दिल्ली और महाराष्ट्र से जुड़े मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों को उनकी शक्ति की सीमाएं याद दिलाने की कोशिश की है. साथ ही राज्यपालों और उप-राज्यपालों को जनमत द्वारा चुनी हुई सरकार का आदर करने की सीख भी दी है.
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दोनों ही मामलों के केंद्र में राजनीतिक खींचतान के अलावा केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति के संतुलन का एक संकट भी था, जिसे अपने दो अलग अलग फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने संबोधित करने की कोशिश की है. दिल्ली के मामले में सवाल दिल्ली की चुनी हुई सरकार और केंद्र द्वारा नियुक्त उप-राज्यपाल के बीच शक्तियों को लेकर खींचतान का था.
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने दोनों पक्षों को उनकी सीमाएं याद तो दिलाईं लेकिन यह स्पष्ट रूप से कहा कि चुनी हुई सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही होती है और इसलिए प्रशासन की असली शक्ति उसी के पास होनी चाहिए. लिहाजा, अदालत ने कहा कि सिर्फ तीन क्षेत्रों को छोड़ कर राष्ट्रीय राजधानी में चुनी हुई सरकार का प्रशासनिक सेवाओं के ऊपर लेजिस्लेटिव और एग्जेक्टिव नियंत्रण होना ही चाहिए.
जिन तीन क्षेत्रों को इस नियंत्रण से बाहर रखने के लिए बताया गया वो हैं पब्लिक आर्डर, पुलिस और भूमि. इस आदेश का सीधा संबंध दिल्ली में सरकारी अफसरों की नियुक्ति और तबादले से है. अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि आईएएस अफसर हों या संयुक्त काडर सेवाओं के अफसर, उनके ऊपर चुनी हुई सरकार का नियंत्रण है.
अदालत ने कहा कि सामूहिक जिम्मेदारी का सिद्धांत सरकारी अधिकारियों पर भी लागू होता है जो सरकार के मंत्रियों को रिपोर्ट करते हैं. अगर अफसर मंत्रियों को रिपोर्ट करना बंद कर दें या उनके निर्देश नहीं मानें तो सामूहिक जिम्मेदारी के पूरे सिद्धांत पर असर पड़ता है.
अदालत ने माना कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है और इस वजह से सरकार के पास पूर्ण राज्य की सरकारों जैसी शक्तियां नहीं हैं. लेकिन अदालत ने कहा कि इसके बावजूद इस फैसले की रोशनी में उप-राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही काम करने को बाध्य हैं.
दिल्ली में 'आम आदमी पार्टी' सरकार ने इस फैसले का स्वागत किया है. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि उनकी पार्टी पिछले आठ सालों से इस मुद्दे पर लड़ रही थी और इस दौरान केंद्र को यह शक्ति देने वाले सुप्रीम कोर्ट के पिछले आदेश का इस्तेमाल कर दिल्ली में काम को रोका गया.
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केजरीवाल ने कहा कि अब अगले कुछ दिनों में दिल्ली के प्रशासन में भारी बदलाव लाए जाएंगे, जिनके तहत भ्रष्ट अफसरों को हटाया जाएगा, ईमानदार अफसरों को नियुक्त किया जाएगा और अनावश्यक पदों को या तो रद्द कर दिया जाएगा या रिक्त रख दिया जाएगा.
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महाराष्ट्र का मामला
महाराष्ट्र का मामला पूरी तरह से राजनीतिक था लेकिन उसमें भी मूल सवाल केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति के संतुलन का था. जून 2022 में शिवसेना दो धड़ों में बंट गई, उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी की गठबंधन सरकार गिर गई और शिवसेना के दूसरे धड़े के नेता के रूप में एकनाथ शिंदे ने बीजेपी के साथ मिल कर सरकार बना की.
बाद में विधानसभा के उपाध्यक्ष ने शिंदे गुट के विधायकों को अयोग्यता का नोटिस भेज दिया. सुप्रीम कोर्ट के सामने उस समय सवाल था कि इन विधायकों को सदन की सदस्यता से अयोग्य करार दिया जाए या नहीं. अदालत ने बाद में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को सदन में विश्वास मत कराने का आदेश देने की अनुमति दे दी.
ठाकरे ने विश्वास मत से पहले ही इस्तीफा दे दिया और उनकी सरकार गिर गई. उसके बाद ठाकरे की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं डाली गईं. इनमें से एक में उनके द्वारा विश्वास मत के लिए विधानसभा का सत्र बुलाने के आदेश को भी चुनौती दी गई.
इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया किराज्यपाल का वह फैसला गलत था. राज्यपाल ने वह फैसला शिंदे गुट के 34 विधायकों के अनुरोध पर लिया था. अदालत ने कहा कि यह गलत था क्योंकि राज्यपाल के पास यह निर्णय करने के लिए पर्याप्त तथ्य नहीं थे कि उद्धव ठाकरे ने सदन का विश्वास खो दिया है.
अदालत ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल को ठाकरे सरकार के बहुमत पर संदेह नहीं करना चाहिए था और कुछ विधायकों की असंतुष्टि विश्वास मत का आदेश देने के लिए काफी नहीं थी. अदालत ने कहा कि राज्यपाल को पार्टियों के अंदरूनी झगड़ों में नहीं पड़ना चाहिए और व्यक्तिपरक आधार की जगह वस्तुनिष्ठ आधार पर फैसला लेना चाहिए.
हालांकि अदालत ने यह भी साफ किया कि इस मामले में अब कुछ किया नहीं जा सकता क्योंकि ठाकरे ने विश्वास मत का सामना करने की जगह खुद ही इस्तीफा दे दिया था. अदालत ने कहा कि इस लिहाज से शिंदे को मुख्यमंत्रिपद की शपथ दिलाने का राज्यपाल का फैसला सही था.
