बंगाल में मोदी की गारंटी पर भारी पड़े ममता के वादे
४ जून २०२४पश्चिम बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के तमाम नेताओं ने अपने चुनाव अभियान में दूसरे मुद्दों के साथ ही मोदी की गारंटी को प्रमुख मुद्दा बनाया था. इसकी काट के तौर पर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने ममता की गारंटी शुरू की थी जिसके तहत सरकार की विभिन्न योजनाओं का प्रचार किया गया. नतीजों से साफ हो गया है कि मोदी की गारंटी पर ममता के वादे भारी साबित हुए हैं. यही वजह है कि भाजपा यहां पिछली बार जीती हुई अपनी सीटों को भी बचाने में नाकाम रही है.
चुनावी नतीजों ने यह भी बताया है कि तमाम कोशिशों के बावजूद तृणमूल कांग्रेस का महिला और अल्पसंख्यक वोट बैंक अटूट रहा है. बंगाल में टीएमसी का यह दूसरा बेहतरीन प्रदर्शन है. इससे पहले वर्ष 2014 में उसने 34 सीटें जीती थी.
पश्चिम बंगाल देश के उन चुनिंदा राज्यों में है जहां बीजेपी को अपनी सीटों में वृद्धि की उम्मीद थी. राज्य की 42 सीटों में से 18 उसके पास पहले से ही थी. उसने बाकी 24 में से कम से कम दस सीटें जीतने की रणनीति के साथ अपना चुनाव अभियान शुरू किया था. इसके लिए उसे चुनाव से पहले ही संदेशखाली जैसा एक ठोस मुद्दा भी हाथ लग गया था. उसके बाद बीजेपी संदेशखाली में महिलाओं के कथित यौन उत्पीड़न को अपने सियासी हित में भुनाने के लिए आक्रामक होकर मैदान में कूद पड़ी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पार्टी के केंद्रीय नेताओं ने भी इस मामले में पूरा सहयोग दिया और विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी को इस मामले में आंदोलन की खुली छूट दे दी.
खुद प्रधानमंत्री भी चुनाव की तारीख तय होने से पहले ही बंगाल के दौरे पर आए और संदेशखाली की कुछ कथित पीड़िताओं से मुलाकात कर उनको शक्तिस्वरूपा बताया था. उसके बाद शुभेंदु की सिफारिश पर उनमें से ही एक रेखा पात्रा को पार्टी ने बशीरहाट सीट पर अपना उम्मीदवार बना दिया. संदेशखाली इसी संसदीय क्षेत्र में है. दरअसल, बीजेपी इस मुद्दे के बहाने सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए ममता के मजबूत महिला वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती थी.
लेकिन एक स्टिंग वीडियो के सामने आने के बाद पूरा मामला ही बदल गया. उस वीडियो में बीजेपी के एक स्थानीय नेता ने बताया था कि यह पूरी घटना फर्जी है और किसी भी महिला के साथ रेप या यौन उत्पीड़न की घटना नहीं हुई. इस पूरे मामले के पीछे बीजेपी के नेता शुभेंदु अधिकारी का हाथ बताया गया था. उसके बाद ममता बनर्जी ने इसे हाथों-हाथ लेते हुए इसे बंगाल की महिलाओं की अस्मिता के साथ जोड़ दिया. वो इस बात का प्रचार करने लगी कि बीजेपी के नेताओं की निगाह में बंगाल की महिलाओं की अस्मत की कोई कीमत नहीं है. इसका असर ममता के मजबूत महिला वोट बैंक पर हुआ.
भाजपा को बंगाल में जिस नागरिकता संशोधन कानून से सबसे ज्यादा उम्मीद थी वह भी पूरी तरह फेल रहा. राज्य में एक करोड़ से ज्यादा मतुआ वोटर कई सीटों पर मतुआ वोटर निर्णायक हैं. उनको ध्यान में रखते हुए ही पार्टी ने यहां चुनाव से ठीक पहले इस कानून को लागू किया था. इसके उलट ममता बनर्जी इस कानून का इस्तेमाल अपने सियासी हित में करती रहीं. वो शुरू से ही कहने लगी कि बंगाल में किसी भी कीमत इस कानून को लागू नहीं होने दिया जाएगा. ममता और पार्टी के दूसरे नेता अपनी रैलियों में लगातार कहते रहे कि इस कानून के बाद ही भाजपा सरकार नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) ले आएगी और उसके बाद तमाम लोगों को घुसपैठिया साबित कर देश से खदेड़ दिया जाएगा. परस्पर विरोधी दावों के कारण इस कानून पर भ्रम की स्थिति पैदा होने की वजह से यह मुद्दा चुनाव में बेअसर साबित हुआ.
