अफ्रीकी देश युगांडा में बड़ी तादाद में भारतीय मूल के लोग रहते हैं. लेकिन एक समय ऐसा भी आया था जब भारतीयों समेत एशियाई मूल के लोगों को युंगाडा से चुन चुन कर निकाला गया था.
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यह वह दौर था जब युंगाडा में तानाशाह ईदी अमीन का राज चलता था. 1972 में ईदी अमीन ने 'आर्थिक युद्ध' का ऐलान किया और युगांडा में मौजूद एशियाई और यूरोपीय लोगों की संपत्तियों पर जब्त करना शुरू कर दिया.
युंगाडा में उस वक्त एशियाई मूल के लगभग 80 हजार लोग रहते थे जिनमें ज्यादातर भारतीय मूल के लोग थे और उनका संबंध गुजरात से था. यह वे कारोबारी लोग थे जिनके पूर्वज ब्रिटिश राज में भारत से युगांडा में जाकर बस गए थे. इन लोगों के हाथ में युगांडा के बड़े उद्योग थे जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थे.
इसके चलते युगांडा में इंडोफोबिया ने जन्म लिया, यानी भारतीय लोगों से डर. ईदी अमीन का सोचना था कि युंगाडा में रहने वाले एशिया और यूरोपीय लोग ना तो उसके वफादार हैं और ना ही समाज में घुलना मिलना चाहते हैं बल्कि वे अपने फायदे के लिए हर तरह की हेराफेरी कर रहे हैं. लेकिन भारतीय समुदाय के लोग हमेशा इन आरोपों से इनकार करते थे.
मिलिए सबसे क्रूर तानाशाहों से
इंसानी इतिहास के सबसे क्रूर तानाशाह
हर चीज को अपने मुताबिक करवाने की सनक, ताकत और अतिमहत्वाकांक्षा का मिश्रण धरती को नर्क बना सकता है. एक नजर ऐसे तानाशाहों पर जिनकी सनक ने लाखों लोगों की जान ली.
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1. माओ त्से तुंग
आधुनिक चीन की नींव रखने वाले माओ त्से तुंग के हाथ अपने ही लोगों के खून से रंगे थे. 1958 में सोवियत संघ का आर्थिक मॉडल चुराकर माओ ने विकास का नारा दिया. माओ की सनक ने 4.5 करोड़ लोगों की जान ली. 10 साल बाद माओ ने सांस्कृतिक क्रांति का नारा दिया और फिर 3 करोड़ लोगों की जान ली.
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2. अडोल्फ हिटलर
जर्मनी के नाजी तानाशाह अडोल्फ हिटलर के अपराधों की लिस्ट बहुत ही लंबी है. हिटलर ने 1.1 करोड़ लोगों की हत्या का आदेश दिया. उनमें से 60 लाख यहूदी थे. उसने दुनिया को दूसरे विश्वयुद्ध में भी धकेला. लड़ाई में 7 करोड़ जानें गई. युद्ध के अंत में पकड़े जाने के डर से हिटलर ने खुदकुशी कर ली.
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3. जोसेफ स्टालिन
सोवियत संघ के संस्थापकों में से एक व्लादिमीर लेनिन के मुताबिक जोसेफ स्टालिन रुखे स्वभाव का शख्स था. लेनिन की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के बाद सोवियत संघ की कमान संभालने वाले स्टालिन ने जर्मनी को हराकर दूसरे विश्वयुद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई. लेकिन स्टालिन ने अपने हर विरोधी को मौत के घाट भी उतारा. स्टालिन के 31 साल के राज में 2 करोड़ लोग मारे गए.
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4. पोल पॉट
कंबोडिया में खमेर रूज आंदोलन के नेता पोल पॉट ने सत्ता में आने के बाद चार साल के भीतर 10 लाख लोगों को मौत के मुंह में धकेला. ज्यादातर पीड़ित श्रम शिविरों में भूख से या जेल में यातनाओं के चलते मारे गए. हजारों की हत्या की गई. 1998 तक कंबोडिया के जंगलों में पोल पॉट के गुरिल्ला मौजूद थे.
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5. सद्दाम हुसैन
इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन की कुर्द समुदाय के प्रति नफरत किसी से छुपी नहीं थी. 1979 से 2003 के बीच इराक में 3,00,000 कुर्द मारे गए. सद्दाम पर रासायनिक हथियारों का प्रयोग करने के आरोप भी लगे. इराक पर अमेरिकी हमले के बाद सद्दाम हुसैन को पकड़ा गया और 2006 में फांसी दी गई.
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6. ईदी अमीन
सात साल तक युगांडा की सत्ता संभालने वाले ईदी अमीन ने 2,50,000 से ज्यादा लोगों को मरवाया. ईदी अमीन ने नस्ली सफाये, हत्याओं और यातनाओं का दौर चलाया. यही वजह है कि ईदी अमीन को युगांडा का बूचड़ भी कहा जाता है. पद छोड़ने के बाद ईदी अमीन भागकर सऊदी अरब गया. वहां मौत तक उसने विलासिता भरी जिंदगी जी.
