ऑस्ट्रेलिया के पड़ोसी देश सोलोमन आईलैंड्स की राजधानी होनिआरा में लगातार तीसरे दिन भी दंगे जारी रहे. हिंसा के चलते ऑस्ट्रेलिया ने देश में आनन-फानन में सेना तैनात कर दी है.
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सोलोमन आईलैंड्स की राजधानी होनिआरा के चाइनाटाउन में गुरुवार को हजारों लोगों ने कुल्हाड़ियों और चाकुओं के साथ मार्च किया. हिंसा करते ये लोग पॉइंट क्रूज और अन्य बाजारों में भी गए. चाइनाटाउन में एक गोदाम को आग लगा दी गई. इस आगजनी के कारण बड़ा धमाका हुआ जिससे लोगों में दहशत फैल गई.
ऐसी भी खबरें हैं कि तंबाकू के गोदामों को आग लगाई गई है क्योंकि पिछले दो दिनों में हुई आगजनी के कारण आसमान पर अब भी धुआं छाया हुआ है. सोलोमन द्वीप पर कई दिन से सरकार विरोधी हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं.
तस्वीरेंः मौसम की मार झेलता सोलोमन
बदलते मौसम की मार झेलता सोलोमन द्वीप
सोलोमन द्वीप के लौ लैगून हिस्से में रहने वाले लोगों का समुद्र के साथ रिश्ता कई पीढ़ियों से चला आ रहा है. लेकिन अब जलवायु परिवर्तन और समुद्र के बढ़ते जल स्तर ने इनकी जिंदगी और अस्तित्व पर सवाल उठा दिये हैं
तस्वीर: Beni Knight
पानी पर जिंदगी
उच्च ज्वार में लौ लैगून द्वीप पर पहले शायद ही कभी जलस्तर ऊपर उठता था लेकिन अब यहां अति उच्च ज्वार और तेज तूफानों का आना आम बात हो गयी है. नतीजन, अब तक प्रकृति की गोद में रहने वाले इस द्वीप का कुछ हिस्सा समुद्र में डूबने लगा है.
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समुद्र से जुड़े लोग
स्थानीय कहानियों के मुताबिक "वाने ई ऐसी" या समुद्री लोग इस कृत्रिम द्वीप में 18 पीढ़ियों से रह रहे हैं. ये लोग कहते हैं कि उन्हें समुद्र के करीब अपनापन महसूस होता है और यह समंदर उन्हें मछलियां देता है. साथ ही उन्हें मच्छरों से भी राहत रहती है.
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बढ़ता जलस्तर
अब जब यहां समुद्री जलस्तर बढ़ रहा है तो लोगों के पास पानी से ऊपर बने इन घरों को और ऊंचा करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है.
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बच्चों का जीवन
अपने बचपन को इस समुद्र के निकट बिताते यहां के बच्चों के लिए ये पानी जीवन का अहम हिस्सा है. अपने स्कूल जाने के लिए ये बच्चे समुद्री रास्ता पार कर जाते हैं.
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जन्म से नाविक
लोग द्वीप से तट तक का रास्ता बनाना, उसे पार करना आसानी से सीख जाते हैं और जल्द ही पानी के ऊपर बने अपने घरों से तट की ओर-जाना इनकी आदत में शुमार हो जाता है.
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बदलाव के संकेत
यहां रहने वाले 52 साल के जॉन काईया इस द्वीप पर रहने वाली आइनाबाउलो जनजाति के मुखिया है. जॉन कहते हैं कि उन्होंने अपने जिंदगी में पहली बार मौसम में ऐसे बदलाव देखें हैं.
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तूफानी मौसम
लैगून पर रहने का मतलब है उष्णकटिबंधीय तूफानों को झेलना. ये तूफान पारंपरिक रूप से गर्मी के मौसम में आते थे लेकिन अब लौ लैगून पर मौसम अप्रत्याक्षित रूप से बदल रहा है.
