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आर्किटेक्चरभारत

क्या बेंगलुरू अब एक मरता हुआ शहर है?

१५ सितम्बर २०२२

बेंगलुरु में ढांचा चरमरा चुका है. एक तेज बारिश ने दिखा दिया कि शहर ने बीते दो दशक में हुई तरक्की की कितनी भारी कीमत चुकाई है. क्या यह शहर अब मरने लगा है?

बेंगलुरु की बाढ़
बेंगलुरु की बाढ़तस्वीर: Kashif Masood/AP/picture alliance

हरीश पुल्लानूर याद करते हैं कि 1980 के दशक में उनका बचपन बेंगलुरू के पूर्वी सिरे पर येमालुर में तालाबों और छोटी झीलों के बीच गुजरा है. वहां इतवार को वह अपने चचेरे भाई-बहनों के साथ मछलियां पकड़ा करते थे.

बागों, झीलों और ठंडे मौसम वाला शहर बेंगलुरू 1990 के दशक में भारत का सबसे तेजी से उभरता शहर बना. उसने अमेरिका की सिलीकन वैली को चुनौती दी और भारत के लिए आर्थिक केंद्र बनाकर लाखों लोगों को रोजगार दिया. तभी दुनिया की कुछ सबसे बड़ी आईटी कंपनियों ने यहां डेरा डाला और अपना अरबों का कारोबार खड़ा किया.  

इस तरक्की की कीमत कम नहीं थी. कंक्रीट ने हरियाली की जगह ले ली है. जंगलों और झीलों को इमारतों ने हड़प लिया है और नहरों के पानी में शहर की बढ़ती आबादी की प्यास बुझाने की क्षमता नहीं रही.

पिछले हफ्ते बेंगलुरू में बारिश हुईजिसने दशकों के रिकॉर्ड तो तोड़े ही साथ ही शहर की क्षमताएं भी तोड़ डालीं. येलामूर का इलाका कमर तक के पानी में डूबा हुआ था. भारत की सिलीकन वैली के नाम से मशहूर शहर के कई इलाकों की हालत ऐसी थी कि दुनियाभर के लोग तस्वीरें देखकर हैरान थे.

गर्मियों में पानी की कमी से परेशान रहने वाले बेंगलुरू के लोगों को अब हर मौसम में मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं. ऊपर से शहर का ट्रैफिक इतना बढ़ गया है कि सारी व्यवस्थाएं धराशायी हो रही हैं. ऐसे में मॉनसून की बारिश ने इस बात को उघाड़ कर रख दिया है कि बेंगलुरू का ढांचा चरमरा चुका हैऔर पिछले दो दशकों के बेसिरपैर के विकास ने इस इलाके की कुदरती क्षमताओं का दोहन कर उन्हें नष्ट करने का ही काम किया. 

बेंगलुरू में जन्मे और अब मुंबई में रहने वाले पुल्लानूर कहते हैं, "यह बहुत, बहुत ज्यादा दुखी करने वाली बात है. पेड़ खत्म हो गए हैं. पार्क लगभग गायब हो चुके हैं. ट्रैफिक तो ऐसा है कि जैसे गर्दन दबोच ली गई हो.”

चिंतित हैं कंपनियां

जिन बड़ी-बड़ी कंपनियों ने कभी बेंगलुरू को अपना ठिकाना बनाया था अब वे शिकायत करने लगी हैं कि ढांचे के कारण उनका कामकाज प्रभावित हो रहा है और हालत लगातार बदतर हो रही है. इन कंपनियों का कहना है कि खराब व्यवस्था के चलते उन्हें रोजाना दसियों करोड़ डॉलर का नुकसान होता है. 

बेंगालुरू में करोड़पतियों को भी घर छोड़कर भागना पड़ातस्वीर: Kashif Masood/AP/picture alliance

बेंगलुरु में 79 टेक-पार्क हैं जिनमें लगभग 3,500 आईटी कंपनियां काम करती हैं. भारत के सबसे होनहार आईटी एक्सपर्ट और इंजीनियर यहां काम करते हैं. यहीं उनके शानदार दफ्तर हैं और मनोरंजन करने के लिए रेस्तरां, कैफे, बाजार आदि भी. 

लेकिन पिछले हफ्ते जब पानी बरसा तो इन शानदार दफ्तरों तक पहुंचना दूभर हो गया. येमालुर में जेपी मॉर्गन और डेलॉयट जैसी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के दफ्तर हैं जिनके इर्द-गिर्द पानी के विशाल तालाब बन गए थे. लोगों के घरों, बेडरूम तक में पानी भर गया था. करोड़पतियों को अपने विशाल और शानदार लिविंग रूम छोड़-छोड़ कर भागना पड़ा. 

इंश्योरेंस कंपनियों का कहना है कि इस बारिश के कारण नुकसान का शुरुआती जायजा ही दसियों करोड़ रुपये का है और आने वाले दिनों में यह संख्या और बढ़ती जाएगी. 

असर अंतरराष्ट्रीय हुआ 

इन कुछ दिनों की बारिश का असर सिर्फ बेंगलुरू पर नहीं हुआ. लोगों को चिंता है कि 194 अरब डॉलर की भारतीय आईटी इंडस्ट्री पूरी दुनिया से जुड़ी है लिहाजा असर पूरी दुनिया पर होगा. नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज (नैसकॉम) के उपाध्यक्ष केएस विश्वनाथन कहते हैं, "भारत दुनियाभर की कंपनियों के लिए आईटी केंद्र है और बेंगलुरु उस केंद्र का भी केंद्र है.” 

विश्वनाथन बताते हैं कि नैसकॉम 15 ऐसे नए शहरों की पहचान में जुटा है जो देश के नए आईटी हब बन सकते हैं. वह बताते हैं, "यह कोई शहरों के बीच मुकाबले की बात नहीं है. एक देश के तौर पर हम इसलिए कमाई खोना नहीं चाहते कि शहर का मूलभूत ढांचा कमजोर है.”  

बारिश ने बेंगलुरू की जिस कमजोरी को उभारा है, उसकी चेतावनियां पहले से ही दी जाती रही हैं. इंटेल, गोल्डमन सैक्स, माइक्रोसॉफ्ट और विप्रो जैसी कंपनियों के संगठन आउटर रिंग रोड कंपनीज एसोसिएशन (ओरका) ने पहले भी कहा था कि शहर का मूलभूत ढांचा एक समस्या बन चुका है जिस कारण कंपनियां कहीं और भी जा सकती हैं.

ओरका के जनरल मैनेजर कृष्ण कुमार कहते हैं, "हम इसके बारे में सालों से बात कर रहे हैं. अब बात गंभीर हो चुकी है और सारी कंपनियां इससे सहमत हैं.” 

1970 के दशक में बेंगलुरू का 68 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा हरियाली में ढका था. बेंगलुरू के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के टीवी रामचंद्र बताते हैं कि 1990 के दशक में यह हरियाली 45 फीसदी रह गई और 2021 में शहर के 741 वर्गकिलोमीटर में से मात्र तीन प्रतिशत हरियाला है. रामचंद्र कहते हैं, "अगर ऐसा ही चलता रहा तो 2025 तक 98.5 प्रतिशत शहर सिर्फ कंक्रीट होगा.” 

वीके/सीके (रॉयटर्स)

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