भारत के स्कूलों में खाली हैं 11 लाख शिक्षकों के पद
प्रभाकर मणि तिवारी
७ अक्टूबर २०२१
भारत को उसकी युवा आबादी के कारण संभावनाओं का देश कहा जाता है. संभावनाओं का इस्तेमाल करने के लिए शिक्षा की जरूरत है. लेकिन यूनेस्को की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में शिक्षा की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है.
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भारतीय में शिक्षा की स्थिति पर यूनेस्को की ताजा रिपोर्ट ने देश में स्कूली शिक्षा के परिदृश्य की पोल खोल दी है. संयुक्त राष्ट्र संस्था की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में एक लाख स्कूल ऐसे हैं जिनमें महज एक ही शिक्षक है. इसके अलावा स्कूलों में शिक्षकों के 11 लाख पद खाली हैं जिनमें से 69 फीसदी ग्रामीण इलाकों में हैं. इस रिपोर्ट ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के तमाम सरकारी दावों का पोल खोल दी है. कुछ महीने पहले केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट से भी शिक्षा की बदहाली की तस्वीर सामने आई थी. शिक्षाविदों ने इस स्थिति पर गहरी चिंता जताई है.
क्या है यूनेस्को की रिपोर्ट में
यूनेस्को ने '2021 स्टेट ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट फॉर इंडिया - नो टीचर्स, नो क्लास' शीर्षक अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत में करीब 1.10 लाख ऐसे स्कूल हैं जो महज एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं. इसके अलावा शिक्षकों के 11.16 लाख पद खाली हैं, उनमें से 69 फीसदी ग्रामीण इलाके के स्कूलों में हैं. अरुणाचल और गोवा जैसे राज्यों में ऐसे स्कूलों की संख्या सबसे ज्यादा है. प्रोफेसर पद्म. एम. सारंगपाणि की अगुवाई में मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के विशेषज्ञों की एक टीम ने यूनेस्को की एक टीम के साथ मिलकर यह रिपोर्ट तैयार की है.
शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए रिपोर्ट में शिक्षकों के रोजगार की शर्तों और ग्रामीण इलाकों में काम करने की स्थिति में सुधार करने के लिए जरूरी जिलों की पहचान करने के साथ शिक्षकों को फ्रंटलाइन कार्यकर्ता के रूप में मान्यता देने की सिफारिश की गई है. रिपोर्ट के मुताबिक, जिन राज्यों में शिक्षकों के पद खाली हैं उनमें से उत्तर प्रदेश 3.30 लाख के आंकड़े के साथ शीर्ष पर है. इनमें से 80 फीसदी पद ग्रामीण इलाकों में हैं. उसके बाद क्रमशः बिहार (2.20 लाख) और पश्चिम बंगाल (1.10 लाख) का स्थान है. रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण और शहरी इलाकों में इस मामले में काफी असमानता है. साथ ही पूर्वोत्तर में योग्य शिक्षकों की उपलब्धता और भर्ती में सुधार की जरूरत पर भी जोर दिया गया है.
पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश में एक शिक्षक वाले स्कूलों की संख्या 18.22 फीसदी है. गोवा में ऐसे स्कूलों की तादाद 16.08 फीसदी, तेलंगाना में 15.71 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 14.4, झारखंड में 13.81 और उत्तराखंड में 13.64 फीसदी है. मध्यप्रदेश और राजस्थान में यह आंकड़ा क्रमशः 13.08 और 10.08 फीसदी है. एकमात्र शिक्षक वाले स्कूलों के मामले में 21 हजार के आंकड़े के साथ मध्य प्रदेश शीर्ष पर है. रिपोर्ट में कहा गया है कि शिक्षकों का औसत लैंगिक अनुपात संतुलित होने के बावजूद इस मामले में शहरी और ग्रामीण इलाकों में असंतुलन साफ नजर आता है.