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बहते आशियाने
बढ़ते जल स्तर और आये दिने आने वाले तूफानों ने यहां रहने वाले लोगों के घरों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया है. इसलिए अब लोगों ने घरों की मरम्मत के काम ही रोक दिया है.
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समय के साथ जंग
बढ़ते जल स्तर के बीच लंबे समय तक यहां रहना एक चुनौती है. लेकिन लोग अब भी गुजर बसर कर रहे हैं लेकिन आउटहाउस को बांधने वाले पुल का नियमित रख-रखाव किया जा रहा है.
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पंछियों का अड्डा
तस्वीर में नजर आ रहा यह आउटहाउस पहले किसी घर का हिस्सा था जो आज यहां से गुजरने वाले पंछियों का अड्डा बन गया है. जलवायु परिवर्तन ने इसे लोगों से बेहद ही दूर कर दिया है
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नये पड़ोसी
लौ लैगून के लोग अब पड़ोस के द्वीप को समुद्र से बांधने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इन्हें काफी विवादों का सामना करना पड़ रहा है. भूमि विवाद का मतलब है निर्माण काम पर अदालती आदेश के बाद रोक.
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नई शुरूआत
कुछ वाने ई लोग अब भी सुरक्षित जगह के लिए संघर्ष कर रहे हैं. कुछ नए कृत्रिम द्वीप बनाने की कोशिशों में हैं लेकिन अब भी इनके लिए काफी काम किया जाना बाकी है.
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विश्वास बरकरार
सोलोमन के इस द्वीप पर धर्म को बहुत अधिक तवज्जो मिलती है. बदलती परिस्थितियों में यहां के लोगों को भरोसा है कि इनकी जिदंगी को बचाने और इन्हें दूसरी जगह बसाने में चर्च जरूर मदद करेगा.
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अलविदा, अलविदा
प्रकृति के साथ तालमेल बिठा कर रहने वाले इन लोगों की जिदंगी को बढ़ते औद्योगिकीकरण के इस दौर में खतरा है, संभवत: भविष्य में यह द्वीप अपना अस्तित्व न बचा पाये और इसके साथ ही एक संस्कृति का भी अंत हो जाये.
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इन प्रदर्शनों के चलते सोलोमन के प्रधानमंत्री मनासे सोगावारे ने पड़ोसियों से मदद की अपील की जिसके बाद ऑस्ट्रेलिया ने रातोरात सैन्य टुकड़ियों को वहां तैनात कर दिया. सोलोमन के एक और पड़ोसी पापुआ न्यू गिनी ने भी 34 शांति सैनिकों की एक टुकड़ी वहां भेजी है.
विदेशी ताकतों का हाथः प्रधानमंत्री
सोगावारे का कहना कि इस हिंसा ने देश को घुटनों पर ला दिया है. हालांकि उन्होंने इस्तीफा देने की मांग खारिज कर दी. चीन के समर्थक माने जाने वाले सोगावारे ने दावा किया कि 2019 में उन्होंने सोलोमन की कूटनीतिक प्रतिबद्धता ताइवान के बदले चीन के साथ रखने का फैसला किया था, जिससे कई विदेशी ताकतें नाखुश हैं और वही इस हिंसा के पीछे हैं.
ऑस्ट्रेलिया के सार्वजनिक समाचार चैनल एबीसी को उन्होंने बताया, "दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह हिंसा अन्य ताकतों द्वारा प्रायोजित है. मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता. हम जानते हैं कि वे कौन हैं.”
बहुत से लोगों ने इस हिंसा के लिए महामारी के असर से फैली आर्थिक हताशा को जिम्मेदार ठहराया है. कुछ लोग देश के सबसे अधिक आबादी वाले द्वीप मालाइता की एक अन्य केंद्रीय द्वीप ग्वादलकनाल से प्रतिद्वन्द्विता को भी हिंसा की वजह मान रहे हैं. सरकारी अमला ग्वादलकनाल द्वीप पर रहता है जबकि अधिकतर आबादी मालाइता में है.
