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क्या फिर टकराव की तरफ बढ़ रहे हैं उत्तर और दक्षिण कोरिया

राहुल मिश्र
१२ जून २०२०

उत्तर कोरिया ने अचानक दक्षिण कोरिया को दुश्मन कहा और उसके साथ बातचीत के सारे रास्ते फिर से बंद कर दिए. इस फैसले से राजनयिक हल्कों में खासी उथल-पुथल और असमंजस की स्थिति है. सवाल है कि उत्तर कोरिया क्यों कर रहा है ऐसा?

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उत्तर कोरिया पिछले कई दिनों से दक्षिण कोरिया से अपनी नाराजगी जाहिर कर रहा था. विरोध की वजह यह थी कि उत्तर कोरिया से भागे बागी लगातार उत्तर कोरिया में नेताओं की आलोचना करने वाले पर्चे भेज रहे थे. पिछले कई वर्षों से दक्षिण कोरिया में बसे उत्तर कोरियाई बागी सीमापार से बड़े गुब्बारों की मदद से उत्तर कोरियाई सरकार के विरुद्ध उसके मानवाधिकार विरोधी और तानाशाही रवैए के खिलाफ पर्चे भेजते रहे हैं. उत्तर कोरिया इसका विरोध भी करता रहा है. इस बार भी उत्तर कोरिया के विरोध के बावजूद ये गतिविधियां बंद नहीं हुई और परिणामस्वरूप उत्तर कोरिया ने यह कदम उठाया है.

ऐसा नहीं है कि उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच 1970 के दशक से स्थापित हॉट लाइन पहली बार बंद की गयी है. उत्तर कोरिया पहले भी ऐसा कर चुका है, लेकिन 2016 के बाद यह पहली बार हुआ है. उत्तर कोरिया के इस निर्णय के बाद दोनों देशों के बीच संवाद के सभी चैनल बंद हो गए हैं, हालांकि दोनों देशों के बीच हॉट लाइन तो वैसे ही टेस्ट कॉल तक सीमित हो कर रह गई थी. माना जा रहा है कि यह फैसला किम जोंग उन की बहन किम यो जोंग और सत्ताधारी पार्टी के वाइस चेयरमैन किम योंग-चोल ने लिया है. जाहिर है इस निर्णय से किम यो जोंग सत्ता पर अपने प्रभाव को भी दर्शाना चाह रही हैं, जिन्हें हाल ही में पोलितब्यूरो का सदस्य बहाल किया गया है.

उत्तर कोरिया का आक्रामक रवैया

दरअसल इस निर्णय के पीछे कहीं न कहीं उत्तर कोरिया की झल्लाहट भी है. अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प हों या दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून जे-इन, इन दोनों ही नेताओं से हुई बातचीत से उत्तर कोरिया को कोई खास फायदा नहीं हुआ. जहां मून जे-इन और किम जोंग उन के बीच 2018 में तीन शिखर वार्ताएं हुई तो वहीं ट्रम्प और किम भी सिंगापुर और वियतनाम में मिले. पर इन वार्ताओं का वास्तविक परिणाम कुल मिलाकर फीका ही रहा.

2019 में वियतनाम में हुए ट्रंप-किम शिखर सम्मेलन में उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम और अन्य मसलों पर कोई ठोस नतीजा न निकलने के बाद से ही उत्तर कोरिया ने आक्रामक रुख अपना रखा है. आर्थिक मुसीबतों से जूझ रहे इस देश को उम्मीद थी कि बातचीत के रास्ते शायद उसे कुछ आर्थिक रियायतें मिलेंगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नतीजतन उत्तर कोरिया ने अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखा है और उसने हाल के महीनों में कई मिसाइल परीक्षण भी किए हैं.

पिछले दो दशकों में जब भी उत्तर कोरिया पर कोई अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई हुई है तो जवाब में पहला निशाना उसने दक्षिण कोरिया पर ही साधा है. किम प्रशासन को मालूम है कि उसकी कूटनीतिक और सैन्य शक्तियों का सबसे ज्यादा असर दक्षिण कोरिया पर ही होगा. इस बार भी ऐसा ही हो रहा है. दक्षिण कोरिया दबाव में आ गया है और पिछले तीन दिनों में उसके राजनयिकों ने उत्तर कोरिया से फिर से संपर्क साधने की कई नाकाम कोशिशें भी की हैं.

कूटनीति में क्यों रुकती है बातचीत

यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि उत्तर कोरिया जैसे देश संवाद खत्म करने की ओर क्यों बढ़ते हैं? पहली वजह तो यही है कि उन्हें कूटनीतिक संवाद के जरिए अपनी समस्याओं का हल नहीं मिलता दिखता. उन्हें लगता है कि वार्ताओं का दौर राजनीतिक स्तर पर उनके मोल-भाव की क्षमता को न बढ़ा पाने के साथ साथ डेटरेन्स के नजरिए से भी उनकी साख को गिरा रहा है. उन्हें लगता है कि दूसरे देश उन्हें हल्का आंकने लगे हैं, और इसलिए वो वापस आक्रामक रुख अपना लेते हैं. दूसरी वजह होती है इन देशों की अपनी आंतरिक समस्यायें और उठा-पटक.

उत्तर कोरिया इस समय इन दोनों ही मुद्दों से जूझ रहा है. कोविड-19 महामारी ने उत्तर कोरिया को भी प्रभावित किया है, जहां किम जोंग उन के भी बीमार होने की अफवाहें आती रही हैं. उत्तर कोरिया में कोविड-19 से प्रभावित लोगों का कोई विश्वसनीय आंकड़ा तो नहीं है लेकिन यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि चीन से मजबूत व्यापार संबंध और लोगों के आवागमन के मद्देनजर यह आंकड़ा छोटा नहीं है. वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ के  प्रतिबंधों की मार भी अर्थव्यवस्था पर गहरी पड़ी है और उसके सबसे करीबी देश चीन ने भी व्यापार पहले से कम कर दिया है.

आंतरिक अनिश्चितता और वार्ताओं से उपजी निराशा के चलते उत्तर कोरिया ने यह कदम उठाए हैं ताकि दक्षिण कोरिया के साथ-साथ अमेरिका भी उसकी ओर पहले की तरह ध्यान दे. फिलहाल अगर दक्षिण कोरिया और अमेरिका ने कोई बड़ा सकारात्मक कदम नहीं उठाया तो अगले कुछ महीनों तक यह स्थिति बनी रहेगी. देखना यह है कि दक्षिण कोरिया कितनी जल्दी उत्तर कोरिया को आर्थिक मदद का वादा करके मनाने की कोशिश शुरू करेगा.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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