शहरों में ज्यादा हैं महिला शिक्षक
शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले महिला शिक्षकों का अनुपात अधिक है. ग्रामीण इलाकों में 28 फीसदी प्राइमरी स्कूल शिक्षक महिलाएं हैं जबकि शहरी इलाकों में यह आंकड़ा 69 फीसदी है. माध्यमिक स्तर पर ग्रामीण इलाकों में महिला शिक्षकों की संख्या 24 फीसदी है, लेकिन शहरी इलाकों में यह आंकड़ा 53 फीसदी है. असम, झारखंड व राजस्थान में 39-39 फीसदी और त्रिपुरा में 32 फीसदी शिक्षिकाएं हैं. इस मामले में चंडीगढ़ 82 फीसदी के साथ शीर्ष पर है. इसके बाद गोवा (80 फीसदी), दिल्ली (74 फीसदी) और केरल (78 फीसदी) का स्थान है.
जर्मनी में है बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने का चलन
भारत के शहरों में ज्यादातर लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना पंसद करते हैं. लेकिन जर्मनी में ठीक इसका उल्टा है. जानिए कैसा है यहां का स्कूल सिस्टम.
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स्कूल जाना जरूरी
जर्मनी में बच्चे छह साल की उम्र से स्कूल जाना शुरू करते हैं. उससे पहले तक वे किंडरगार्टन जा सकते हैं. 6 से 15 की उम्र तक स्कूल जाना अनिवार्य है. बच्चों को स्कूल ना भेजने पर माता पिता या अभिभावकों को सजा हो सकती है. होम स्कूलिंग यानी बिना स्कूल के घर से ही पढ़ाई करने पर मनाही है. हर राज्य के नियम थोड़े बहुत अलग हैं.
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प्राथमिक शिक्षा
स्कूल का पहला दिन बच्चों के लिए खास होता है. सभी बच्चों को टॉफी, चॉकलेट, पेन, पेंसिल और अन्य काम की चीजों से भरा एक उपहार मिलता है. अगले दिन संजीदगी से पढ़ाई शुरू होती है. अधिकतर राज्यों में बच्चे चार सालों तक प्राइमरी स्कूल में जाते हैं यानी पहली से चौथी कक्षा तक लेकिन बर्लिन में प्राथमिक शिक्षा छह साल तक चलती है.
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स्कूल का चयन
चौथी क्लास के बाद बच्चों का स्कूल बदलता है. वे किस स्कूल में जाएंगे ये इस पर निर्भर करता है कि उनके टीचर ने उनके लिए क्या तय किया है. हालांकि नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया राज्य में माता पिता टीचर की सिफारिश को नजरअंदाज कर सकते हैं. बच्चा किस तरह के स्कूल में जाता है, इससे तय होता है कि वह आगे चल कर यूनिवर्सिटी की डिग्री लेगा या फिर वोकेशनल कोर्स करेगा.
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जिमनेजियम
शब्द बिल्कुल वैसे ही लिखा जाता है लेकिन इसका कसरत करने वाले जिम से कोई लेना देना नहीं है. इस तरह के माध्यमिक स्कूल में बच्चे यूनिवर्सिटी जाने की तैयारी करते हैं. 12वीं (और कुछ मामलों में 13वीं) क्लास के बाद एक खास किस्म की परिक्षा देनी होती है, जिससे यूनिवर्सिटी में दाखिले की योग्यता तय होती है. इस स्कूल में बच्चों को विज्ञान, गणित, दर्शनशास्त्र और खेल, सब विषय पढ़ने होते हैं.
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दूसरा रास्ता
जो बच्चे जिमनेजियम (जर्मन में गिमनाजियम) में दाखिला नहीं ले पाते या नहीं लेना चाहते उनके लिए रेआलशूले का विकल्प होता है. पांचवीं से दसवीं क्लास तक ये लगभग दूसरे स्कूल वाले ही विषय पढ़ते हैं लेकिन स्तर में थोड़ा अंतर होता है. बाद में अगर ये बच्चे चाहें तो यूनिवर्सिटी में दाखिले की परिक्षा भी दे सकते हैं. इसे आबीटूयर या फिर स्कूल लीविंग एग्जाम कहा जाता है.