ऑस्ट्रेलिया की गृह मंत्री कैरन ऐंड्रयूज ने कहा कि उनकी तरफ से भेजे गए 100 सैनिक और पुलिस अफसरों का मकसद कानून-व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना है. उन्होंने स्काई न्यूज को बताया, "वहां हालत काफी नाजुक है. अभी तो हम यही जानते हैं कि पिछले दो दिन से दंगे बहुत तेजी से भड़के हैं.” ऐंड्रयूज ने स्पष्ट किया कि ऑस्ट्रेलियाई सुरक्षाबल एयरपोर्ट और बंदरगाहों जैसी अहम इमारतों की सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे.
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क्यों भड़की हिंसा
लगभग सात लाख लोगों के देश सोलोमन में राजनीतिक और नस्लीय तनाव दशकों पुराना है. ताजा हिंसा तब भड़की जब बुधवार को बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर आए. उन्होंने संसद को घेर लिया और उसकी एक बाहरी इमारत को आग लगा दी. वे लोग प्रधानमंत्री सोगावारे के इस्तीफे की मांग कर रहे थे.
इस प्रदर्शन के बाद लाठियां और अन्य हथियार लिए युवा सड़कों पर निकल गए और दंगा शुरू हो गया. उन्होंने बाजारों में लूटपाट की और पुलिस के साथ झड़पें हुईं. गुरुवार को लोगों ने लॉकडाउन के आदेशों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया और सरेआम लूटपाट शुरू कर दी.
चीन ने भी सोलोमन द्वीप के हालात पर चिंता जताई है. वहां के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता जाओ लीजियान ने कहा कि सोलोमन सरकार को चीनी नागरिकों और संस्थाओं की सुरक्षा के लिए सभी जरूरी कदम उठाने चाहिए.
तनाव का इतिहास
1990 के दशक में ग्वादलकनाल में कुछ उग्रवादियों ने वहां बसे मलाइता के लोगों पर हमले करने शुरू कर दिए थे जिसके बाद देश में गंभीर तनाव फैल गया जो करीब पांच साल तक रहा. यह तनाव तब कम हुआ ऑस्ट्रेलिया के नेतृत्व वाले शांति मिशन ‘रीजनल असिस्टेंस मिशन' को तैनात किया गया. 2003 से यह शांति मिशन 2017 तक तैनात रहा.
मलाइता के लोग लगातार यह शिकायत करते रहे हैं कि केंद्र सरकार उनके द्वीप की अनदेखी करती है. सोगावारे के चीन के पक्ष में जाने से तनाव और बढ़ा है. मलाइता के नेता इस बात के खिलाफ हैं और वे अब भी ताइवान के अधिकारियों के साथ संपर्क बनाए हुए हैं. इसके चलते इस द्वीप को अब भी ताइवान और चीन से मदद मिलती है.
प्रांत के मुख्यमंत्री डेनियल स्वीदानी ने प्रधानमंत्री सोगावारे पर ‘बीजिंग की जेब में रहने' का आरोप लगाया. उन्होंने कहा, "प्रधानमंत्री ने सोलोमन के लोगों के हितों के विपरीत विदेशियों के हितों को तरजीह दी. लोग अंधे नहीं हैं और धोखाधड़ी को और ज्यादा सहन नहीं करेंगे.”
विशेषज्ञों का मानना है कि भू-राजनीतिक तनाव ताजा हिंसा की प्राथमिक वजह नहीं है लेकिन इसने अपना असर जरूर डाला है. ऑस्ट्रेलिया के लोवी इंस्टीट्यूट में प्रशांत मामलों की विशेषज्ञ मिहाई सोरा ने बताया, "किसी नेता के साथ इन विशाल ताकतों की गतिविधियां पहले से नाजुक हालात झेल रहे देश में अस्थिरता तो फैलाती हैं. लेकिन मौजूदा संदर्भ कोविड आपातकाल और महामारी के कारण हुई आर्थिक परेशानियां भी हैं.
वीके/एए (एएफपी, रॉयटर्स)
देखेंः चीन-ताइवान झगड़े की जड़
कैसे शुरू हुआ ताइवान और चीन के बीच झगड़ा
1969 में साम्यवादी चीन को चीन के रूप में मान्यता मिली. तब से ताइवान को चीन अपनी विद्रोही प्रांत मानता है. एक नजर डालते हैं दोनों देशों के उलझे इतिहास पर.
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जापान से मुक्ति के बाद रक्तपात
1945 में दूसरे विश्वयुद्ध के खत्म होने के साथ ही जापानी सेना चीन से हट गई. चीन की सत्ता के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के नेता माओ त्सेतुंग और राष्ट्रवादी नेता चियांग काई-शेक के बीच मतभेद हुए. गृहयुद्ध शुरू हो गया. राष्ट्रवादियों को हारकर पास के द्वीप ताइवान में जाना पड़ा. चियांग ने नारा दिया, हम ताइवान को "आजाद" कर रहे हैं और मुख्य भूमि चीन को भी "आजाद" कराएंगे.
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चीन की मजबूरी
1949 में ताइवान के स्थापना के एलान के बाद भी चीन और ताइवान का संघर्ष जारी रहा. चीन ने ताइवान को चेतावनी दी कि वह "साम्राज्यवादी अमेरिका" से दूर रहे. चीनी नौसेना उस वक्त इतनी ताकतवर नहीं थी कि समंदर पार कर ताइवान पहुंच सके. लेकिन ताइवान और चीन के बीच गोली बारी लगी रहती थी.
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यूएन में ताइपे की जगह बीजिंग
1971 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने चीन के आधिकारिक प्रतिनिधि के रूप में सिर्फ पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को चुना. इसके साथ ही रिपब्लिक ऑफ चाइना कहे जाने वाले ताइवान को यूएन से विदा होना पड़ा. ताइवान के तत्कालीन विदेश मंत्री और यूएन दूत के चेहरे पर इसकी निराशा साफ झलकी.
तस्वीर: Imago/ZUMA/Keystone
नई ताइवान नीति
एक जनवरी 1979 को चीन ने ताइवान को पांचवा और आखिरी पत्र भेजा. उस पत्र में चीन के सुधारवादी शासक डेंग शिआयोपिंग ने सैन्य गतिविधियां बंद करने और आपसी बातचीत को बढ़ावा देने व शांतिपूर्ण एकीकरण की पेशकश की.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/UPI
"वन चाइना पॉलिसी"
एक जनवरी 1979 के दिन एक बड़ा बदलाव हुआ. उस दिन अमेरिका और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के बीच आपसी कूटनीतिक रिश्ते शुरू हुए. जिमी कार्टर के नेतृत्व में अमेरिका ने स्वीकार किया कि बीजिंग में ही चीन की वैधानिक सरकार है. ताइवान में मौजूद अमेरिकी दूतावास को कल्चरल इंस्टीट्यूट में तब्दील कर दिया गया.
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"एक चीन, दो सिस्टम"
अमेरिकी राष्ट्रपति कार्टर के साथ बातचीत में डेंग शिआयोपिंग ने "एक देश, दो सिस्टम" का सिद्धांत पेश किया. इसके तहत एकीकरण के दौरान ताइवान के सोशल सिस्टम की रक्षा का वादा किया गया. लेकिन ताइवान के तत्कालीन राष्ट्रपति चियांग चिंग-कुओ ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. 1987 में ताइवानी राष्ट्रपति ने एक नया सिद्धांत पेश किया, जिसमें कहा गया, "बेहतर सिस्टम के लिए एक चीन."
तस्वीर: picture-alliance/Everett Collection
स्वतंत्रता के लिए आंदोलन
1986 में ताइवान में पहले विपक्षी पार्टी, डेमोक्रैटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) की स्थापना हुई. 1991 के चुनावों में इस पार्टी ने ताइवान की आजादी को अपने संविधान का हिस्सा बनाया. पार्टी संविधान के मुताबिक, ताइवान संप्रभु है और पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का हिस्सा नहीं है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Yeh
एक चीन का पेंच
1992 में हॉन्ग कॉन्ग में बीजिंग और ताइपे के प्रतिनिधियों की अनऔपचारिक बैठक हुई. दोनों पक्ष आपसी संबंध बहाल करने और एक चीन पर सहमत हुए. इसे 1992 की सहमति भी कहा जाता है. लेकिन "एक चीन" कैसा हो, इसे लेकर दोनों पक्षों के मतभेद साफ दिखे.
तस्वीर: Imago/Xinhua
डीपीपी का सत्ता में आना
सन 2000 में पहली बार विपक्षी पार्टी डीपीपी के नेता चेन शुई-बियान ने राष्ट्रपति चुनाव जीता. मुख्य चीन से कोई संबंध न रखने वाले इस ताइवान नेता ने "एक देश दोनों तरफ" का नारा दिया. कहा कि ताइवान का चीन से कोई लेना देना नहीं है. चीन इससे भड़क उठा.
तस्वीर: Academia Historica Taiwan
"एक चीन के कई अर्थ"
चुनाव में हार के बाद ताइवान की केमटी पार्टी ने अपने संविधान में "1992 की सहमति" के शब्द बदले. पार्टी कहने लगी, "एक चीन, कई अर्थ." अब 1992 के समझौते को ताइवान में आधिकारिक नहीं माना जाता है.
तस्वीर: AP
पहली आधिकारिक मुलाकात
चीन 1992 की सहमति को ताइवान से रिश्तों का आधार मानता है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 2005 में पहली बार ताइवान की केएमटी पार्टी और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेताओं की मुलाकात हुई. चीनी राष्ट्रपति हू जिन्ताओ (दाएं) और लियान झान ने 1992 की सहमति और एक चीन नीति पर विश्वास जताया.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Reynolds
"दिशा सही है"
ताइवान में 2008 के चुनावों में मा यिंग-जेऊ के नेतृत्व में केएमटी की जीत हुई. 2009 में डॉयचे वेले को दिए एक इंटरव्यू में मा ने कहा कि ताइवान जलडमरूमध्य" शांति और सुरक्षित इलाका" बना रहना चाहिए. उन्होंने कहा, "हम इस लक्ष्य के काफी करीब हैं. मूलभूत रूप से हमारी दिशा सही है."
तस्वीर: GIO
मा और शी की मुलाकात
नवंबर 2015 में ताइवानी नेता मा और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात हुई. दोनों के कोट पर किसी तरह का राष्ट्रीय प्रतीक नहीं लगा था. आधिकारिक रूप से इसे "ताइवान जलडमरूमध्य के अगल बगल के नेताओं की बातचीत" कहा गया. प्रेस कॉन्फ्रेंस में मा ने "दो चीन" या "एक चीन और एक ताइवान" का जिक्र नहीं किया.
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आजादी की सुगबुगाहट
2016 में डीपीपी ने चुनाव जीता और तसाई इंग-वेन ताइवान की राष्ट्रपति बनीं. उनके सत्ता में आने के बाद आजादी का आंदोलन रफ्तार पकड़ रहा है. तसाई 1992 की सहमति के अस्तित्व को खारिज करती हैं. तसाई के मुताबिक, "ताइवान के राजनीतिक और सामाजिक विकास में दखल देने चीनी की कोशिश" उनके देश के लिए सबसे बड़ी बाधा है. (रिपोर्ट: फान वांग/ओएसजे)