटरनेट और कंप्यूटर कंपनियां भी अब फेशियल रिकॉगनिशन सॉफ्टवेयर का काफी इस्तेमाल कर रही हैं.
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जेनेटिक फिंगरप्रिंट के जनक
एलेक जेफ्रीज ने 1984 में किसी संयोग की तरह डीएनए फिंगरप्रिंटिंग की खोज की. उन्होंने जाना कि हर इंसान के डीएनए का पैटर्न भी बिल्कुल अलग होता है. डीएनए फिंगरप्रिंटिंग की उन्होंने एक तस्वीर तैयार की जो बारकोड की तरह दिखती है.
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हर इंसान के लिये बारकोड
जर्मनी की फेडरल क्रिमिनल पुलिस ने 1998 से अपराधियों का डीएनए फिंगरप्रिंट बनाना शुरू किया. जेनेटिक फिंगरप्रिंट की मदद से जांचकर्ता अब तक 18,000 से ज्यादा केस सुलझा चुके हैं.
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निर्दोष की मदद
परिस्थितिजन्य सबूतों या वैज्ञानिक सबूतों के अभाव में कई बार निर्दोष लोग भी फंस जाते हैं. घटनास्थल की अच्छी जांच और बायोमैट्रिक पहचान की मदद से निर्दोष लोग झेमेले से बचते हैं. किर्क ब्लड्सवर्थ के सामने नौ साल तक मौत की सजा खड़ी रही. अमेरिका में डीएनए सबूतों की मदद से 100 से ज्यादा बेकसूर लोग कैद से बाहर निकले.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
पीड़ित परिवारों को भी राहत
डीएनए फिंगरप्रिंटिंग का पहली बार बड़े पैमाने पर इस्तेमाल स्रेब्रेनित्सा नरसंहार के मामले में हुआ. सामूहिक कब्रों से शव निकाले गए और डीएनए तकनीक की मदद से उनकी पहचान की गई. डीएनए फिंगरप्रिंट को परिजनों से मिलाया गया. पांच साल की एमा हसानोविच को तब जाकर पता चला कि कब्र में उनके अंकल भी थे. 6,000 मृतकों की पहचान ऐसे ही की गई.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Emric
फोन और कंप्यूटर में बायोमैट्रिक डाटा
बायोमैट्रिक डाटा के मामले में काफी काम हो रहा है. वैज्ञानिक अब आवाज के पैटर्न को भी बायोमैट्रिक डाटा में बदलने लगे हैं. वॉयस रिकॉगनिशन सॉफ्टवेयर की मदद से धमकी देने वालों को पहचाना जा सकता है. फिंगरप्रिंट की ही तरह हर इंसान के बोलने के तरीका भी अलग होता है. मुंह से निकलती आवाज कई तरंगों का मिश्रण होती है और इन्हीं तरंगों में जानकारी छुपी होती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Warmuth (
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बर्गश्ट्रोम के मुताबिक जो सबसे बड़ा सवाल आनुवंशिकी हल कर सकती है वो ये है कि हमें क्या चीज मानव बनाती है. उन्होंने कहा, "पिछले 20 साल के दौरान जो तमाम प्रगति आनुवंशिकी के क्षेत्र में हुई है वो मानवों के बारे में विभेदों की व्याख्या तक सीमित रही है लेकिन ये हमें, हमारी सार्वभौमिकता के बारे में यानी हम सबमें यूनिवर्सल चीज क्या है, नहीं बताती है."
जीनोम सिक्वेंसिंग ने हमारे खुद को देखने के नजरिए को बदला है, लेकिन ज्यादातर, इंडिविजुअलिज्म यानी व्यक्तिवाद के विचार को वैज्ञानिक आधार देते हुए ही, ऐसा किया है.
