शतरंज का खेल भारत से दुनिया भर में फैला. इस दौरान उसमें कई बदलाव भी हुए. लेकिन कैसे? अब बेहद सटीक ढंग से इसका पता चला है.
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वैसे तो पौराणिक चीन और मिस्र में भी शतरंज से मिलते जुलते कुछ खेल खेले जाते थे. उनमें भी शतरंज की तरह अलग अलग रंगों वाले घर होते थे. लेकिन चालें अलग थीं और मोहरे भी कम होते थे. 64 खानों और कुल 32 मोहरों वाला शतरंज तब सिर्फ भारत में खेला जाता था. विशेषज्ञों के मुताबिक छठी शताब्दी में शतरंज का खेल भारत से ईरान पहुंचा. तब खेल को चतुरंगा कहा जाता था. बाद में ईरान पर अरबों ने हमला किया. ईरान को कब्जे में लेने वाले अरब भी शतरंज के मुरीद बन गये. पहली बार शतरंज की बारीकी समझाने वाली किताब अरबी में लिखी गई. साथ ही बगदाद के खलीफ ने शतरंज प्रतियोगिताएं भी कराईं.
इसके बाद जैसे जैसे दुनिया पर अरब का प्रभाव बढ़ता गया और वैसे वैसे शतरंज का खेल भी नए नए इलाकों में पहुंचता गया. खेल उत्तरी अफ्रीका और भूमध्यसागर के इलाके तक पहुंचा. मौजूद दौर में दक्षिणी स्पेन के आन्दालुसिया में इस्लामिक संस्कृति का विश्वविद्यालय खुला. शतरंज उसके सिलेबस का हिस्सा बना.
10वीं शताब्दी के अंत में चेस ईसाई बहुल वाले पश्चिम में पहुंचा. इससे कुछ समय पहले खेल चीन और जापान तक भी पहुंच गया. कारोबार के जरिये 11वीं शताब्दी में खेल पश्चिम यूरोप से उत्तरी ध्रुवों के करीबी देशों (स्कैंडिनेविया) और रूस पहुंचा. इसके बाद खेल में कई बदलाव भी आए. यही वजह है कि आज भारतीय शतरंज और इंटरनेशनल चेस की कुछ चालें अलग अलग हैं, जैसे पैदल की पहली चाल, राजा व हाथी की कैसलिंग आदि. 12वीं शताब्दी की किताबों में इसका जिक्र मिलता है. 1315 में इटली के डोमिनिक जैकेस दे केसोलेस ने बाकायदा "द मोरेलाइज्ड गेम ऑफ चेस" नाम की किताब लिखी. मध्यकाल के अंत और पुर्नजागरण काल की शुरुआत के दौरान नया शतरंज सामने आया. वजीर सबसे ताकतवर मोहरा बन गया.
17वीं शताब्दी के बाद से शतरंज के खेल में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है. थोड़ा बहुत अंतर बस गोटियों की बनावट में किया गया ताकि वे सुंदर और स्पष्ट रूप से एक दूसरे से अलग दिख सकें. शतरंज का चस्का लगने के बाद 19वीं शताब्दी में पश्चिम में शतरंज की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाने लगीं. खेल की बढ़ती लोकप्रियता को देख 1929 में वेनिस में पहली बार खेल की इंटरनेशनल रेगुलेशन गवर्निंग बॉडी बनाई गई. इसी दौरान वर्ल्ड चेस फेडरेशन का भी जन्म हुआ.
(देखिये दिमाग तेज करने वाले 10 खेल)
10 खेल जो करते हैं दिमाग तेज
आप जानते ही हैं शतरंज 'दिमाग वालों' का खेल है. चलिए ऐसे ही और दस खेलों के बारे में जानें जो करते हैं दिमाग को दुरूस्त.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Warnecke
शतरंज: खेलों का बादशाह
तीसरी से लेकर छठी शताब्दी के बीच हिंदुस्तान में विकसित हुए इस खेल को नवाबों का खेल माना जाता रहा है. शतरंज की बिसात काले और सफेद 64 छोटे छोटे वर्गों में बिछती है. 16-16 मोहरों के साथ इस खेल को दो लोग आपस में खेलते हैं. हर एक का मकसद होता है दूसरे के बादशाह को 'शह और मात' देना. मतलब मोहरों का ऐसा जाल बिछाना कि बादशाह कहीं हिल ही न सके.
तस्वीर: MEHR
गो: एशियाई खेल
'गो' नाम का खेल चीन की पैदाइश है. लेकिन ये अधिकतर विकसित हुआ कोरिया और जापान में. इसे काले और सफेद पत्थरों के साथ एक तख्ती में खेला जाता है जिसमें 19-19 खड़ी और तिरछी रेखाएं बिछी रहती हैं. जहां ये रेखाएं एक दूसरे को काटती हैं पत्थर वहीं रखे जाते हैं. मकसद होता है अधिकतर तख्ती में अपने रंग के पत्थरों से कब्जा करना.
