अमेरिका और चीन के बीच करीब तीन दिनों तक चली लंबी व्यापार बातचीत के बाद, दोनों ही बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में आपसी व्यापार से जुड़े कई मुद्दों पर सहमति बन गई है.
पिछले महीनों में अमेरिका के व्यापार प्रतिबंधों को लेकर ट्रंप के रुख में नरमी आई हैतस्वीर: Kevin Lamarque/REUTERS
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लंदन में दो दिन चली मैराथन बातचीत के बाद अमेरिका और चीन आपसी व्यापार के एक फ्रेमवर्क पर सहमत हो गए हैं. इसके साथ ही दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच व्यापार युद्ध का खतरा टलता नजर आ रहा है. इस व्यापार युद्ध बढ़ने से दुनिया में महंगाई और आर्थिक जड़ता का दौर आने का संकट खड़ा हो सकता था.
इस फ्रेमवर्क पर सहमति बनाने के लिए दोनों देशों ने दो दौर में बातचीत की. पहले दौर की बातचीत स्विट्जरलैंड के जेनेवा में पिछले महीने हुई थी. इसके बाद भी दो प्रमुख मुद्दों पर तनाव बना हुआ था. अमेरिका चाहता था कि चीन, अमेरिका को दुर्लभ खनिज दे. वहीं चीन चाहता था कि अमेरिका, से चीन आने वाली एडवांस टेक्नोलॉजी पर रोक ना लगे.
डॉनल्ड ट्रंप ने फिर से अमेरिका में सत्ता में आने के बाद चीन पर बड़े व्यापार प्रतिबंध लगाए थे. इसके बाद दोनों देशों के रिश्ते बेहद खराब दौर में पहुंच गए. चीन और अमेरिका दोनों ने ही एक-दूसरे पर भारी आयात शुल्क लगा दिए. नतीजतन साल 2020 के बाद से मई से पहले 12 महीनों में अमेरिका को होने वाले चीनी निर्यात में सबसे बड़ी गिरावट देखी गई थी.
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दुर्लभ खनिज और टेक्नोलॉजी निर्यात क्यों अहम?
हालिया बातचीत का मकसद यह सुनिश्चित करना था कि चीन, अमेरिका को दुर्लभ खनिजों का निर्यात और अमेरिका की ओर से चीन को टेक्नोलॉजी देने पर प्रतिबंध, दोनों पक्षों के दूसरे व्यापार बातचीत को मुश्किल में नहीं डालेंगे. अमेरिका और चीन की बातचीत में ये दो मुद्दे लंबे समय से बहुत अहम बने हुए हैं.
दरअसल अमेरिका के लिए दुर्लभ खनिज बहुत अहम हैं. ये यहां के रक्षा, कार और टेक उद्योगों के लिए खाद-पानी हैं. दुनिया के अधिकांश दुर्लभ खनिजों की प्रॉसेसिंग अब भी चीन में ही होती है. ऐसे में दुर्लभ खनिजों के मामले में अमेरिका की ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर देशों की चीन पर भारी निर्भरता है.
चीन और अमेरिका के खराब होते संबंधों के बीच अमेरिका ने दुर्लभ खनिज हासिल करने के लिए चीन का विकल्प तलाशने शुरू किए हैं. हालांकि इन विकल्पों की ओर से पर्याप्त दुर्लभ खनिज मिल पाने में अभी दशकों का समय लगेगा. तब तक अमेरिका को इनके लिए चीन पर निर्भर रहना पड़ेगा.
विदेश में पढ़ाईः ये हैं अमेरिका के 9 विकल्प
दुनिया के कई देश जैसे जापान, जर्मनी, फ्रांस और सिंगापुर न केवल उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा की पेशकश कर रहे हैं, बल्कि स्कॉलरशिप, सस्ती फीस और रोजगार के बेहतर अवसरों के जरिए अमेरिका की जगह लेने को तैयार हैं.