माना ये जाता है कि हर किसी का जेनेटिक कोड अलग है (यहां तक कि हमशक्ल जुड़वां का भी ठीक एक जैसा कोड नहीं होता), तो लोगों के बीच तमाम छोटी छोटी आनुवंशिक विभिन्नताओं की शिनाख्त कर हम देख सकते हैं कि हममें से हर एक व्यक्ति को कौनसी चीज अलग बनाती है.
ये अक्सर लाभकारी या उपयोगी होती है. जीनोम सिक्वेंसिंग ने जैसे दिखाया है कि "नस्ल" एक सोशल कंस्ट्रक्ट यानी सामाजिक संरचना है जिसका मूल आनुवंशिकी में नहीं है (उन लोगों के बीच जितनी आनुवंशिक विभिन्न्ता है उससे ज्यादा नस्ली समूहों में है).
लेकिन हमेशा विभेदों या अंतरों की ओर देखते हुए हम ये भूल जाते हैं कि कौन सी चीज हमें, उसी धरती पर वानर जैसे 8 अरब व्यक्तिगत प्राणियों की बजाय सामूहिक रूप से मानव बनाती है.
जंगलों में ट्रैकिंग के लिए डीएनए का इस्तेमाल
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जैसे चिंपाजी हैं- हम जानते हैं कि उनके साथ हमारी 96 फीसदी आनुवंशिक समानता है. लेकिन हम वास्तव में ये नहीं समझते हैं कि आखिर 4 प्रतिशत अंतर, कैसे अपने जूं पालने वाले परिजनों की अपेक्षा हमें ज्यादा "मानव" बना देता है. बर्गश्ट्रोम कहते हैं, "ये बुनियादी प्रश्न है. कौनसी चीज हमें प्रजाति के तौर पर मानव और खास बनाती है?"
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बढ़ती जीनोम विविधता
पिछले 20 साल में हुई प्रगति में नाकामियां भी कम नहीं थी. अभी तक दस लाख से ज्यादा जीनोमों की सिक्वेंसिग की जा चुकी है लेकिन जेनेटिक अध्ययनों में 95.2 फीसद डाटा यूरोपियाई जीनोमों से आता है.
बर्गश्ट्रोम कहते हैं, "मनुष्यों के बीच विविधता का ये कतई प्रतिनिधित्व नहीं करती थी. अगर हमारा विज्ञान एक खास किस्म की वंशावली वाले लोगों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित है, उस स्थिति में हम अलग अलग लोगों को समान गुणवत्ता या विशेषता वाली व्यक्तिगत चिकित्सा देने में समर्थ नहीं होंगे."
बदलाव आ रहा है यानी चीजें बदल रही हैं. नाइजीरिया के 100के जीनोम प्रोजेक्ट का लक्ष्य, देश में एक लाख जीनोमों की सिक्वेंसिंग का है. इसी तरह की कोशिशें अफ्रीका, और एशिया और दक्षिण अमेरिका में कई जगहों पर जारी हैं. उम्मीद यही है कि दुनिया भर में ज्यादा रूटीन और ज्यादा सस्ती जीनोम सिक्वेंसिंग प्रौद्योगिकियां, तमाम मनुष्यता को लाभ पहुंचाएगी.
मिलिए भारत के एक अफ्रीकी कबीले से
सिद्दी कबीले से संबंध रखने वाले करीब 25,000 लोग भारत में पश्चिमी घाट के जंगलों में रहते हैं. इनके पूर्वज पूर्वी अफ्रीका के बंतू समुदाय से थे और गुलाम बनाकर वहां से भारत लाए गए थे. देखिए आज कैसा है उनका जीवन.
तस्वीर: Saurabh Narang
अनोखा नृत्य-संगीत
सिद्दी समुदाय के लोगों के लिए उनका संगीत और नृत्य उनकी सांस्कृतिक पहचान का अहम हिस्सा है. कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के एक गांव मैनाली के निवासी मैनुएल किसान हैं. अपने खाली वक्त में स्थानीय बच्चों को मुफ्त में डांस सिखाते हैं ताकि सिद्दी संस्कृति के इस हिस्से को अगली पीढ़ी तक पहुंचाया जा सके.
