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क्या महिलाएं सच में करती हैं दहेज के कानून का गलत इस्तेमाल?

रीतिका
३० अगस्त २०२५

भारत में दहेज के लालच में निक्की भाटी को कथित रूप से जलाकर मार डाला गया. भारत में दहेज हत्या का यह पहला मामला नहीं है. लेकिन भारत में हाल के कुछ समय में महिलाओं द्वारा दहेज के कानून के गलत इस्तेमाल पर बहस भी तेज हुई है.

Symbolbild Frau in Asien
तस्वीर: Dinodia Photo Library/picture alliance

1914  का कोलकाता, 29 जनवरी की एक दोपहर स्नेहलता मुखोपाध्याय नाम की एक 15-16  साल की लड़की ने खुद को आग के हवाले कर दिया था. उसने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि उनके पिता उसके दहेज के लिए जरूरी पैसा और सामान जोड़ने में हलकान हो रहे थे. आजादी से पहले के भारत में स्नेहलता की आत्महत्या ने दहेज के मुद्दे पर एक चर्चा को तेज किया. हालांकि, भारत में दहेज विरोधी कानून आजादी के करीब दो दशक बाद, 1961 में लागू किया गया था.

कानून लागू होने के बावजूद भारत में दहेज के कारण होने वाली महिलाओं की हत्या और शोषण में सुधार नहीं नजर आया. अक्टूबर, 1978 में दिल्ली के जंगपुरा इलाके में हरदीप कौर को आग की लपटों में घिरा कई लोगों ने देखा. मॉडल टाउन की तरविंदर कौर, मालवीय नगर की कंचन चोपड़ा, शशिबाला चड्ढा ये वे नाम हैं जिनकी मौत ने भारत में दहेज विरोधी आंदोलन की नींव तैयार की.

2025 के भारत ने ग्रेटर नोएडा की निक्की भाटी को आग की लपटों में घिरा देखा. उनके पति विपिन भाटी और ससुराल वालों ने कथित तौर पर 36 लाख रुपये के लिए अपनी पत्नी की हत्या कर दी. आरोपी विपिन और उसके परिवारवालों को गिरफ्तार कर लिया गया है.

ऊपर जिन घटनाओं का जिक्र किया गया भले ही वे अलग अलग दशक में दर्ज हुई हों लेकिन सबमें एक समानता जरूर थी कि इन सभी महिलाओं को दहेज के लिए जलाकर मार दिया गया. दहेज हत्या से जुड़े हर साल दर्ज होने वाले हजारों मामलों में से ये चंद मामले हैं जो अपने अपने दौर में सुर्खियों का हिस्सा बने. लेकिन करीब 100 साल बाद भी भारतीय महिलाएं दहेज के कारण अपनी जान गंवा रही हैं.

कई दशक बीत जाने के बावजूद दहेज के कारण भारत में हर साल हजारों की संख्या में महिलाओं की हत्या की जाती है. (सांकेतिक तस्वीर)तस्वीर: Fariha Farooqui/Photoshot/picture alliance

लंबे आंदोलन के बाद मजबूत हुआ दहेज विरोधी कानून

दहेज विरोधी प्रदर्शनों ने 1980 के दशक में भारतीय महिला अधिकार आंदोलन को एक नई दिशा दी. खासकर राजधानी दिल्ली में इस दौरान दहेज के कारण हुई कुछ महिलाओं की हत्या ने इस कानून को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई. दिल्ली से होते हुए धीरे धीरे ये प्रदर्शन तब देश के दूसरे राज्यों में भी फैले. नारीवादी और महिला अधिकार संगठन स्त्री संघर्ष समिति ने तब दिल्ली की सड़कों पर 'ओम स्वाहा' नाम के नुक्कड़ नाटक के जरिए दहेज हत्या पर जागरूकता फैलाने का जिम्मा लिया. तब दिल्ली की सड़कों पर ये जुमला सुनाई देने लगा था,

"फिएट की गड्डी, बिन्नी का कपड़ा, बाटा के जूते, गार्देन की साड़ी…चाहे लड़की पिस पिस कर मर जाए. गोदरेज की अलमारी, वेस्टॉन का टीवी, चाहे लड़की पिस पिस कर मर जाए.”

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन हत्याओं को "ब्राइड बर्निंग” नाम की प्रथा से जाना गया. इन तमाम कोशिशों के बाद 1983 में दहेज विरोधी कानून को संशोधित करते हुए आईपीसी में सेक्शन 498ए जोड़ा गया. इसके तहत दहेज के लिए की गई क्रूरता को गैर जमानती अपराध बनाया गया. साथ ही शादीशुदा महिलाओं के साथ पति या रिश्तेदारों द्वारा की जाने वाली क्रूरता या उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाने को इसके तहत कानूनन अपराध घोषित किया गया.

जिस सेक्शन 498ए के गलत इस्तेमाल के दावे होते हैं, वह कानून महिला अधिकार कार्यकर्ताओं के लंबे संघर्ष के बात अस्तित्व में आया था.तस्वीर: Dibyangshu Sarkar/AFP/Getty Images

क्या सच में महिलाएं दहेज विरोधी कानून का गलत इस्तेमाल कर रही हैं?

भारत में दहेज विरोधी कानून कितना कारगर रहा है आज इस पर उतनी बहस शायद ही होती है जितनी सेक्शन 498ए के गलत इस्तेमाल पर होती है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक साल 2022 में दहेज हत्या के 6,516 मामले दर्ज किए गए थे.

