यूएन: पत्रकारों को लिखने, ट्वीट करने पर नहीं होनी चाहिए जेल
आमिर अंसारी
२९ जून २०२२
पत्रकार मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी पर पूछे गए एक सवाल पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंटोनियो गुटेरेश के प्रवक्ता स्टीफन डुजारिक ने कहा कि पत्रकारों को उनके लिखने, ट्वीट करने और कहने के लिए जेल नहीं होनी चाहिए.
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पत्रकार और ऑल्ट न्यूज के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंटोनियो गुटेरेश के प्रवक्ता स्टीफन डुजारिक ने कहा, "दुनिया भर में किसी भी स्थान पर यह बहुत महत्वपूर्ण है कि लोगों को खुद को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने की इजाजत दी जाए, पत्रकारों को स्वतंत्र रूप से और बिना किसी उत्पीड़न की धमकी के खुद को व्यक्त करने की इजाजत दी जाए."
पत्रकार वार्ता के दौरान डुजारिक से जुबैर की गिरफ्तारी को लेकर प्रतिक्रिया पूछी गई थी. पत्रकार वार्ता में डुजारिक से एक पाकिस्तानी पत्रकार ने एक और सवाल किया कि क्या वे जुबैर की रिहाई की मांग कर रहे हैं. इस पर डुजारिक ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा, "पत्रकार जो लिखते हैं, जो ट्वीट करते हैं और जो कहते हैं उसके लिए उन्हें जेल नहीं होनी चाहिए."
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चार दिन की पुलिस हिरासत में जुबैर
दूसरी ओर मोहम्मद जुबैर को दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने मंगलवार को चार दिनों की पुलिस हिरासत में भेज दिया. जुबैर पर आरोप है कि उन्होंने साल 2018 में एक ट्वीट में कथित तौर पर एक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत किया है.
दिल्ली पुलिस ने सोमवार की शाम को जुबैर को गिरफ्तार किया था. जुबैर के साथी प्रतीक सिन्हा ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने जुबैर को बिना नोटिस दिए गिरफ्तार किया है. सोमवार की शाम को जुबैर को पुलिस ने साल 2020 के एक मामले में पूछताछ के लिए बुलाया था लेकिन उनकी गिरफ्तारी नए मामले में हुई थी. एक दिन की हिरासत में पूछताछ की अवधि समाप्त होने के बाद उन्हें पटियाला हाउस कोर्ट में पेश किया गया. पुलिस हिरासत देते हुए कोर्ट ने कहा कि आरोपी को बेंगलुरु ले जाकर उस डिवाइस को बरामद करना है, जिससे साल 2018 में विवादित पोस्ट किया गया था. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने बचाव पक्ष हर दलील को ठुकरा दिया.
'DW फ्रीडम ऑफ स्पीच अवॉर्ड' से सम्मानित किए गए पत्रकार और एक्टिविस्ट
2015 से ही डॉयचे वेले मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए मुहिम चला रहे लोगों को 'DW फ्रीडम ऑफ स्पीच अवॉर्ड' से सम्मानित करता आ रहा है. जानिए, अब तक के अवॉर्ड विजेताओं के बारे में.
तस्वीर: DW/P. Böll
2015: रईफ बदावी, सऊदी अरब
सऊदी ब्लॉगर रईफ बदावी ने सालों तक अपने देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी. वह अपने ब्लॉग में राजनैतिक और समाजिक समस्याएं उठाते थे. 2012 में उन्हें इस्लाम, धार्मिक नेताओं और राजनेताओं का अपमान करने का आरोपी बनाया गया. इस जुर्म के लिए उन्हें 2014 में 10 साल की कैद और 1,000 कोड़ों की सजा सुनाई गई (आज तक 50 लग चुके) और भारी जुर्माना लगाया गया था. मार्च 2022 में उन्हें रिहा कर दिया गया.