महाराष्ट्र में ठाकरे और शिंदे के नेतृत्व में दोनों ही पक्षों ने इस फैसले को अपनी अपनी जीत बताया है. मुख्यमंत्री शिंदे ने इसे शिवसेना और बालासाहेब ठाकरे की जीत बताया है लेकिन दूसरी तरफ ठाकरे ने कहा है कि इस फैसले के आधार पर शिंदे को नैतिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए और इस्तीफा दे देना चाहिए.
भारत में सत्ता और संवैधानिक संकट
राजस्थान में कांग्रेस विधायकों के विद्रोह के कारण एक संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया है, जिसमें स्पीकर को हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा. हाल में और किन राज्यों में हुआ है सत्ता को लेकर संवैधानिक संकट?
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Singh
मध्य प्रदेश
नवंबर 2018 में हुए विधान सभा चुनावों में जीत हासिल कर कांग्रेस ने सरकार बनाई गई थी और कमल नाथ मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन मार्च 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए और उनके साथ कांग्रेस के 22 विधायकों ने भी इस्तीफा दे दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कमल नाथ सरकार को फ्लोर टेस्ट का सामना करने का आदेश दिया. इसके कमल नाथ ने इस्तीफा दे दिया और शिवराज नए मुख्यमंत्री बने.
तस्वीर: imago images/Hindustan Times
कर्नाटक
2018 में हुए विधान सभा चुनावों के बाद राज्यपाल ने बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए निमंत्रण दे दिया. कांग्रेस इस कदम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई और आधी रात को अदालत में सुनवाई हुई. बाद में अदालत ने राज्यपाल के फैसले को गलत ठहराते हुए फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया. येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और जेडी (एस) के एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने.
तस्वीर: IANS
कर्नाटक (दोबारा)
जुलाई 2019 में जेडी (एस) और कांग्रेस के विधायकों के इस्तीफे से मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी की सरकार अल्पमत में आ गई. विधायक जब मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए तब अदालत ने स्पीकर को विधायकों का इस्तीफा मंजूर करने का आदेश दिया और बाद में उन्हें अयोग्य घोषित किए जाने से सुरक्षा भी प्रदान की. विधान सभा में फ्लोर टेस्ट हुआ और कुमारस्वामी की सरकार गिर गई. बीजेपी के येदियुरप्पा फिर से मुख्यमंत्री बन गए.
तस्वीर: picture-alliance/robertharding/S. Forster
महाराष्ट्र
नवंबर 2019 में महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों के नतीजे आ जाने के दो सप्ताह तक रही अनिश्चितता के बीच एक दिन अचानक राज्यपाल ने बीजपी नेता देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. कांग्रेस और एनसीपी ने राज्यपाल के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. अदालत के फ्लोर टेस्ट के आदेश देने पर फडणवीस ने इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस, एनसीपी और शिव सेना ने मिलकर सरकार बनाई.
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जम्मू और कश्मीर
जून 2018 में जम्मू और कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी की गठबंधन सरकार से बीजेपी के अचानक समर्थन वापस ले लेने से राजनीतिक और संवैधानिक संकट खड़ा हो गया. मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को इस्तीफा देना पड़ा. राज्य में राज्यपाल का शासन लगा दिया गया. छह महीने बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और अगस्त 2019 में केंद्र ने जम्मू और कश्मीर का राज्य का दर्जा ही खत्म कर दिया और उसकी जगह दो केंद्र-शासित प्रदेश बना दिए.
तस्वीर: Getty Images/S. Hussain
बिहार
जुलाई 2017 में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया और आरजेडी और कांग्रेस के साथ गठबंधन वाली अपनी ही सरकार गिरा दी. कुमार को बीजेपी के विधायकों का समर्थन मिल गया और राज्यपाल ने उन्हें फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का निमंत्रण दे दिया. आरजेडी ने पटना हाई कोर्ट में इसके खिलाफ याचिका दायर कर दी जो खारिज कर दी गई और कुमार फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित कर फिर से मुख्यमंत्री बन गए.
तस्वीर: IANS
गोवा
मार्च 2017 में गोवा विधान सभा चुनावों के बाद जब राज्यपाल ने बीजेपी नेता मनोहर परिकर को सरकार बनाने का निमंत्रण दे दिया, तब सबसे ज्यादा विधायकों वाली पार्टी कांग्रेस ने राज्यपाल के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया, जिसमें मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण करने के बाद परिकर ने बहुमत साबित कर दिया.
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अरुणाचल प्रदेश
दिसंबर 2015 में सत्तारूढ़ कांग्रेस के कुछ विधायकों और डिप्टी स्पीकर ने विद्रोह के बाद स्पीकर पर महाभियोग लगाने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया. स्पीकर ने हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. जनवरी 2016 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. फरवरी में कलिखो पुल ने सरकार बना ली. जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को गैर-कानूनी करार दिया और कांग्रेस की सरकार को बहाल किया.
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उत्तराखंड
मार्च 2016 में सत्तारूढ़ कांग्रेस के विद्रोही विधायकों ने विपक्ष के साथ मिलकर बजट पर वोटिंग की मांग की, लेकिन स्पीकर ने ध्वनि मत से बजट पारित करा दिया. विद्रोही विधायक राज्यपाल के पास चले गए और उनकी अनुशंसा पर केंद्र ने मुख्यमंत्री हरीश रावत की सरकार बर्खास्त कर दी. राष्ट्रपति शासन लागू हो गया. रावत की याचिका पर उत्तराखंड हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटा दिया और रावत सरकार को बहाल किया.