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तीसरा रास्ता
एक अन्य विकल्प है हाउप्टशूले. इन बच्चों को भी शुरुआत में लगभग वही विषय पढ़ाए जाते हैं लेकिन बेहद धीमी गति से. यहां से निकलने वाले बच्चे आगे चल कर वोकेशनल ट्रेनिंग करते हैं. जर्मनी में वोकेशनल ट्रेनिंग पर काफी जोर दिया जाता है. हालांकि बाद में अपना मन बदलने वाले छात्रों के लिए आबीटूयर का रास्ता यहां बंद नहीं होता है.
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चौथा विकल्प
कुछ स्कूल ऐसे होते हैं जो पहले तीनों विकल्पों को एक साथ ले कर चलते हैं. इन्हें गेजाम्टशूले कहा जाता है. 1960 और 70 के दशक में जर्मनी में इनका चलन बढ़ा. यहां छात्र चाहें तो 13वीं तक पढ़ाई करें, या फिर 9वीं या 10वीं के बाद ही किसी तरह की ट्रेनिंग ले कर नौकरी करना शुरू कर सकते हैं. इस स्कूल की मांग इतनी है कि 2018 में कोलोन शहर को एक हजार अर्जियां खारिज करनी पड़ी थीं.
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कोई गारंटी नहीं
पांचवीं और छठी क्लास बच्चों के लिए एक टेस्ट जैसी होती है. इन दो सालों में वे जैसा प्रदर्शन करते हैं, उस पर निर्भर करता है कि उनके टीचर उन्हें उसी स्कूल में रहने देते हैं या फिर स्कूल बदलने की सिफारिश करते हैं. ऐसे में होनहार बच्चों को जिमनेजियम का मौका मिल सकता है. लेकिन इसका मतलब यह भी है कि डट कर पढ़ाई ना करने पर रेआलशूले जाना पड़ सकता है.
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वोकेशनल स्कूल
इन्हें बेरूफ्सशूले कहा जाता है यानी वह स्कूल जहां कोई पेशा सीखा जा सके. अकसर ये स्कूल इंडस्ट्री या ट्रेड यूनियन के साथ मिल कर काम करते हैं. ऐसे में बच्चे रेआलशूले या हाउप्टशूले से निकलने के बाद पेशेवर ट्रेनिंग ले सकते हैं. वे किसी फैक्ट्री में काम करना सीख सकते हैं या फिर हेयर ड्रेसर या मेक अप आर्टिस्ट भी बन सकते हैं.
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विकलांग बच्चों के लिए
विशेष जरूरतों वाले बच्चों के लिए अलग से स्कूल होते हैं और अगर वे चाहें तो सामान्य स्कूल में भी दाखिला ले सकते हैं. नेत्रहीन या व्हीलचेयर का इस्तेमाल करने वाले बच्चे अकसर फोर्डरशूले या फिर जौंडरशूले में जाते हैं. हालांकि कुछ आलोचकों का मानना है कि इससे भेदभाव बढ़ता है लेकिन दूसरी ओर इन विशेष स्कूलों में उनकी जरूरतों का ख्याल भी बेहतर रूप से रखा जा सकता है.
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नामों का झोल
हर राज्य में कुछ ना कुछ अलग होता है. इन सब विकल्पों के अलावा भी कुछ विकल्प हैं. कहीं हाउप्टशूले और रेआलशूले का मिलाजुला रूप ओबरशूले के रूप में मौजूद है, तो कहीं मिटलशूले और गेमाइनशाफ्ट्सशूले भी हैं. जर्मन शब्द शूले का मतलब होता है स्कूल. इतने तरह के स्कूल हैं कि कई बार यहां रहने वाले लोगों के लिए भी ये उलझन का सबब बन जाते हैं.