तस्वीर: Patrick Seeger/dpa/picture alliance
2016: सेदात एरगिन, तुर्की
तुर्की के प्रमुख अखबार हुर्रियत के पूर्व मुख्य संपादक सेदात एरगिन को 2016 का फ्रीडम ऑफ स्पीच अवॉर्ड मिला था. उस वक्त उन पर राष्ट्रपति एर्दोवान के कथित अपमान के लिए मुकदमा चल रहा था. अवॉर्ड स्वीकार करते हुए एरगिन ने कहा था कि "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानवता के सबसे आधारभूत मूल्यों में से है. यह समाज में हमारे अस्तित्व का अटूट हिस्सा है." (तस्वीर में 2019 की विजेता अनाबेल हेर्नाडेज के साथ)
तस्वीर: DW/F. Görner
2017: व्हाइट हाउस कॉरेसपॉन्डेंट्स एसोसिएशन
'व्हाइट हाउस कॉरेसपॉन्डेंट्स एसोसिएशन' को फ्रीडम ऑफ स्पीच अवार्ड 2017 से नवाजा गया था. डॉयचे वेले महानिदेशक पेटर लिम्बुर्ग ने एसोसिएशन के अध्यक्ष जेफ मेसन को यह पुरस्कार दिया था. इस मौके पर लिम्बुर्ग ने कहा, "हम इस अवॉर्ड को अमेरिका और दुनियाभर में आजाद प्रेस के सम्मान, समर्थन और प्रोत्साहन के निशान के तौर पर देखते हैं जो अमेरिकी राष्ट्रपति (डोनाल्ड ट्रंप) और उनकी नीतियों पर रिपोर्टिंग करते हैं."
तस्वीर: DW/K. Danetzki
2018: सादेग जिबाकलाम, ईरान
डॉयचे वेले का 2018 का फ्रीडम ऑफ स्पीच अवॉर्ड ईरान के राजनीतिज्ञ सादेग जिबाकलाम को दिया गया था. उस वक्त अपने देश के राजनीतिक हालात के खिलाफ बोलने के लिए उन पर जेल की सजा की तलवार लटक रही थी. जिबाकलाम कट्टरपंथियों के साथ अपनी तीखी बहसों के लिए जाने जाते हैं और वे घरेलू और विदेश नीति से जुड़े मामलों पर सरकार के रुख की आलोचना करते रहे हैं.
तस्वीर: DW/U. Wagner
2019: अनाबेल हेर्नांडेज, मेक्सिको
मेक्सिको की खोजी पत्रकार अनाबेल हेर्नाडेज को 2019 का डीडब्ल्यू फ्रीडम ऑफ स्पीच अवॉर्ड दिया गया था. वह भ्रष्टाचार, सरकारी कर्मियों और ड्रग कार्टल्स के आपसी संबंधों की जांच-पड़ताल करती हैं. 2010 में आई उनकी किताब "लोस सेनेरेस डेल नारको"(नार्कोलैंड) में उन्होंने इन गैर-कानूनी संबंधों की पड़ताल की थी. इस वजह से उन पर हमलों की कोशिश भी हुई है. अनाबेल अब यूरोप में निर्वासित जीवन जी रही हैं.
तस्वीर: DW/V. Tellmann
2020: कोरोना महामारी कवरेज के लिए फैक्ट चेकर्स को
2020 में कोरोना वायरस के बारे में फैली फर्जी जानकारियों की सच दुनिया के सामने लाने के लिए 14 देशों के 17 पत्रकारों को फ्रीडम ऑफ स्पीच अवॉर्ड 2020 से नवाजा गया था. इसमें भारत के पत्रकार और 'द वायर' वेबसाइट के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन भी थे.
तस्वीर: DW
2021: तोबोरे अवुरी, नाइजीरिया
नाइजीरिया की खोजी पत्रकार तोबोरे ओवुरी को 2021 का डीडब्ल्यू अवॉर्ड दिया गया था. ओवुरी करीब 11 साल से पेशेवर पत्रकार हैं. उन्होंने कई साल छानबीन के बाद एक सेक्स वर्कर का रूप धरा और नाइजीरिया में सेक्स ट्रैफिक रैकेट्स का पर्दाफाश करने के लिए अपनी पहचान छिपाकर काम किया. 2014 में उनकी सबसे मशहूर रिपोर्ट छपी थी. उनके खुलासे के बाद देश के अधिकारियों ने जांच शुरू की थी.
