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समाज

कूड़े बीनने वालों का क्या कोविड-19 के टीके पर हक नहीं

३० मार्च २०२१

दिल्ली के बाहरी इलाके में स्थित लैंडफिल साइट पर कूड़ा बीनने वाले धैर्य के साथ कूड़े से भरे ट्रक का इंतजार कर रहे हैं. उनके हाथों में प्लास्टिक की बोरियां हैं और वे नंगे हाथ से कचरे को अलग-अलग करेंगे.

तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Faget

हर दिन दिल्ली के भलस्वा लैंडफिल साइट पर 2,300 टन से अधिक कचरा डंप किया जाता है, जो कि 50 फुटबॉल मैदान से भी बड़ा है. कूड़े का अंबार इतना है कि यह 17 मंजिली इमारत को छू रहा है. और हर दिन इस पर अनौपचारिक श्रमिक कचरे को बीनने का काम करते हैं. ये दुनिया के उन दो करोड़ लोगों में शामिल हैं जो गरीब और अमीर देशों के शहरों को स्वच्छ रखने का जिम्मा उठाते हैं. लेकिन वे नगरपालिका कर्मचारियों के उलट आमतौर पर कोरोना वायरस वैक्सीन के लिए योग्य नहीं होते हैं और उनके लिए टीका प्राप्त करना मुश्किल होता है. गैर-लाभकारी संस्था चिंतन की चित्रा मुखर्जी कहती हैं, ''महामारी ने उन जोखिमों को बढ़ा दिया है जो ये अनौपचारिक कर्मचारी सामना करते हैं. कुछ ही लोगों के पास खुद के सुरक्षात्मक उपकरण या धोने के लिए साफ पानी है.'' मुखर्जी का कहना है, ''अगर उन्हें टीका नहीं लगाया जाता है तो इससे शहरों को नुकसान होगा.''

46 साल की मनुवारा बेगम दिल्ली के पांच सितारा होटल के पीछे एक झुग्गी बस्ती में रहती हैं और असमानता का एहसास करती हैं. चिंतन का अनुमान है कि बेगम जैसे लोग हर साल स्थानीय सरकार का पांच करोड़ डॉलर बचाते हैं और कचरे को लैंडफिल स्थलों से जाने से रोक कर करीब नौ लाख टन कार्बन डाई ऑक्साइड को खत्म करते हैं. फिर भी वे ''आवश्यक श्रमिक'' नहीं माने जाते हैं और वे टीकाकरण के लिए अयोग्य होते हैं. बेगम ने एक ऑनलाइन चाचिका अभियान की शुरुआत की है. वे वैक्सीन की गुहार लगा रही हैं और सवाल कर रही हैं कि क्या '' वे इंसान नहीं है?''

कूड़ों को अलग-अलग कर रिसाइक्लिंग में मदद करते हैं. तस्वीर: Imago Images/Zuma Press/H. Bhatt

दूसरी ओर दक्षिण अफ्रीका और जिम्बाब्वे में स्थानीय सरकारों की तरफ से रखे गए सफाई कर्मचारियों को स्वास्थ्य कर्मचारियों के बाद कोविड-19 वैक्सीन देने की तैयारी है. मेक्सिको में कूड़े के ट्रकों पर कूड़ा बीनने वाले नगर निगम के कर्मचारियों की मदद करते हैं और अक्सर नगर पालिका की तरफ से उन इलाकों में सफाई नहीं किए जाने पर वे अपनी सेवा देते हैं, कई बार वे काम के दौरान जख्मी भी होते हैं. उन्हें किसी तरह का लाभ सरकार की ओर से नहीं मिलता है.

सिंगापुर के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई अध्ययन में प्रोफेसर रॉबिन जेफरी कहते हैं वे अक्सर पहले से ही गरीब होते हैं और कचरे को छांटकर किसी तरह से अपनी आजीविका चलाते हैं. भारत में कचरे को छांटने का काम आमतौर पर दलित समुदाय के सदस्य या फिर गरीब मुसलमान करते हैं. देश में जाति प्रथा में एक समय में दलितों को अछूत माना जाता था.

भारत में 1 अप्रैल से 45 साल के ऊपर वाले सभी लोगों को वैक्सीन देने की योजना है. निजी अस्पतालों में वैक्सीन की हर खुराक की कीमत 250 रुपये है, लेकिन वे सरकारी अस्पतालों में मुफ्त है. भलस्वा लैंडफिल साइट के पास रहने वाली सायरा बानो की आमदनी कोरोना काल में आधी हो गई है. वे कहती हैं कि हम परिवार का पेट नहीं भर पा रहे हैं तो वैक्सीन कहां से खरीदेंगे. 37 साल की बानो एक समय में 400 रुपये एक दिन में कमाती थी लेकिन अब कमाई आधी हो गई है.

एए/सीके (एपी)

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