भारत में कोरोना के खिलाफ टीका लगवाकर प्रवासी श्रमिक काम की तलाश में अपने राज्यों से निकल रहे हैं. महामारी के दौरान कई लाख लोग बेरोजगार हो गए थे.
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जैसे ही स्वास्थ्य कर्मचारी ने कार्तिक बिस्वास की बांह पर कोरोना का टीका लगाया, कार्तिक ने राहत की लंबी सांस ली. कार्तिक केरल के उन लोगों में शामिल हैं जो समाज के सबसे हाशिए पर हैं-प्रवासी मजदूर.
राज्य की सरकारें भारत के एक बड़े तबके को वैक्सीन देने की कोशिश में जुटी हुईं हैं, जिसे प्रवासी श्रमिक के तौर पर भी जाना जाता है.
हाल के हफ्तों में दक्षिणी तटीय राज्य के अधिकारी कार्यस्थलों पर कोरोना का टीका उपलब्ध करा रहे हैं. अधिकारी कोशिश कर रहे हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग टीका लें. इसके लिए टीकाकरण केंद्र स्थापित किए जा रहे हैं, शिविर लगाए जा रहे हैं और स्थानीय भाषाओं में जन स्वास्थ्य के पोस्टर लगाए जा रहे हैं. इन सब के जरिए प्रवासी श्रमिकों को वायरस से बचने करने का आग्रह किया जा रहा है.
कितना खर्च हुआ कोविड के इलाज पर
एक नए अध्ययन में पाया गया है कि भारत में कोविड के इलाज पर हुआ औसत खर्च आम आदमी की सालाना आय से परे है. आइए जानते हैं आखिर कितना खर्च सामने आया इस अध्ययन में.
तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
भारी खर्च
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया और ड्यूक ग्लोबल हेल्थ इंस्टिट्यूट के इस अध्ययन में सामने आया कि अप्रैल 2020 से जून 2021 के बीच एक औसत भारतीय परिवार ने जांच और अस्पताल के खर्च पर कम से कम 64,000 रुपए खर्च किए. अध्ययन के लिए दामों के सरकार द्वारा तय सीमा को आधार बनाया गया है.
तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
महीनों की कमाई
भारत में एक औसत वेतन-भोगी, स्वरोजगार वाले या अनियमित कामगार के लिए कोविड आईसीयू का खर्च कम से कम उसके सात महिने की कमाई के बराबर पाया गया. अनियमित कामगारों पर यह बोझ 15 महीनों की कमाई के बराबर है.
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आय के परे
आईसीयू में भर्ती कराने के खर्च को 86 प्रतिशत अनियमित कामगारों, 50 प्रतिशत वेतन भोगियों और स्वरोजगार करने वालों में से दो-तिहाई लोगों की सालाना आय से ज्यादा पाया गया. इसका मतलब एक बड़ी आबादी के लिए इस खर्च को उठाना मुमकिन ही नहीं है.
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सिर्फ आइसोलेशन भी महंगा
सिर्फ अस्पताल में आइसोलेशन की कीमत को 43 प्रतिशत अनियमित कामगार, 25 प्रतिशत स्वरोजगार वालों और 15 प्रतिशत वेतन भोगियों की सालाना कमाई से ज्यादा पाया गया. अध्ययन में कोविड की वजह से आईसीयू में रहने की औसत अवधि 10 दिन और घर पर आइसोलेट करने की अवधि को सात दिन माना गया.
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महज एक जांच की कीमत
निजी क्षेत्र में एक आरटीपीसीआर टेस्ट की अनुमानित कीमत, यानी 2,200 रुपए, एक अनियमित कामगार के एक हफ्ते की कमाई के बराबर पाई गई. अमूमन अगर कोई संक्रमित हो गया तो एक से ज्यादा बार टेस्ट की जरूरत पड़ती है. साथ ही परिवार में सबको जांच करवानी होगी, जिससे परिवार पर बोझ बढ़ेगा.
अध्ययन में कहा गया कि इन अनुमानित आंकड़ों को कम से कम खर्च मान कर चलना चाहिए, क्योंकि सरकार रेटों में कई अपवाद हैं और इनमें से अधिकतर का पालन भी नहीं किया जाता. इनमें यातायात, अंतिम संस्कार आदि पर होने वाले खर्च को भी नहीं जोड़ा गया है.
44 साल के बिस्वास कहते हैं, "मैं लॉकडाउन के दौरान एक साल के लिए घर पर था और मुझे बहुत मुश्किल के बाद नौकरी मिली है. अगर मेरी तबीयत खराब होती तो मेरे परिवार का कौन ख्याल रखेगा. मैं टीका लगवाने के लिए दृढ़ था."
बार-बार तालाबंदी ने उद्योग-धंधे को बंद ठप्प कर दिया, जिससे लाखों लोगों की नौकरी चली गई, जबकि मई में कोरोना की दूसरी लहर ने भारत में स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को प्रभावित किया.