तस्वीर: Elvis Okhifo/DW
2022: एवगिनी मलोलेत्का और मिस्तेस्लाव चेर्नोव, यूक्रेन
डीडब्ल्यू फ्रीडम ऑफ स्पीच अवॉर्ड 2022, फ्रीलांस फोटोजर्नलिस्ट एवगिनी मलोलेत्का और एसोसिएटेड प्रेस के पत्रकार मिस्तेस्लाव चेर्नोव को दिया गया है. दोनों पत्रकारों ने यूक्रेन के दक्षिण-पूर्वी शहर मारियोपोल की तबाही और रूसी कब्जे की तस्वीरें और वीडियो दुनिया को दिखाए हैं. AP में प्रकाशित उनकी रिपोर्ट "मारियोपोल में 20 दिन" यूक्रेन युद्ध से तबाह हुए शहर को करीब से दिखाती है.
तस्वीर: AP Photo/picture alliance/Evgeniy Maloletka
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अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही गिरफ्तारी की निंदा
पत्रकारों के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने भी गिरफ्तारी की निंदा की है. सीपीजे के दक्षिण एशिया प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर स्टीवन बटलर ने कहा, "पत्रकार मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी भारत में प्रेस की स्वतंत्रता के पतन को दर्शाता है. जहां सरकार ने सांप्रदायिक मुद्दों पर प्रेस रिपोर्टिंग के सदस्यों के लिए शत्रुतापूर्ण और असुरक्षित वातावरण बनाया है."
मंगलवार को मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने भी जुबैर की गिरफ्तारी पर एक बयान जारी किया था. संगठन ने जुबैर की तत्काल और बिना शर्ता रिहाई की मांग की थी. संगठन ने अपने बयान में कहा, "सत्य और न्याय की पैरोकारी कर रहे मानवाधिकार रक्षकों का उत्पीड़न और मनमाने तरीके से गिरफ्तारी भारत में चिंताजनक रूप से आम बात हो गयी है."
एमनेस्टी इंडिया के अध्यक्ष आकार पटेल ने बयान में कहा कि भारतीय अधिकारी जुबैर पर इसलिए निशाना साध रहे हैं क्योंकि वह फर्जी खबरों और भ्रामक सूचनाओं के खिलाफ काम कर रहे हैं.
पुलिस ने एक ट्विटर हैंडल से शिकायत मिलने के बाद जुबैर के खिलाफ मामला दर्ज किया था, जहां यह आरोप लगाया गया था कि उन्होंने जानबूझकर धार्मिक भावनाओं को आहत करने के उद्देश्य से विवादित ट्वीट किया था.
मंगलवार को एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, मुंबई प्रेस क्लब समेत कुछ पत्रकार संगठनों ने जुबैर की गिरफ्तारी की निंदा की और उनकी तुरंत रिहाई की मांग की थी.
एमनेस्टी इंटरनेशनल के 60 साल
राजनीतिक बंदियों के समर्थन से लेकर हथियारों के वैश्विक व्यापार के विरोध तक, जानिए कैसे कुछ वकीलों की एक पहल मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का एक अग्रणी नेटवर्क बन गई.