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वक्त भी तय नहीं
किसी स्कूल की 12 बजे ही छुट्टी हो जाती है, तो कोई 4 बजे तक खुला रहता है. किसी में डे बोर्डिंग का विकल्प होता है, तो किसी में नहीं होता. ऐसे में कामकाजी माता पिता के लिए दिक्क्तें बढ़ जाती हैं. डे बोर्डिंग में बच्चों को खाना भी मिल जाता है और वे वहीं बैठ कर अपना होमवर्क भी पूरा कर सकते हैं. इसके लिए अतिरिक्त शुल्क लगता है. अधिकतर स्कूलों की फीस ना के बराबर होती है.
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तरह तरह के स्कूल
ये था सरकारी स्कूलों का ढांचा. अधिकतर लोग इन्हीं को चुनते हैं. लेकिन इनके अलावा प्राइवेट स्कूल भी हैं. कुछ लोग मॉन्टेसरी को पसंद करते हैं, तो कुछ वॉल्डोर्फ को. साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्कूल भी होते हैं, जहां ज्यादातर पढ़ाई अंग्रेजी में होती है. कुछ लोग अपने बच्चों को बोर्डिंग में दूसरे शहर भी भेजते हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि ये बेहद महंगे होते हैं.
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रिपोर्ट में बताया गया है कि प्री-प्राइमरी के 7.7 फीसदी, प्राइमरी के 4.6 फीसदी, अपर प्राइमरी के 3.3 फीसदी और सेकेंडरी के 0.8 फीसदी शिक्षकों के पास समुचित योग्यता की कमी है. बिहार में यह आंकड़ा सबसे ज्यादा है. ऐसे शिक्षकों में से करीब 60 फीसदी निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में काम करते हैं और 24 फीसदी सरकारी में. यूनेस्को ने कहा है कि सेकेंडरी स्कूलों में शिक्षक और छात्रों का अनुपात भी खराब है. इसके साथ ही संगीत, कला, और शारीरिक शिक्षा जैसे विषयों के शिक्षकों की भारी कमी है. लेकिन इसका आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. रिपोर्ट के मुताबिक, अगले 15 वर्षों में मौजूदा शिक्षकों में 30 फीसदी को विभिन्न वजहों से बदलना जरूरी होगा. ऐसे में शिक्षकों की मांग बढ़ेगी. इसके लिए अभी से इस दिशा में ठोस पहल की जरूरत है.
स्कूलों की स्थिति पर चिंतित हैं शिक्षाविद
शिक्षाविदों ने देश में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों और पठन-पाठन की स्थिति पर गहरी चिंता और निराशा जताते हुए इस स्थिति में सुधार के लिए तुरंत ठोस कदम उठाने की अपील की है. कोलकाता के एक सरकारी स्कूल के रिटायर्ड हेडमास्टर जीवन कुमार पाल कहते हैं, "खासकर प्राथमिक शिक्षा की स्थिति की बदहाली कोई नई नहीं है. सरकार शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए तमाम दावे करती रही है. लेकिन अब तक जितनी भी रिपोर्ट्स सामने आई हैं उनसे साफ है कि सरकारी दावा हवाई ही साबित हुआ है. कम से कम शिक्षकों की नियुक्ति तो सरकार के हाथों में है. लेकिन इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं है.”
प्राथमिक स्कूल की शिक्षिका मधुश्री मजूमदार कहती हैं, "स्कूलों की हालत काफी बदहाल है. ज्यादातर स्कूलों में संबंधित विषयों के शिक्षक नहीं हैं. नतीजतन भूगोल के शिक्षक को विज्ञान और गणित पढ़ाना पड़ता है. ऐसे में इन बच्चों के ज्ञान और भविष्य की कल्पना करना मुश्किल नहीं है.” उनका सुझाव है कि सरकार को स्कूलों की बदहाली सुधारने के लिए एक उच्च-स्तरीय समिति का गठन करना चाहिए. उसके बाद उसकी सिफारिशों को गंभीरता से लागू किया जाना चाहिए. मधुश्री कहती हैं, "शिक्षा शायद सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं है. संभ्रांत वर्ग के बच्चे महंगे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं. शायद इसी वजह से सरकार और संबंधित अधिकारियों का ध्यान सरकारी और बाकी निजी स्कूलों पर नहीं जाता.”