काम की तलाश में लौटते प्रवासी
प्रवासी श्रमिक महामारी के दौरान सबसे ज्यादा प्रभावित हुए. महामारी के दौरान लाखों प्रवासी मजदूर अपने गृह राज्यों की ओर लौट गए. वे शहरों में रहकर बिना कमाए किराए देने और खाना खरीदने में असमर्थ थे.
हालांकि राज्यों द्वारा पाबंदियों में ढील के कारण अधिकांश आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू हो गई हैं. स्वतंत्र थिंक-टैंक के आंकड़े बताते हैं कि इसी के साथ बेरोजगारी दर धीरे-धीरे गिर रही है.
आंध्र प्रदेश में एक मल्टीप्लेक्स में काम कर चुके ताहिर हुसैन तालुकदार की नौकरी लॉकडाउन के दौरान चली गई. असम के एक गांव के रहने वाले 25 साल के तालुकदार बताते हैं कि उनके गांव में काम नहीं है और जब वे ठेकेदार को काम के लिए फोन करते हैं तो उन्हें वैक्सीन लेकर आने को कहा जाता है. तालुकदार के मुताबिक, "मुझे काम के लिए वैक्सीन चाहिए. नहीं तो मुझे कोई काम नहीं देगा."
एए/सीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
कोविड काल में रूप बदलती बार्बी
1959 में दुनिया में आने के बाद से उसने दर्जनों रूप बदले हैं. आजकल वह कोविड से जूझती दुनिया के रूप अपना रही है. मिलिए, कोविड में बार्बी से...
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कोविड में बार्बी, एक वैज्ञानिक
दुनियाभर में मशहूर गुड़िया बार्बी के बनानेवालों ने इसे एक नए रूप में पेश किया है. कोविड-19 महामारी के खिलाफ लड़ने के लिए दिन रात मेहनत कर रहे वैज्ञानिकों के सम्मान में बार्बी को एक ब्रिटिश वैज्ञानिक का रूप दिया गया है. यह वैज्ञानिक हैं सारा गिल्बर्ट जिन्होंने वैक्सीन बनाने में अहम भूमिका निभाई.
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पहली बार्बी
9 मार्च 1959 को पहली बार्बी गुड़िया बाजार में आई थी. मैटल कंपनी की यह गुड़िया सुनहरे बालों और पतली कमर वाली थी, जिसे यूरोपीय लड़कियों जैसा बनाया गया था.
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प्यारी यादें
बार्बी ने दशकों से अनगिनत बच्चों के बचपन को यादों से भरा है. जाने कितने ही बच्चों के कमरों का यह अहम हिस्सा रही है. बार्बी के साथ उसका बॉयफ्रेंड केन भी एक अहम किरदार रहा है.
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कोई मुकाबला नहीं
बार्बी और केन 1980 के दशक में बड़ी हुईं तमाम लड़कियों की जिंदगी का अहम हिस्सा रहे. कई कंपनियों ने बार्बी का मुकाबला करने की कोशिश की, जैसे जर्मनी में बनी पेट्रा जो काफी कोशिशों के बाद भी बार्बी की जगह नहीं ले पाई.
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बदलते रूप
1980 के दशक में ही बार्बी का मेकओवर भी हुआ. उसे बनाने वाली कंपनी मैटल ने करियर लाइन के रूप में बार्बी के कई अलग-अलग अवतार उतारे जैसे कि एस्ट्रोनॉट, डॉक्टर, टीचर, आर्किटेक्ट आदि.
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विविधता
साल 2000 के बाद बार्बी में बड़ा बदलाव आया. अब उसका रूप एक मॉडल जैसा ना होकर एक मध्यवर्गीय कामकाजी महिला जैसा हो गया. उसके कपड़े भी चकमदार नहीं बल्कि व्यवहारिक हो गए. 2016 में मैटल ने बार्बी को चार अलग-अलग आकारों में भी पेश किया जिनमें दुबले पतले से लेकर सामान्य तक शामिल थे.
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बदलता वक्त
2017 में बार्बी ने पहली बार हिजाब पहना. वह रियो ओलंपिक में शामिल हुईं अमेरिका की तलवारबाज इब्तिहाज मुहम्मद के रूप पर बनाई गई थी.
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दुनियाभर में चाहने वाले
केन्या में बार्बी कोई शहरी आधुनिक लिबास वाली लड़की नहीं बल्कि अफ्रीका के पारंपरिक लिबास पहने एक लड़की थी.
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विफल भी रही बार्बी
बार्बी के कई रूप विफल भी रहे. जैसे फ्रीडा काल्हो वाला रूप जिस कारण मैटल को अदालत भी जाना पड़ा, जब उस पर कॉपीराइट के उल्लंघन का आरोप लगा. मैटल को उसे वापस लेना पड़ा.
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2019 के बाद
बार्बी के विशेषांक भी लोकप्रिय रहे हैं. जैसे 2019 में बार्बी को व्हील चेयर पर या एक नकली टांग लगाए बनाया गया.