तस्वीर: Francisco Seco/AP Photo/picture alliance
राजनीतिक बंदियों के लिए क्षमा
1961 में पुर्तगाल के तानाशाह ने दो छात्रों को आजादी के नाम जाम उठाने पर जेल में डाल दिया था. इस खबर से व्यथित होकर वकील पीटर बेनेनसन ने एक लेख लिखा जिसका पूरी दुनिया में असर हुआ. उन्होंने ऐसे लोगों के लिए समर्थन की मांग की जिन पर सिर्फ उनके विश्वासों के लिए अत्याचार किया जाता है. इसी पहल से बना एमनेस्टी इंटरनेशनल नाम का एक वैश्विक नेटवर्क जो मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ कैंपेन करता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/W. Kumm
मासूमों का जीवन बचाने के लिए
शुरुआत में एमनेस्टी का सारा ध्यान अहिंसक राजनीतिक बंदियों को बचाने की तरफ था. एमनेस्टी का समर्थन पाने वाले एक्टिविस्टों की एक लंबी सूची है, जिसमें दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला से लेकर रूस के ऐलेक्सी नवाल्नी शामिल हैं. संस्था यातनाएं और मौत की सजा का भी विरोध करती है.
तस्वीर: Getty Images/S. Barbour
यातना के खिलाफ अभियान
जब पहली बार संस्था ने 1970 के दशक में यातना के खिलाफ अपना अभियान शुरू किया था, उस समय कई देशों की सेनाएं राजनीतिक बंदियों के खिलाफ इनका इस्तेमाल करती थीं. एमनेस्टी के अभियान की वजह से इसके बारे में जागरूकता फैली और इससे यातनाओं के इस्तेमाल के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का जन्म हुआ. इन प्रस्तावों पर अब 150 से ज्यादा देश हस्ताक्षर कर चुके हैं.
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युद्ध के इलाकों में जांच
एमनेस्टी के अभियान उसके एक्टिविस्टों द्वारा इकठ्ठा किए गए सबूतों के आधार पर बनते हैं. युद्ध के इलाकों में युद्धकालीन अपराधियों की जवाबदेही तय करने के लिए मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिखित प्रमाण की जरूरत पड़ती है. संस्था ने सीरिया के युद्ध के दौरान रूसी, सीरियाई और अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन के युद्धकालीन अपराधों के दस्तावेज सार्वजनिक स्तर पर रखे.
तस्वीर: Delil Souleiman/AFP/Getty Images
हथियारों के प्रसार के खिलाफ
एमनेस्टी का लक्ष्य युद्ध के इलाकों तक हथियारों के पहुंचने को रोकने का है, क्योंकि वहां उनका इस्तेमाल नागरिकों के खिलाफ किया जा सकता है. हालांकि एक अंतरराष्ट्रीय संधि के तहत हथियारों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार का नियंत्रण करने के लिए नियम लागू तो हैं, लेकिन इसके बावजूद हथियारों की खरीद और बिक्री अभी भी बढ़ रही है. रूस और अमेरिका जैसे सबसे बड़े हथियार निर्यातकों ने संधि को मंजूरी नहीं दी है.
तस्वीर: Chris J Ratcliffe/Getty Images
कानूनी और सुरक्षित गर्भपात का अधिकार
एमनेस्टी के अभियानों में लैंगिक बराबरी, बाल अधिकार और एलजीबीटी+ समुदाय के समर्थन जैसे मुद्दे भी शामिल हैं. सरकारों और धार्मिक नेताओं ने गर्भपात का अधिकार जैसे मुद्दों को संस्था के समर्थन की कड़ी आलोचना की है. इस तस्वीर में अर्जेंटीना में एक्टिविस्ट राजधानी ब्यूनोस एरेस में राष्ट्रीय संसद के दरवाजों पर पार्सले और गर्भपात के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दूसरी जड़ी-बूटियां रख रहे हैं.
तस्वीर: Alejandro Pagni/AFP/Getty Images
एक व्यापक अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क
1960 के दशक ने एमनेस्टी इंटरनैशनल बढ़ कर ऐसे एक्टिविस्टों का एक व्यापक वैश्विक नेटवर्क बन गया है जो सारी दुनिया में एकजुटता के अभियानों में हिस्सा लेने के अलावा स्थानीय स्तर पर हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन का मुकाबला भी करते हैं. संस्था के पूरी दुनिया में लाखों सदस्य और समर्थक हैं जिनकी मदद से उसने हजारों बंदियों को मृत्यु और कैद से बचाया है. (मोनिर घैदी)