एनसीआरबी के ही आंकड़ों के मुताबिक देश में 60,577 दहेज हत्या से जुड़े मामले फिलहाल लंबित पड़े हैं. जिन मामलों का ट्रायल अदालतों में पूरा हुआ उसमें से केवल 33 फीसदी में ही सजा दी गई. ये आंकड़े दो पक्ष रखते हैं. पहला कि दूसरे जेंडर आधारित अपराधों की तरह दहेज हत्या से जुड़े केस भी कम दर्ज होते हैं. दूसरा कि पर्याप्त सबूतों की कमी के कारण ज्यादातर मामलों में आरोप साबित नहीं हो पाते.

कानून के जानकारों के मुताबिक सेक्शन 498ए के दायरे को बीते कई सालों में कम किया गया है, जिससे इस सेक्शन के गलत इस्तेमाल के दावे कमजोर नजर आते हैं. (सांकेतिक तस्वीर)तस्वीर: Fariha Farooqui/Xinhua/picture alliance

इस पर महिला अधिकार कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट में बतौर एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड कार्यरत प्योली कहती हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने लगातार पिछले कई सालों में बल्कि मैं कहूंगी दशकों से ही सेक्शन 498ए के दायरे को कम किया है. जब हम इन मामलों में सजा की दर को देखते हैं तो यही लगता है कि ज्यादातर मामले झूठे या बेबुनियाद थे. लेकिन हम ये नहीं जानते कि अगर हम इस सेक्शन की तह तक जाएंगे तो इसके अंदर बहुत सारी शर्तें होती हैं जो एक मामले में आरोप को साबित करने के लिए शिकायतकर्ता को पूरी करनी होती हैं.”

वह आगे बताती हैं, "मसलन, अगर ससुरालवालों पर आरोप है तो वे साथ में रहते थे कि नहीं. दहेज प्रताड़ना का आरोप लगाने वाले के पास सबूत क्या है. आप इस सेक्शन के तहत सिर्फ आरोप नहीं लगा सकते. साथ ही यह भी मायने रखता है कि आपने शिकायत कितने दिनों बाद की. अगर आपने तुरंत शिकायत नहीं की तो आपसे ही सवाल किए जाते हैं. हम सभी ये जानते हैं कि भारत में कितनी ही महिलाएं अपने साथ होने वाली हिंसा के खिलाफ पुलिस के पास जाती हैं.”

प्योली का मानना है कि आज कल हम इस सेक्शन के गलत इस्तेमाल की बात आए दिन सुनते रहते हैं लेकिन इतनी शर्तों को पूरा करने के बाद झूठे मुकदमे दर्ज करवाने की संभावना बेहद कम हो जाती है.

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वंचित तबकों के लिए बने कानून को ही कमजोर करने की कोशिश?

हालांकि, समय समय पर चंद मामलों का हवाला देकर यह साबित करने की भरपूर कोशिशें हुई हैं कि महिलाएं अब दहेज विरोधी कानून के तहत पति और ससुराल वालों पर झूठे मुकदमे दर्ज करवाती हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि किसी भी कानून के गलत इस्तेमाल होने का तर्क तब अधिक सामने आता है जब वह समाज के शोषित तबकों के सशक्तिकरण के लिए बना हो. प्योली कहती हैं कि जो भी कानून एक लंबे संघर्ष के बाद वंचित तबकों के लिए बनाए गए, चाहे वह एससी-एसटी एक्ट हो या 498ए, समाज को गलत इस्तेमाल इन्हीं कानूनों का होता दिखाई देता है.

इसी साल सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई में शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को दोहराया था. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2022 में निर्देश दिया था कि सेक्शन 498ए के गलत इस्तेमाल को रोकने के लिए गिरफ्तारी से पहले दो महीने के "कूलिंग ऑफ" पीरियड लागू किया जाना चाहिए. 2017 में भी जस्टिस आदर्श गोयल और जस्टिस यू यू ललित की बेंच ने फैमिली वेलफेयर कमिटी बनाने और कूलिंग ऑफ पीरियड जैसी शर्तों की वकालत की थी. लेकिन उस वक्त इसका विरोध हुआ था.

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक साल 2022 में दहेज हत्या के 6,516 मामले दर्ज किए गए थे. (सांकेतिक तस्वीर)तस्वीर: Mukhtar Khan/AP

'सोशल एक्शन फोरम फॉर मानवाधिकार' नाम के संगठन ने इसके खिलाफ अदालत में याचिका दाखिल की थी. तब अदालत ने माना था कि सेक्शन 498ए का गलत इस्तेमाल हो रहा है और इसे रोकने के लिए गाइडलाइंस की जरूरत है. हालांकि, 2018 में खुद सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को बदल दिया था. सुशील कुमार बनाम यूनियन ऑउ इंडिया (2005) के केस में सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा था कि 498ए का गलत इस्तेमाल एक नए कानूनी आंतकवाद को जन्म दे सकता है.

प्योली ने बताया कि पहले जब भी सेक्शन 498ए को कमजोर करने या बदलने की बात होती थी तो इसका बड़े स्तर पर विरोध होता था जो अब नहीं दिखाई देता. कानून का ढांचा कुछ ऐसा है कि जिसके साथ अपराध हो रहा है, उसे साबित करने की जिम्मेदारी भी उन पर ही डाल दी जाती है. प्योली ने बताया कि ऐसे रूढ़िवादी माहौल में जब एक लड़की या उसका परिवार शिकायत करने जाता भी है तो उन पर केस वापस लेने का दबाव डाला जाता है. प्योली के मुताबिक उनके पास कई ऐसे लोग आते हैं जिन पर या तो केस वापस लेने या फिर तलाक की अर्जी देने का दबाव बनाया जाता है. ऐसे फैसले पहले से ही हिंसाग्रस्त रिश्तों में रह रही महिलाओं के लिए अदालत तक जाने के रास्ते को और मुश्किल बनाना है.

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