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7. मेनगिस्तु हाइले मरियम
इथियोपिया के कम्युनिस्ट तानाशाह से अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ लाल आतंक अभियान छेड़ा. 1977 से 1978 के बीच ही उसने करीब 5,00,000 लाख लोगों की हत्या करवाई. 2006 में इथियोपिया ने उसे जनसंहार का दोषी करार देते हुए मौत की सजा सुनाई. मरियम भागकर जिम्बाब्वे चला गया.
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8. किम जोंग इल
इन सभी तानाशाहों में सिर्फ किम जोंग इल ही ऐसे हैं जिन्हे लाखों लोगों को मारने के बाद भी उत्तर कोरिया में भगवान सा माना जाता है. इल के कार्यकाल में 25 लाख लोग गरीबी और कुपोषण से मारे गए. इल ने लोगों पर ध्यान देने के बजाए सिर्फ सेना को चमकाया.
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9. मुअम्मर गद्दाफी
मुअम्मर गद्दाफी ने 40 साल से ज्यादा समय तक लीबिया का शासन चलाया. तख्तापलट कर सत्ता प्राप्त करने वाले गद्दाफी के तानाशाही के किस्से मशहूर हैं. गद्दाफी पर हजारों लोगों को मौत के घाट उतारने और सैकड़ों औरतों से बलात्कार और यौन शोषण के आरोप हैं. 2011 में लीबिया में गद्दाफी के विरोध में चले लोकतंत्र समर्थक आंदोलनों में गद्दाफी की मौत हो गई.
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10. फ्रांकोइस डुवेलियर
1957 में हैती की कमान संभालने वाला डुवेलियर भी एक क्रूर तानाशाह था. डुवेलियर ने अपने हजारों विरोधियों को मरवा दिया. वो अपने विरोधियों को काले जादू से मारने का दावा करता था. हैती में उसे पापा डुवेलियर के नाम से जाना जाता था. 1971 में उसकी मौत हो गई. फिर डुवेलियर का बेटा भी हैती का तानाशाह बना.
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4 अगस्त 1972 को ईदी अमीन ने एक आदेश जारी किया जिसके तहत ऐसे 50 हजार लोगों को देश से बाहर निकाला जाना था जिनके पास ब्रिटिश पासपोर्ट था. बाद में उस आदेश में थोड़ी तब्दील की गई और इसमें उन 60 हजार एशियाई लोगों को भी शामिल कर लिया गया जो युगांडा के नागरिक नहीं थे.
बेहद बर्बर माने जाने वाले ईदी अमीन से बचकर रातों रात लगभग 30 हजार एशियाई लोग ब्रिटेन जा पहुंचे. वहीं बहुत से लोगों ने ऑस्ट्रिया, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा, स्वीडन, फिजी और भारत का रुख किया. ईदी अमीन ने इन सारे लोगों की संपत्तियों और कारोबार पर कब्जा कर लिया और उन्हें अपने समर्थकों में बांट दिया. ईदी अमीन के इस कदम ने पहले से ही चरमरा रही देश की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी.
वहीं ईदी अमीन ने एशियाई और यूरोपीय लोगों को देश से निकालने का बचाव किया. उसका कहना था कि वह युगांडा को विदेशियों से हाथों से लेकर वापस देश के लोगों को सौंप रहे हैं. ईदी अमीन के फैसले की चौतरफा निंदा हुई. भारत ने युगांडा के साथ अपने राजनयिक रिश्ते तोड़ लिए थे.
जब 1986 में योवेरी मुसेवेनी युंगाडा के राष्ट्रपति बने, तो हजारों की तादाद में गुजराती युंगाडा लौटे. मुसेवेनी ने ना सिर्फ ईदी अमीन की नीतियों की कड़ी आलोचना की, बल्कि देश से निकाले गए कारोबारियों, खास कर गुजरातियों से वापस लौटने को कहा. मुसेवेनी के मुताबिक, "गुजरातियों ने युंगाडा के सामाजिक और आर्थिक विकास में बहुत अहम योगदान दिया है." गुजरातियों ने फिर से युगांडा की अर्थव्यवस्था को खड़ा किया और वहीं बस गए.
हिटलर की वह डायरी
हिटलर की 'फर्जी' डायरी का चक्कर
करीब तीन दशक पहले जर्मन पत्रिका 'डेयर श्टेर्न' ने कुछ ऐसी डायरियां प्रकाशित कीं, जो नाजी तानाशाह अडोल्फ हिटलर की बताई गईं. बाद में पत्रिका के ये दावे गलत साबित हुए और यह कांड जर्मन मीडिया का सबसे बड़ा घोटाला साबित हुआ.