42 सीटों के लिए कई चरणों में और काफी देर से उम्मीदवारों की सूची जारी करने और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष जैसे नेताओं की जीती हुई सीट बदलना भी भाजपा के लिए महंगा साबित हुआ. इसके विपरीत ममता बनर्जी ने 10 मार्च को कोलकाता की ब्रिगेड परेड ग्राउंड में आयोजित रैली में एकमुश्त सभी सीटों के लिए उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी थी. इससे पार्टी को अपनी रणनीति बनाने और उसके तहत प्रचार के लिए बीजेपी के मुकाबले ज्यादा समय मिल गया. प्रदेश बीजेपी नेताओं में नए बनाम पुराने नेताओं के विवाद ने भी पार्टी की लुटिया डुबोने में अहम भूमिका निभाई है.
कांग्रेस के साथ तालमेल के तहत मैदान में उतरने वाली सीपीएम को इस बार भी कोई सीट नहीं मिली. उसके प्रदेश सचिव मोहम्मद सलीम मुर्शिदाबाद सीट पर हार गए. कांग्रेस को भी एक सीट का नुकसान उठाना पड़ा है.
कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका बंगाल की बहरमपुर सीट पर लगा है. वहां टीएमसी उम्मीदवार और हरफनमौला क्रिकेटर यूसुफ पठान ने लगातार पांच बार यह सीट जीतने वाले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी को हरा दिया है.
पूर्वोत्तर भारतीय राज्यों में बीजेपी का प्रदर्शन
जहां तक पूर्वोत्तर का सवाल है, मणिपुर में बीजेपी को बीते साल से जारी जातीय हिंसा का खामियाजा भुगतना पड़ा है. वहां एक सीट उसके पास थी और एक उसकी सहयोगी के पास. लेकिन दोनों सीटें उसके हाथ से निकल गई हैं. अरुणाचल प्रदेश में पार्टी ने विधानसभा में बहुमत पाने के साथ ही लोकसभा की दोनों सीटें भी जीत ली हैं. लेकिन इसमें कुछ अप्रत्याशित नहीं है. वहां विपक्ष के बिखराव ने उसकी राह आसान कर दी थी. राज्य में मुख्यमंत्री पेमा खांडू समेत दस विधायक तो पहले ही निर्विरोध चुन लिए गए थे. त्रिपुरा में भी पार्टी की जीत अप्रत्याशित नहीं है. इलाके के सबसे बड़े राज्य असम में पार्टी की स्थिति में खास बदलाव की उम्मीद नहीं है. पिछली बार उसने यहां नौ और इलाके की 25 में से 14 सीटें जीती थी. इस बार वह इसी आंकड़े के आसपास नजर आ रही है.
बीजेपी बंगाल के पड़ोसी ओडिशा में विधानसभा चुनाव में जीत को राहत मान सकती है. लेकिन वहां कई कारकों ने उसकी जीत में अहम भूमिका निभाई है. लोकसभा चुनाव में भी पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहा है. चुनाव नतीजों से पता चलता है कि ओड़िया अस्मिता को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने का बीजेपी का फैसला हिट हो गया है. राज्य के लोगों ने बीजू जनता दल (बीजद) में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के करीबी वी. के. पांडियन की बढ़ती भूमिका के खिलाफ वोट दिया है.
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर समीरन पाल डीडब्ल्यू से कहते हैं, "राज्य के लोगों ने एक बार फिर ममता बनर्जी और उनकी पार्टी पर ही भरोसा जताया है. संदेशखाली, भर्ती घोटाला और नागरिकता संशोधन कानून जैसे भाजपा के मुद्दे पूरी तरह बेअसर साबित हुए हैं. इसके अलावा धार्मिक ध्रुवीकरण का उसका प्रयास पहले की तरह इस बार भी बेअसर रहा. यह चुनाव मोदी बनाम ममता था और इसमें वर्ष 2021 की तरह बाजी एक बार फिर ममता के हाथ ही रही है."