तस्वीर: Saurabh Narang
हाथ से बने वाद्ययंत्र
तस्वीर में दिख रहे सिद्दी समुदाय के बेस्टेउंग यहां एक स्थानीय बच्चे को दम्माम बजाना सीखा रहे हैं. यह लकड़ी और हिरन की खाल से बना एक ड्रम जैसा वाद्ययंत्र होता है जिसे अकसर पुरुष बजाते हैं. इसकी ताल पर समुदाय की महिलाएं थिरकती हैं.
तस्वीर: Saurabh Narang
'धमाल' की तैयारी
तेरह साल की चंद्रिका धमाल के लिए तैयार हो रही है. यह एक पारंपरिक सिद्दी नृत्य है जिसमें भावों के माध्यम से कबीले के लोगों के जीवन की कहानियां कही जाती हैं. मैनाली गांव की चंद्रिका को स्कूल जाना उतना ही पसंद है जितना धमाल की प्रैक्टिस करना.
तस्वीर: Saurabh Narang
राजाओं की भी पसंद
डेविड भी यहां धमाल की तैयारी में हैं. इस ट्राइबल डांस की शुरुआत तब हुई मानी जाती है जब शिकार में सफलता मिलने के बाद लोग वापस कबीले में लौटते थे. इसकी खुशी मनाने के लिए धमाल नृत्य किया जाता था. भारत में यह पहले के राजाओं के मनोरंजन का साधन भी रहा है.
तस्वीर: Saurabh Narang
खाली वक्त का मजा
सिद्दी लड़कियों एक समूह में यहां अपने गांव मैनाली के एक पुराने पेड़ पर खेलती नजर आ रही हैं. पेड़ की शाखाओं का छूला सा बना कर झूल जाना और ऐसे ही आम बिना साधन वाले खेल ही इनके लिए उपलब्ध हैं.
तस्वीर: Saurabh Narang
स्कूल में तंग किया जाना
येल्लापुर के स्कूल में पढ़ने वाले एक छोटे से सिद्दी बच्चे ने बताया कि इसी फिल्म के सेट पर काम करते हुए उसके स्कूल के बच्चों ने उसे कैसे तंग किया था. उसने बताया कि आमतौर पर बाकी बच्चे सिद्दी बच्चों से बात भी नहीं करते और उनसे इतना भेदभाव करते हैं कि कई सिद्दी बच्चे स्कूल ही छोड़ देते हैं.
तस्वीर: Saurabh Narang
जमीन हथियाने की कोशिश
75 साल की विधवा महिला महादेवी बताती हैं कि कर्नाटक के मागोड गांव में अपनी ही जमीन वापस पाने के लिए कई सालों से कोर्ट में केस लड़ रही हैं. 1996 में उनके पति की मौत के बाद उनकी पांच एकड़ जमीन को स्थानीय फॉरेस्ट ऑफिसर ने धोखे से हड़प लिया था.
तस्वीर: Saurabh Narang
खाली वक्त का मजा
सिद्दी लड़कियों एक समूह में यहां अपने गांव मैनाली के एक पुराने पेड़ पर खेलती नजर आ रही हैं. पेड़ की शाखाओं का छूला सा बना कर झूल जाना और ऐसे ही आम बिना साधन वाले खेल ही इनके लिए उपलब्ध हैं.
तस्वीर: Saurabh Narang
इनके हीरो हैं नेल्सन मंडेला
दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति और रंगभेद के खिलाफ आंदोलन करने वाले मंडेला की एक फ्रेम की हुई तस्वीर इन लोगों के घरों में भी मिल जाएगी. आखिर कर्नाटक के इस कबीले का संबंध अफ्रीका से जो जुड़ा है.