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दुनिया भर की नजर हैम्बुर्ग पर
25 अप्रैल 1983 को पत्रिका 'डेयर श्टेर्न' ने अपने हैम्बुर्ग कार्यालय में अंतरराष्ट्रीय प्रेस गोष्ठी रखी. तमाम टीवी कैमरों और विश्व भर से आए पत्रकारों के सामने श्टेर्न के रिपोर्टर गेर्ड हाइडेमन ने बड़े ही गर्व के साथ वे खास डायरियां पेश कीं.
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बड़ी स्टोरी की तलाश में
गेर्ड हाइडेमन 1970 के दशक से ही पत्रिका के खोजी रिपोर्टर थे. उन्हें नाजी काल की चीजें इकट्ठा करने का बड़ा शौक था. इसी शौक के चलते उन्होंने भारी कर्ज लेकर हरमन गोएरिंग की यॉट खरीदी. जैसे ही उन्हें पता चला कि कोई बिचौलिया कथित तौर पर हिटलर की डायरी बेचना चाहता है, इसे हाइडेमन ने अपने जीवन का सबसे बड़ा मौका समझा.
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गलत साबित हुए विशेषज्ञ
ब्रिटिश इतिहासकार और हिटलर के विषय में बड़े विशेषज्ञ ह्यू ट्रेवर-रोपर और अमेरिकी इतिहासज्ञ गेरहार्ड लुडविग वाइनबेर्ग भी हैम्बुर्ग प्रेस कांफ्रेंस में शामिल हुए. इन्होंने मीडिया को बताया कि वे डायरी असली हैं. मगर कुछ ही दिनों बाद जर्मन विशेषज्ञों ने उनके ये दावे गलत साबित कर दिए.
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पर्दाफाश
6 मई 1983 को कई समाचार एजेंसियों में खबर आई कि ये डायरियां झूठी हैं. जर्मन पुलिस के विशेषज्ञों ने साबित कर दिया था कि सभी दस्तावेज नकली थे. ये डायरियां दूसरे विश्व युद्ध के बाद कभी लिखी और जिल्द लगाई गई थीं.
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गलत निकले हस्ताक्षर
डायरी पर मिले नाम के पहले अक्षरों को देख कर शक पैदा हुआ. अडोल्फ हिटलर के 'एएच' के बजाए कवर पर 'एफएच' लिखा था. कुछ लोगों का अंदाजा था कि इसका पूरा मतलब 'फ्यूहरर हिटलर' था. बाद में पता चला कि डायरियों का हिटलर से कोई लेना देना ही नहीं था.
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घोटाले के पीछे था कौन
मामले का खुलासा होते ही फर्जीवाड़ा करने वाले को पकड़ लिया गया. श्टुटगार्ट के एक पेंटर कोनराड कुयाउ ने एक बिचौलिए के जरिए पत्रकार हाइडेमन से संपर्क साधा था. उसने ही दावा किया था कि उसके पास हिटलर की वे कथित डायरियां हैं जिनकी कीमत आज भी करीब 50 लाख यूरो होती. इस सारे लेनदेन के दौरान पेंटर कुयाउ ने फर्जी नामों का इस्तेमाल किया.
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चली सुनवाई
फर्जीवाड़े के इस मामले में कुयाउ और हाइडेमन दोनों पर मुकदमा चला. कुयाउ पर जालसाजी का आरोप साबित हुआ और उसे साढ़े 4 साल की सजा सुनाई गई. हाइडेमन पर पत्रिका से मिले पैसों का गबन करने का आरोप साबित हुआ और उन्हें भी 4 साल 8 महीने की जेल हो गई.
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खूब उड़ा मजाक
1992 में आई एक व्यंग्य फिल्म "श्टोंक" में इसी फर्जी डायरी कांड को दिखाया गया. मामले में शामिल लोगों के असली नाम नहीं लिए गए लेकिन पूरी कहानी असली घटनाक्रम से काफी मिलती जुलती थी.
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जालसाजी से हुई कमाई भी
पेंटर कुयाउ को स्वास्थ्य कारणों से 3 साल की सजा के बाद ही जेल से रिहा कर दिया गया. बाहर आकर उसने अपने जानेमाने होने का खूब फायदा उठाया. एक नया आर्ट स्टूडियो खोल लोगों को "असली कुयाउ नकल" बेचने लगा. उसकी मौत 12 सितंबर 2000 को श्टुटगार्ट में ही हुई.
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बर्बाद हो गया करियर
हाइडेमन को सजा के दौरान किसी अपराधी की तरह सेल में नहीं बल्कि खुली जेल में रखा गया. लेकिन एक पत्रकार के तौर पर उनका करियर तबाह हो गया. 2002 में हाइडेमन और पूर्वी जर्मनी की खुफिया सेवा के बीच संबंधों का भी मीडिया में खुलासा हुआ. हाइडेमन आज भी हैम्बुर्ग में रहते हैं.