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थर्मल वॉटर से “सफेद सोना” निकालने की तैयारी

क्लाउस उलरिष
२८ जुलाई २०२०

खनिजों के मामले में जर्मनी को ज्यादा समृद्ध नहीं माना जाता है. लेकिन यहां के थर्मल वॉटर उसके लिए “सफेद सोना” कहलाने वाले लीथियम का भंडार साबित हो सकते हैं.

Bolivien Lithium-Produktion in Uyuni
तस्वीर: picture-alliance/dpa/G. Ismar

लीथियम को सफेद सोना इसलिए कहा जाता है क्योंकि बैटरी से चलने वाले लगभग सभी आधुनिक गैजेट्स में इसका इस्तेमाल होता है. जर्मनी में यह बहुत कम मिलता है लेकिन नई तकनीक की मदद से इसे भारी मात्रा में अलग करना संभव है. जर्मनी में कार्ल्सरूह इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी (केआईटी) के रिसर्चरों को लगता है कि उन्हें देश में ही जैसे कोई गड़ा खजाना हाथ लगा है. हाल ही में उन्हें थर्मल वॉटर से लीथियम अलग करने में कामयाबी मिली है.

आजकल की बैटरियां बनाने में लीथियम सबसे अहम कच्चा माल होता है. ऐसे में विश्व का लगभग हर देश इसकी अधिक से अधिक मात्रा पाने की होड़ में लगा रहता है. बैटरी निर्माता कंपनियों को कई लाख टन लीथियम की जरूरत होती है लेकिन चिली, अर्जेंटीना, बोलिविया और ऑस्ट्रेलिया जैसे दुनिया के कुछ ही देशों में लीथियम प्रचुर मात्रा में मिलता है. यही कारण है कि हर साल कुल कच्चे माल का करीब 80 फीसदी लीथियम केवल इन्हीं चार देशों से आता है. जर्मनी जैसे दुनिया के बाकी देशों को लीथियम की कीमतों और सप्लाई के लिए केवल इन्हीं पर निर्भर रहता पड़ता है. अब पानी से लीथियम अलग करने की तकनीक इस पूरी व्यवस्था को बदल सकती है.

लीथियम अलग करने की तकनीक का इजाद

कार्ल्सरूह इंस्टीट्यूट ने अपर-राइन रिफ्ट वैली की दरारों में से बहने वाले पानी में इसे ढूंढ निकाला है. यह जर्मनी के दक्षिण पश्चिमी हिस्से में स्थित है और इस इलाके की धरती की गहराई में नमकीन गर्म पानी मिलता है. इस थर्मल वॉटर का इस्तेमाल बहुत पहले से थर्मल पावर और हीटिंग प्लांट्स में होता आया है. लेकिन कार्ल्सरूह इंस्टीट्यूट ने पता लगाया कि इसमें बाकी तमाम खनिजों के अलावा लिक्विड लीथियम भी मौजूद है.

इंस्टीट्यूट ने अपने बयान में कहा, "हमें प्रति लीटर में 200 मिलीग्राम तक मात्रा मिली.” केआईटी के दो रिसर्चरों येन्स ग्रिमर और फ्लेरेंसिया साराविया ने मिलकर ऐसी तकनीक इजाद की है जिससे ईकोफ्रेंडली, स्थाई और सस्ते तरीके से लीथियम को अलग किया जा सकता है. यह जोड़ा इस तकनीक को पेटेंट भी करा चुका है. ग्रिमर का मानना है कि इसकी मदद से जर्मनी अपनी लीथियम की जरूरत का एक बड़ा हिस्सा घर में ही निकाल सकता है और अपने जलवायु परिवर्तन से जुड़े लक्ष्यों को भी पूरा कर सकता है. पूरी दुनिया इलेक्ट्रिक गाड़ियों के भविष्य की ओर बढ़ना चाहती है लेकिन उसके लिए सबसे अहम जरूरत बैटरी बनाने वाली लीथियम की ही है. पानी से लीथियम अलग करने की प्रक्रिया के बारे में ग्रिमर बताते हैं कि "पहला चरण थर्मल वॉटर से लीथियम आयनों को अलग करने का होता है और दूसरे चरण में प्रोसेसिंग कर उसकी सांद्रता बढ़ाई जाती है, जब तक लीथियम लवण की तरह नीचे ना बैठ जाए."

कहां से निकलता है कितना लीथियम

ईको फ्रेंडली भी

इसे ग्रिमर-साराविया तकनीक कहा जा रहा और इसे तरीका दक्षिण अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में प्रचलित लीथियम खनन के पारंपरिक तरीकों से कई मायनों में बेहतर माना जा रहा है. जर्मनी में पहले से मौजूद जियोथर्मल पावर प्लांट हर साल अंडरग्राउंड डिपॉजिट से करीब 2 अरब लीटर थर्मल वॉटर पंप करता है इसलिए अलग से ढांचा खड़ा करना नहीं पड़ेगा. दूसरे, पारंपरिक तरीके में सॉल्ट लेक या खनिज वाली चट्टानों से इसके निकालने में मिट्टी और झरती का काफी नुकसान होता है, जो कि इसमें नहीं होगा. इसके अलावा, थर्मल वॉटर से उसकी गर्मी और ऊर्जा निकालने के बाद बिना कोई रसायन मिलाए वापस धरती में छोड़ दिया जाएगा. यह तरीका मौसम पर बहुत ज्यादा निर्भर नहीं होगा और तेज भी होगा. इस तकनीक की मदद से, थर्मल वॉटर से लीथियम के साथ साथ दूसरी कीमती धातुएं जैसे रुबीडियम और सीजियम भी निकाले जा सकते हैं. इन खनिजों का इस्तेमाल आधुनिक लेजर और वैक्यूम तकनीकों में होता है.

आगे की योजना

तकनीक का पेटेंट हो चुका है और कार्ल्सरूह इंस्टीट्यूट का कहना है कि दोनों रिसर्चर इंडस्ट्री के साथ साझेदारी में इस तकनीक का पायलट फेज लॉन्च करने की तैयारी में हैं. अगर प्रोटोटाइप प्लांट सफल रहता है तो एक बड़ा प्लांट लगाने की भी योजना है. जर्मनी में पहले से ही इसके लिए ढ़ांचागत सुविधाएं मौजूद होने के चलते हर साल सैकड़ों टन लीथियम निकाला जाना संभव है.

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