शिक्षकों में योग्यता की कमी
सबसे बड़ी चिंता स्कूलों में कम योग्यता वाले शिक्षकों का होना भी है. कम योग्यता वाले शिक्षकों का 60 फीसदी तो सिर्फ बिहार में है. यही वही राज्य है जहां से सबसे ज्यादा लोग पलायन कर दूसरे प्रांतों में पढ़ने और नौकरी की तलाश में जाते हैं. योग्य कर्मियों के अभाव का असर राज्य के आर्थिक विकास पर भी दिखता है. जहां लोग निजी स्कूलों को शिक्षा का वैकल्पिक माध्यम समझ रहे हैं वहां इस रिपोर्ट के अनुसार कम योग्यता वाले 60 फीसदी शिक्षक निजी स्कूलों में ही हैं.
यूनेस्को ने अपनी रिपोर्ट में स्थिति में सुधार के नुस्खे भी दिए हैं. रिपोर्ट में शिक्षकों के लिए करियर में बेहतरी के रास्ते, नौकरी से पहले पेशेवर विकास और तकनीक और कंप्यूटर ट्रेनिंग देने जैसे सुझाव दिए गए हैं. 1968 के बाद जारी सारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति रिपोर्टों में कहा गया है कि भारत को अपने सकल राष्ट्रीय उत्पादन का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करना चाहिए. लेकिन 2019-20 के आर्थिक सर्वे के अनुसार पहली रिपोर्ट के 52 साल बाद भारत ने शिक्षा पर सिर्फ 3.1 फीसदी का खर्च किया है. सरकारी खर्च का बड़ा हिस्सा करीब 10 लाख सरकारी स्कूलों पर जाता है जबकि उसका छोटा हिस्सा सरकारी सहायता से चलने वाले स्कूलों को जाता है. निजी स्कूलों को सरकार से कुछ नहीं मिलता.
असली जिंदगी का नायकः सड़क को बनाया स्कूल
दीप नारायण नायक पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव जोबा अट्टापाड़ा गांव में स्कूल टीचर हैं. वह नाम से ही नहीं, जज्बे से भी नायक हैं.
लॉकडाउन के कारण स्कूल बंद हो गए तो दीप नायारण नायक को अपने छात्रों के पीछे छूट जाने की चिंता हुई. उन्होंने बच्चों तक पहुंचने का तरीका निकाला. उन्होंने गलियों की दीवारों को रंगकर बोर्ड बना दिया और वहीं क्लास लेने लगे.
तस्वीर: Rupak De Chowdhuri/REUTERS
पढ़ाई भी, सिखाई भी
पिछले कई महीनों से नायक इसी तरह अपने छात्रों को पढ़ा रहे हैं ताकि उनके बच्चे लॉकडाउन के कारण शिक्षा से महरूम न रह जाएं. वह लोक गीतों से लेकर हाथ धोने की जरूरत तक बच्चों को हर तरह का ज्ञान देते हैं.
तस्वीर: Rupak De Chowdhuri/REUTERS
कोई बच्चा छूटे नहीं
नायक बताते हैं कि उनकी क्लास में ज्यादातर बच्चे ऐसे हैं जिनके परिवार से पहली बार कोई स्कूल आया. तो वह उन्हें पीछे नहीं छूटने देना चाहते.
तस्वीर: Rupak De Chowdhuri/REUTERS
माता पिता भी खुश
बच्चों के माता पिता भी उनकी इस कोशिश से खुश हैं. एक बच्चे के पिता ने बताया कि पहले तो बच्चे यूं ही गलियों में भटकते रहते थे, नायक की इस कोशिश ने उन्हें फिर से पढ़ाई में लगा दिया है.
तस्वीर: Rupak De Chowdhuri/REUTERS
गांव नहीं पहुंची ऑनलाइन पढ़ाई
हाल ही में आए एक सर्वे के मुताबिक भारत के गांवों में सिर्फ 8 प्रतिशत बच्चे ही लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई कर पाए और 37 फीसदी तो बिल्कुल नहीं पढ़ पाए.