तस्वीर: Rainer Unkel/Imago Images
जापान: क्वॉलिटी एजुकेशन के साथ पूरा खर्च माफ
जापान की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटीज जैसे ओसाका यूनिवर्सिटी, टोक्यो यूनिवर्सिटी और क्योटो यूनिवर्सिटी अब अमेरिकी पाबंदियों से प्रभावित विदेशी छात्रों के लिए बड़े अवसर खोल रही हैं. ओसाका यूनिवर्सिटी ने फुल ट्यूशन फी माफ, रिसर्च फंडिंग और ट्रैवल की सहायता की घोषणा की है. जापान में इंग्लिश मीडियम कोर्स की संख्या बढ़ रही है और वहां पढ़ाई के साथ रिसर्च का बेहतरीन माहौल है.
हांगकांग यूनिवर्सिटी और चाइनीज यूनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग ने अमेरिकी छात्रों को आकर्षित करने के लिए विशेष योजनाएं शुरू की हैं. हांगकांग न केवल शिक्षा के लिए जाना जाता है, बल्कि एक वैश्विक वित्तीय और व्यावसायिक केंद्र होने के नाते, छात्रों को इंटर्नशिप और नौकरी के शानदार अवसर भी देता है. इंग्लिश यहां की आधिकारिक भाषाओं में से एक है, जिससे भारतीय छात्रों को भाषा की समस्या नहीं आती.
तस्वीर: China Foto Press/imago images
चीन: तेजी से उभरता हुआ रिसर्च और शिक्षा केंद्र
चीन की यूनिवर्सिटी जैसे पेकिंग यूनिवर्सिटी और शीआन जियाओतोंग यूनिवर्सिटी अब अमेरिकी संस्थानों से निकाले गए या असहज छात्रों को प्रवेश देने के लिए सरल दाखिला प्रक्रिया और मदद की पेशकश कर रही हैं. विज्ञान, इंजीनियरिंग और मेडिकल क्षेत्र में चीन ने भारी निवेश किया है और भारतीय छात्रों को यहां रिसर्च, स्कॉलरशिप और मेडिकल सुविधाएं बहुत कम खर्च में मिल सकती हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/W. Zhao
जर्मनी: ट्यूशन फीस फ्री और उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा
जर्मनी लंबे समय से भारतीय छात्रों की पसंद रहा है, खासकर इंजीनियरिंग और साइंस में. यहां की सरकारी यूनिवर्सिटी में ट्यूशन फीस नहीं लगती और डीएएडी (DAAD) जैसे संगठनों के जरिए स्कॉलरशिप्स आसानी से मिलती हैं. मास्टर्स कोर्सेस में इंग्लिश माध्यम उपलब्ध है और पोस्ट स्टडी वीजा की सुविधा भी आकर्षण का केंद्र है.
तस्वीर: imago stock&people
फ्रांस: कम खर्च में अच्छी पढ़ाई
सॉरबोन यूनिवर्सिटी और एसईसी पेरिस जैसी यूनिवर्सिटी न केवल अकैडमिक रूप से बेहतरीन हैं, बल्कि फ्रांस में सरकारी स्कॉलरशिप्स, कम ट्यूशन फीस और संस्कृति से जुड़ाव भी छात्रों को आकर्षित करता है. इंग्लिश मीडियम कोर्सेज की संख्या बढ़ रही है और फ्रांस की सरकार इंटरनेशनल स्टूडेंट्स को स्थायी रूप से बसने के अवसर भी देती है.
तस्वीर: Coust Laurent/ABACA/picture alliance
आयरलैंड: पोस्ट स्टडी वर्क वीजा के साथ मजबूत करियर की संभावना
आयरलैंड की यूनिवर्सिटी जैसे ट्रिनिटी कॉलेज डबलिन और यूनिवर्सिटी कॉलेज डबलिन ने हाल के वर्षों में भारतीय छात्रों के बीच लोकप्रियता पाई है. आयरलैंड में दो साल का पोस्ट स्टडी वर्क वीजा मिलता है और आईटी, फार्मा और फिनटेक जैसे क्षेत्रों में करियर बनाना आसान है. यहां की भाषा इंग्लिश है और जीवनशैली भारत के अनुकूल है.
तस्वीर: Paul Faith/AFP
यूनाइटेड किंगडम: स्कॉलरशिप्स के साथ फिर से बन रहा आकर्षक विकल्प
हालांकि पहले ब्रिटेन की फीस महंगी मानी जाती थी, पर शिवनिंग और कॉमनवेल्थ जैसी स्कॉलरशिप्स भारतीय छात्रों को पढ़ाई का सस्ता और सुरक्षित विकल्प दे सकती हैं. दो साल का पोस्ट स्टडी वीजा और तेजी से रिकवर होती इकॉनमी ब्रिटेन को एक मजबूत विकल्प बनाते हैं. ऑक्सफर्ड, कैम्ब्रिज और एडिनबरा जैसी यूनिवर्सिटी भारत में खूब जानी जाती हैं.
तस्वीर: Jonas M/Wikipedia
सिंगापुर: टेक्नोलॉजी और इनोवेशन का हॉटस्पॉट
एनयूएस और एनटीयू जैसी यूनिवर्सिटीज ग्लोबल रैंकिंग में शीर्ष स्थान पर हैं. सिंगापुर भारत के करीब है, ट्रैवल सस्ता है और यहां की संस्कृति भारत से मिलती-जुलती है. क्वॉलिटी एजुकेशन, सेफ एनवायरनमेंट और आसान वीजा पॉलिसी सिंगापुर को अत्यंत आकर्षक विकल्प बनाते हैं.
तस्वीर: Catherine Lai/AFP via Getty Images
दक्षिण कोरिया: रिसर्च और स्कॉलरशिप्स के लिए उपयुक्त
केएआईएसटी और पोस्टटेक जैसे संस्थान इंजीनियरिंग और साइंस के लिए दुनिया के सबसे अग्रणी संस्थानों में शामिल हैं. कोरिया सरकार इंटरनेशनल छात्रों के लिए ग्लोबल कोरिया स्कॉलरशिप जैसी योजनाएं चलाती है. यहां आधुनिकता और परंपरा का सुंदर संतुलन छात्रों को एक अलग अनुभव देता है.
तस्वीर: REUTERS/K. Hong-Ji
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उधर चीन चाहता है कि अमेरिका उन प्रतिबंधों को हटा ले, जो उसने चीन को एडवांस टेक्नोलॉजी के निर्यात पर लगा रखे हैं. विवाद का नया विषय बना था, अमेरिका की ओर से चीनी कंपनियों को चिप डिजाइन सॉफ्टवेयर के निर्यात पर लगाई गई रोक.
अमेरिका ने दुनिया भर में हुआवे के चिप के इस्तेमाल को लेकर नई चेतावनियां भी जारी की थीं. चीन ने इस पर भी विरोध जताया था. इसके अलावा अमेरिका में चीनी छात्रों का वीजा रद्द किया जाना भी बातचीत का एक अहम मुद्दा था.
आखिर चीन को छूट देने पर मान गए ट्रंप
इसी सोमवार को व्हाइट हाउस के एक अधिकारी ने संकेत दिया था कि अगर चीन अमेरिका को दुर्लभ खनिजों के निर्यात में तेजी लाता है तो डॉनल्ड ट्रंप, चीन को चिप्स के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों में छूट दे सकते हैं.
ट्रंप की ओर से व्यापार युद्ध की शुरुआत किए जाने के बाद से लगातार चीन का रुख अमेरिका के खिलाफ आक्रामक ही रहा था तस्वीर: MAXPPP/Kyodo/picture alliance
हालांकि यह कदम पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की नीति में बड़ा बदलाव होगा. बाइडेन का मानना था कि चीन, अमेरिका से मिली टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल अपनी सेना को मजबूत बनाने के लिए कर सकता है. अब अमेरिकी वाणिज्य मंत्री हावर्ड लुटनिक ने लंदन से अमेरिका रवाना होने से पहले बताया कि चीन और अमेरिका के बीच जिस हालिया फ्रेमवर्क पर सहमति बनी है, उससे दुर्लभ खनिजों और मैग्नेट के मुद्दे का हल हो जाएगा. उन्होंने अमेरिका की ओर से टेक्नोलॉजी निर्यात पर लगी रोक में छूट देने के भी संकेत दिए.
ट्रंप और जिनपिंग ने फोन पर भी की थी बात
लंदन में मंगलवार को पूरी हुई बातचीत में हिस्सा लेने के लिए खुद अमेरिका के वाणिज्य मंत्री हावर्ड लुटनिक भी पहुंचे थे. अब वह अमेरिका वापस लौटकर, राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को बैठक में बनी सहमति के बारे में बताएंगे. जिस फ्रेमवर्क पर अमेरिका और चीन में सहमति बनी है, उसके सभी मुद्दों की जानकारी अभी सार्वजनिक नहीं की गई है.