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शोगी : जापानी शतरंज
ये शतरंज की ही तरह का एक जापानी खेल है जिसे नौ हिस्सों में बटी एक तख्ती में खेला जाता है. कुछ लोग इसे बड़ी तख्ती में खेलते हैं और कुछ छोटी में. शोगी और शतरंज में एक खास अंतर है. शोगी में शतरंज की तरह मोहरों का बटवारा नहीं किया गया है, दोनों ही खिलाड़ी किसी भी मोहरे का इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन दोनों ही खेलों में मकसद एक ही है 'शह और मात'.
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चेकर्स : कूदो और कब्जा करो
चेकर्स का बोर्ड भी शतरंज की ही तरह होता है लेकिन नियमों में भारी अंतर है. यहां खिलाड़ी अपने मोहरों को केवल काले खानों में तिरछे ही बढ़ा सकते हैं. और बार में सिर्फ एक खाना. सामने विरोधी का मोहरा आ जाए तो कूद कर उस पर कब्जा करना होता है. जीतता वो है जो सबसे पहले विरोधी के सारे मोहरों पर कब्जा कर लेता है. चेकर्स को जर्मन में 'डेम' भी कहा जाता है जिसका मतलब है 'महिला'.
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नाइन मेन्स मॉरिस : 'मिल' का खेल
इसके बोर्ड में एक दूसरे में पिरोए हुए घटते आकार के तीन वर्ग बने होते हैं. खेल में दो खिलाड़ी हिस्सा लेते हैं हर एक के पास नौ गोटियां होती हैं. इसमें तीन गोटियों को एक पंक्ति में लगाना होता है. इसे 'मिल' कहते हैं, इससे आप अपने विरोधी की गोटी हटा सकते हैं. जीतता वह है जो ऐसा करते हुए विरोधी के पास बस दो गोटियां बचने दे और अपनी तीन 'मिल' बना ले.
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टिक टैक टो : गोल या चौकोर?
ये सबसे आसान खेल है. क्योंकि आपको बस एक पेंसिल चाहिए और एक कागज का टुकड़ा. टिक टैक टो की शुरूआत 12वीं शताब्दी में हुई. इसे दो लोग खेलते हैं. तस्वीर में दिखाए गए तरीके से कागज में दो सीधी और खड़ी रेखाएं खींच लेते हैं. इससे बने 9 खानों में एक खिलाड़ी X बनाता है दूसरा O. जो सपसे पहले सीधे, तिरक्षे या खड़े खानों को भर लेता है जीत उसी की होती है.
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'कनेक्ट फोर' : खड़ा बोर्ड
है तो यह खेल भी बोर्ड गेम ही लेकिन इसमें बोर्ड खड़ा होता है. ''कनेक्ट फोर'' नाम का ये खेल 1974 में बनाया गया. इसमें भी दो ही खिलाड़ी खेलते हैं. जो भी पहले अपने रंग की चार गोटियों को सीधे, आड़े या तिरछे तरीके से कतार में लगा लेता है वो जीत जाता है. ये भी टिक टैक टो की तरह ही है लेकिन इसमें 9 के बजाय 42 खाने होते हैं.
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'सिविलाइजेशन' : बोर्ड से स्क्रीन तक
'सिविलाइजेशन' यानि 'सभ्यता' नाम का ये खेल 1980 में एक बोर्ड गेम के बतौर शुरू हुआ. ये थोड़ा सा जटिल है. इस खेल में सभ्यता को प्राचीन युग की कठिनाइयों को पार करते हुए लौह युग तक पहुंचाना होता है. इस खेल को सात लोग साथ खेल सकते हैं और एक गेम 10 घंटों तक भी खिंच सकता है. इस खेल ने 1991 में एक कंप्यूटर गेम का रूप लिया और दुनियाभर में मशहूर हुआ.
तस्वीर: 2007 Free Software Foundation, Inc.
ऐनो : लोगों और संसाधनों का गेम
ऐनो के लिए काफी कुछ चाहिए. इसकी शुरुआत 1998 में हुई. इस खेल में खिलाड़ी को दूर दराज द्वीप ढूंढ कर उस पर लोगों को बसाना और उनकी जरूरतों को पूरा करना होता है. खिलाड़ी एक दूसरे के साथ व्यापार या एक दूसरे के इलाके पर हमला भी कर सकते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/O. Stratmann
'स्टारक्राफ्ट' : उम्दा टाइम पास
हो सकता है कि किसी को ये अजीब लगे लेकिन दक्षिण कोरिया में यह टाइम पास करने का राष्ट्रीय तरीका है. इसकी शुरूआत 1998 में हुई और ये कंप्यूटर के कुछ सबसे मशहूर गेम्स में रहा है. खिलाड़ी एक बेस बनाते हैं, संसाधन जुटाते हैं और विरोधियों से लड़ने के लिए सैनिकों का इंतजाम करते हैं. इससे जुड़े ऑनलाइन टूर्नामेंट दक्षिण कोरिया में काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं.