म्यांमार से जान बचाकर बांग्लादेश आए रोहिंग्या मुसलमान तीन साल बाद भी कैंपों में रहने को मजबूर हैं. कैंप में भीड़ है और अब तो महामारी का खतरा भी है.
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25 अगस्त को रोहिंग्या मुसलमान चरमपंथियों द्वारा किए गए हमले की तीसरी वर्षगांठ है, जिसके बाद म्यांमार की सेना ने बदले की कार्रवाई करते हुए रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ अभियान छेड़ा था. बौद्ध बहुसंख्यक देश से अगले कुछ हफ्तों तक रोहिंग्या मुसलमान पड़ोसी देश बांग्लादेश की ओर पलायन कर गए. इनकी संख्या 7.3 लाख बताई गई. म्यांमार के सीमावर्ती रखाइन प्रांत से अधिकतर रोहिंग्या शरण के लिए बांग्लादेश गए थे. कुछ लोग मलेशिया और इंडोनेशिया की तरफ भी गए थे.
ऐसा कहा जाता है कि चरमपंथियों ने रखाइन प्रांत में 30 पुलिस चौकियों और सेना के अड्डे पर हमला किया था. उस समय सेना और सरकार ने कहा था कि हमले में कम से कम 12 सुरक्षाकर्मी मारे गए. म्यांमार की सेना ने तत्काल रोहिंग्या मुसलमान वाले इलाके में कार्रवाई की जिसके बाद 7.3 लाख लोगों को मजबूर होकर बांग्लादेश जाना पड़ा और तीन साल के गुजरने के बाद भी रोहिंग्या कैंप में ही रह रहे हैं.
संयुक्त राष्ट्र के जांचकर्ताओं ने बाद में पाया कि म्यांमार की सेना ने "नरसंहार के इरादे" से अभियान चलाया था. म्यांमार इससे इनकार करता आया है और उसकी दलील है कि सेना चरमपंथियों से लड़ रही थी. बांग्लादेश में रोहिंग्या भीड़भाड़ वाले कैंपों और कम संसाधनों के साथ रह रहे हैं. बांग्लादेश में पहले से ही हिंसा पीड़ित दो लाख रोहिंग्या मुसलमान रह रहे थे और करीब 7.3 लाख लोग 2017 के बाद वहां पहुंच गए.
कैंप में जीवन
बांग्लादेश के कॉक्स बाजार में सबसे अधिक संख्या में रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं. यूएन की रिफ्यूजी एजेंसी, बांग्लादेश सरकार और आप्रवासियों के लिए अंतरराष्ट्रीय संगठन के मुताबिक दस लाख के करीब रोहिंग्या मुसलमान पांच कैंपों में रहते हैं. आधे से अधिक शरणार्थी बच्चे हैं और पुरुषों के मुकाबले महिलाएं अधिक हैं. कैंपों में रहने वाले शरणार्थियों को यूनए की एजेंसियां, राष्ट्रीय सहायता समूहों और बांग्लादेश की सरकार खाना, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य मूलभूत सुविधाएं देती हैं, जैसे कि सामुदायिक शौचालयय और पीने का पानी.
कैंपों में करीब तीन साल से रहने वाले शरणार्थियों को बाहर जाने के लिए सरकार की इजाजत चाहिए होती है और वे काम नहीं कर सकते हैं. पिछले साल बांग्लादेश की सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए कैंपों में हाई स्पीड इंटरनेट सेवा पर रोक लगा दी थी. इसी साल जनवरी में बांग्लादेश की सरकार ने 14 साल की उम्र के बच्चों के लिए औपचारिक शिक्षा की मंजूरी दी थी, बच्चे म्यांमार के पाठ्यक्रम के मुताबिक शिक्षा हासिल कर सकते हैं उनसे ऊपर के उम्र के लड़कों के लिए कौशल प्रशिक्षण दिया जाएगा.
रोहिंग्या मुसलमानों के कैंपों में कोरोना वायरस महामारी का भी संकट है. भीड़ वाले कैंपों में सामाजिक दूरी और साफ सफाई बहुत मुश्किल है. 14 मई को कैंपों में कोरोना वायरस का पहला मामला सामने आया था. इस महामारी से कैंपों में अब तक छह लोगों की मौत हो चुकी है.
बांग्लादेश और म्यांमार के बीच शरणार्थियों की वापसी को लेकर सहमति हो चुकी है लेकिन उन्हें वापस भेजने की प्रक्रिया असफल हो चुकी है क्योंकि रोहिंग्या मुसलमानों को डर है कि अगर वे लौटते हैं तो उनके साथ और हिंसा हो सकती है.
म्यांमार के पश्चिमी रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों की आबादी लगभग दस लाख है. लेकिन उनकी जिंदगी प्रताड़ना, भेदभाव, बेबसी और मुफलिसी से ज्यादा कुछ नहीं है. आइए जानते हैं, कौन हैं रोहिंग्या लोग.
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इनका कोई देश नहीं
रोहिंग्या लोगों का कोई देश नहीं है. यानी उनके पास किसी देश की नागरिकता नहीं है. रहते वो म्यामांर में हैं, लेकिन वह उन्हें सिर्फ गैरकानूनी बांग्लादेशी प्रवासी मानता है.
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सबसे प्रताड़ित लोग
म्यांमार के बहुसंख्यक बौद्ध लोगों और सुरक्षा बलों पर अक्सर रोहिंग्या मुसलमानों को प्रताड़ित करने के आरोप लगते हैं. इन लोगों के पास कोई अधिकार नहीं हैं. संयुक्त राष्ट्र उन्हें दुनिया का सबसे प्रताड़ित जातीय समूह मानता है.
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आने जाने पर भी रोक
ये लोग न तो अपनी मर्जी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते हैं और न ही अपनी मर्जी काम कर सकते हैं. जिस जगह वे रहते हैं, उसे कभी खाली करने को कह दिया जाता है. म्यांमार में इन लोगों की कहीं सुनवाई नहीं है.
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बंगाली
ये लोग दशकों से रखाइन प्रांत में रह रहे हैं, लेकिन वहां के बौद्ध लोग इन्हें "बंगाली" कह कर दुत्कारते हैं. ये लोग जो बोली बोलते हैं, वैसी दक्षिणपूर्व बांग्लादेश के चटगांव में बोली जाती है. रोहिंग्या लोग सुन्नी मुसलमान हैं.
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जोखिम भरा सफर
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 2012 में धार्मिक हिंसा का चक्र शुरू होने के बाद से लगभग एक लाख बीस हजार रोहिंग्या लोगों ने रखाइन छोड़ दिया है. इनमें से कई लोग समंदर में नौका डूबने से मारे गए हैं.
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सामूहिक कब्रें
मलेशिया और थाइलैंड की सीमा के नजदीक रोहिंग्या लोगों की कई सामूहिक कब्रें मिली हैं. 2015 में जब कुछ सख्ती की गई तो नावों पर सवार हजारों रोहिंग्या कई दिनों तक समंदर में फंसे रहे.
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इंसानी तस्करी
रोहिंग्या लोगों की मजबूरी का फायदा इंसानों की तस्करी करने वाले खूब उठाते हैं. ये लोग अपना सबकुछ इन्हें सौंप कर किसी सुरक्षित जगह के लिए अपनी जिंदगी जोखिम में डालने को मजबूर होते हैं.
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बांग्लादेश में आसरा
म्यांमार से लगने वाले बांग्लादेश में लगभग आठ लाख रोहिंग्या लोग रहते हैं. इनमें से ज्यादातर ऐसे हैं जो म्यांमार से जान बचाकर वहां पहुंचे हैं. बांग्लादेश में हाल में रोहिंग्याओं को एक द्वीप पर बसाने की योजना बनाई है.
तस्वीर: Reuters/M.P.Hossain
आसान नहीं शरण
बांग्लादेश कुछ ही रोहिंग्या लोगों को शरणार्थी के तौर पर मान्यता देता है. वो नाव के जरिए बांग्लादेश में घुसने की कोशिश करने वाले बहुत से रोहिंग्या लोगों को लौटा देता है.
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दर ब दर
बाग्लादेश के अलावा रोहिंग्या लोग भारत, थाईलैंड, मलेशिया और चीन जैसे देशों का भी रुख कर रहे हैं.
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सुरक्षा के लिए खतरा
म्यांमार में हुए हालिया कई हमलों में रोहिंग्या लोगों को शामिल बताया गया है. उनके खिलाफ होने वाली कार्रवाई के जवाब में सुरक्षा बलों का कहना है कि वो इस तरह के हमलों को रोकना चाहते हैं.
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मानवाधिकार समूहों की अपील
मानवाधिकार समूह म्यांमार से अपील करते हैं कि वो रोहिंग्या लोगों को नागरिकता दे और उनका दमन रोका जाए.
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कानूनी अड़चन
म्यांमार में रोहिंग्या लोगों को एक जातीय समूह के तौर पर मान्यता नहीं है. इसकी एक वजह 1982 का वो कानून भी है जिसके अनुसार नागरिकता पाने के लिए किसी भी जातीय समूह को यह साबित करना है कि वो 1823 के पहले से म्यांमार में रह रहा है.
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आलोचना
रोहिंग्या लोगों की समस्या पर लगभग खामोश रहने के लिए म्यांमार में सत्ताधारी पार्टी की नेता आंग सान सू ची की अक्सर आलोचना होती है. माना जाता है कि वो इस मुद्दे पर ताकतवर सेना से नहीं टकराना चाहती हैं. सू ची हेग को अंतरराष्ट्रीय अदालत में रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार से जुड़े आरोपों का सामना करने के लिए जाना पड़ा है.