दुनिया कई बार झेल चुकी है कारोबारी जंग की मुश्किलें
डॉनल्ड ट्रंप के टैरिफ दुनिया के बाजारों में कोहराम मचा रहे हैं. हालांकि कारोबारी जंग पहली बार नहीं छिड़ी है. इसकी शुरुआत तो 19वीं सदी में ही हो गई थी.
तस्वीर: Charly Triballeau/AFP
ओपियम युद्ध (वार)
19वीं सदी के मध्य में अफीम के कारोबार को लेकर दो बार बड़ा संघर्ष हुआ. पहला संघर्ष 1839 में शुरू हुआ. ब्रिटेन ने चीन पर भारतीय अफीम के लिए बाजार खोलने का दबाव बनाया. व्यापारी ब्रिटिश थे और इसके लिए सैन्य संघर्ष के बाद 1842 में ब्रिटेन की जीत हुई. चीन को हांगकांग का क्षेत्र ब्रिटेन को देने के साथ ही पांच बंदरगाह भी वैश्विक कारोबार के लिए खोलना पड़ा और कस्टम ड्यूटी को पांच फीसदी पर सीमित करना पड़ा.
तस्वीर: picture-alliance / akg-images
दूसरा ओपियम युद्ध
दूसरा ओपियम युद्ध 1856 से 1860 तक चला. इसमें ब्रिटेन के साथ फ्रांस भी था. इस युद्ध में भी ब्रिटिश राजशाही की जीत हुई. युद्ध के नतीजे में चीन को अपने 11 अतिरिक्त बंदरगाह विदेशी कारोबार के लिए खोलने पड़े. इसके साथ ही वह पश्चिम के साथ राजनयिक रिश्ते बनाने पर मजबूर हुआ.
तस्वीर: Yawar Nazir/NurPhoto/picture alliance
विलियम मैकिनले टैरिफ
रिपब्लिकन सांसद विलियम मैकिनले ने 1890 में कानून बना कर अमेरिका में 50 फीसदी आयात शुल्क लगा दिया. देश में टिन प्लेट का उत्पादन बढ़ा लेकिन कीमतें बहुत ज्यादा बढ़ीं. उसी साल संसद में रिपब्लिकन पार्टी ने बहुमत खोया. दो साल बाद राष्ट्रपति को भी हार मिली. मैकिनले का कानून 1894 में खत्म कर दिया गया. 1897 में मैकिनले राष्ट्रपति बने. 1901 में उनकी हत्या हो गई. ट्रंप मैकिनले को अपनी प्रेरणा बताते हैं.
तस्वीर: Bildagentur-online/picture alliance
स्मूट-हाउले एक्ट
दो अमेरिकी नेताओं के नाम पर बने इस कानून के तहत 20,000 से ज्यादा चीजों पर लगभग 60 फीसदी का आयात शुल्क लगा दिया गया. कनाडा के नेतृत्व में अमेरिका के काराबोरी साझीदारों ने भी जवाबी शुल्क लगा दिया. इसके बाद 1929 से 1933 के बीच अमेरिकी निर्यात 60 फीसदी से ज्यादा नीचे गिर गया. अमेरिका में आई महामंदी (ग्रेट डिप्रेशन) के लिए इसी कानून को जिम्मेदार समझा जाता है
तस्वीर: Bildagentur-online/picture alliance
जब चिकेन पर लगा आयात शुल्क
1960 के दशक के शुरुआती सालों में फ्रांस और जर्मनी ने संयुक्त रूप से अमेरिका में औद्योगिक उत्पादन वाले चिकेन के आयात पर टैक्स लगाने का फैसला किया. इसके जवाब में अमेरिका ने कई चीजों पर टैक्स लगा दिया, खासतौर से कई तरह की यूटिलिटी गाड़ियों पर जो आज भी जारी है. कथित चिकेन वार 1961 से 1964 तक चला.
तस्वीर: JUSTIN SULLIVAN/Getty Images/AFP
पास्ता पर शुल्क से उठा विवाद
1985 में तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अमेरिकी उद्योग को संरक्षित करने के नाम पर यूरोप से आयात होने वाले पास्ता पर शुल्क बढ़ा दिया. इसका जवाब यूरोप ने मेवे और नींबू पर शुल्क लगा कर दिया. 9 महीने तक यह टकराव चलता रहा. इसके बाद अमेरिका और यूरोपीय आर्थिक समुदाय (ईईसी) के बीच एक समझौता हुआ.
तस्वीर: DW
बीफ पर पाबंदी का विवाद
1989 में ईईसी ने ग्रोथ हार्मोन से तैयार बीफ के आयात पर रोक लगा दी. अमेरिका, कनाडा और दूसरे प्रभावित देश इस मुद्दे को विश्व व्यापार संघ (डब्ल्यूटीओ) में ले गए जिसने उनके पक्ष में फैसला सुनाया. इसके बाद इन देशों ने 1999 में कई यूरोपीय चीजों पर 100 फीसदी आयात शुल्क लगा दिया. आखिरकार 2009 में समझौता हुआ और शुल्कों को निलंबित किया गया. इसके बाद यूरोप ने धीरे-धीरे हार्मोन फ्री बीफ का कोटा बढ़ाया.
तस्वीर: Alexandra Buxbaum/Sipa USA/picture alliance
केला पर शुल्क
1993 में यूरोपीय संघ ने अफ्रीका में यूरोप के पूर्व उपनिवेशों के लिए प्रेफरेंशियल कस्टम रिजीम की अनुमति दी. इससे लातिन अमेरिकी देशों में केला उगाने वाली अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित प्रभावित हुआ. इन देशों ने डब्ल्यूटीओ में इसके खिलाफ शिकायत की जिसने जवाबी कार्रवाई की मंजूरी दे दी. 2012 यूरोपीय संघ और इन देशों के बीच समझौते के बाद 11 लातिन देशों के केले पर लगा आयात शुल्क खत्म हुआ.
तस्वीर: Emmanuel Herman/Xinhua/picture alliance
स्टील पर शुल्क
2002 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 10 श्रेणियों में बंटे सामानों पर तीन साल के लिए 30 फीसदी तक का सरचार्ज लगा दिया. इनमें स्टील, मशीन वायर और वेल्डेड ट्यूब भी शामिल थे. इसकी वजह से करीब 29 फीसदी आयात प्रभावित हुआ. यूरोपीय संघ ने डब्ल्यूटीओ में शिकायत की और अमेरिकी सामानों की एक सूची जारी की जिस पर 100 फीसदी शुल्क लगाने की चेतावनी दी गई. 2003 के आखिर में बुश ने शुल्क हटा लिया.
तस्वीर: Patrick Pleul/picture-alliance/dpa
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बातचीत से कुछ दिन पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने फोन पर बातचीत की थी. दोनों राष्ट्रपतियों ने एक-दूसरे को अपने देश आने का न्यौता भी दिया गया था. अमेरिका और चीन की इस सहमति का दुनिया भर के बाजारों पर बहुत सकारात्मक असर देखने को मिला. चीन और हांगकांग के शेयर मार्केट के सूचकांकों में करीब 1 फीसदी की बढ़त देखने को मिली.
दोनों देशों की तटस्थ जगहों पर हुई व्यापार बातचीत
आपसी व्यापार को लेकर अमेरिका और चीन की जेनेवा में हुई पहले दौर की बातचीत के बाद दोनों देशों ने एक-दूसरे के सामानों पर अपने टैरिफ को 115 फीसदी करने का निर्णय लिया था. इसके साथ ही व्यापार युद्ध को खत्म करने के लिए 90 दिनों की समयसीमा तय की थी. हालांकि बाद में दोनों देशों के बीच फिर से दुर्लभ खनिजों और अमेरिका के टेक्नोलॉजी निर्यात पर प्रतिबंधों को लेकर विवाद गहराने लगा था.
दोनों देशों के बीच यह सहमति ब्रिटेन के ऐतिहासिक लैंकास्टर हाउस मैंशन में बनी. यह ऐतिहासिक हवेली बकिंघम पैलेस से बस कुछ ही दूरी पर स्थित है. ब्रिटेन की सरकार ने इसे दोनों पक्षों को बातचीत की एक तटस्थ जगह के तौर पर उपलब्ध कराया था.