संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूनिसेफ के अनुसार 2017 संकट वाले क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों के लिहाज से अब तक के सबसे बुरे सालों में से एक रहा.
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कहीं बच्चों को मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल किया गया, तो कहीं आत्मघाती हमलावर के रूप में. यूनिसेफ के एक अधिकारी ने कहा कि जहां तक बच्चों की रक्षा की बात है, तो 2017 में अंतरराष्ट्रीय कानून की जबरदस्त अवहेलना हुई है. यूनिसेफ ने एक रिपोर्ट जारी कर स्पष्ट किया है कि किस तरह संकट ग्रस्त इलाकों में भारी संख्या में बच्चों की जान गई है. कई जगहों पर इन्हें जंग के लिए नियुक्त भी किया गया.
यूनिसेफ के मानुएल फोनटेन ने इस बारे में कहा, "बच्चों को अपने घरों, स्कूलों और खेल के मैदानों में हमलों और बर्बर हिंसा का निशाना बनाया जा रहा है." फोनटेन ने आगे कहा, "साल दर साल ये हमले होते चले जा रहे हैं. हम स्तब्ध हो कर नहीं बैठ सकते. इस बर्बरता को हम सामान्य मान कर स्वीकार नहीं कर सकते."
सीरियाई बच्चे: नन्हें कंधों पर बड़ा भार
तुर्की में बाल मजदूरी गैरकानूनी हैं. लेकिन वहां हजारों सीरियाई शरणार्थी बच्चे हैं जो स्कूल जाने की बजाय काम करने को मजबूर हैं. चलिए ऐसी ही एक टेलर वर्कशॉप में जहां कई सीरियाई बच्चे काम करते हैं.
तस्वीर: DW/J. Hahn
काम का बोझ
खलील की उम्र 13 साल है और कभी उसका घर दमिश्क में होता था. अब वह इस्तांबुल में रहता है और एक रिहायशी मकान के तहखाने में बनी इस टेलर वर्कशॉप में काम करता है, हफ्ते में पांच दिन. इस इलाके में लगभग हर गली में ऐसी सिलाई की दुकानें हैं और लगभग हर जगह खलील जैसे बच्चे काम करते हैं.
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पैसे कम, काम पूरा
यहां पर लगातार सिलाई मशीनें चलती रहती हैं. इस दुकान में काम करने वाले 15 लोगों में चार बच्चे हैं. और ये सभी बच्चे सीरिया से हैं. तुर्की के कपड़ा उद्योग में बहुत से लोग गैरकानूनी रूप से काम करते हैं. बहुत ही दुकानों और फैक्ट्रियों में बच्चों से कम पैसे में पूरा काम लिया जाता है.
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स्कूल नसीब नहीं
13 साल का खलील कहता है, "मैं भविष्य के बारे में नहीं सोचता." तस्वीर में वह सूती कपड़े को छांट रहा है. इस कपड़े से महिलाओं के अंडरवियर तैयार किये जा रहे हैं. खलील कहता है कि जब वह सीरिया में था तो तीसरी क्लास में पढ़ता था. फिर लड़ाई छिड़ गयी और परिवार को वहां से भागना पड़ा. तब से स्कूल जाना नसीब नहीं हुआ.
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मदद या फिर उत्पीड़न
तुर्की में 15 साल से कम उम्र के बच्चे को काम पर रखने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो सकती है. इस दुकान का मालिक भी इस बात को जानता है, इसलिए वह सामने नहीं आना चाहता. वह कहता है, "मैं बच्चों को काम देता हूं ताकि उन्हें भीख ना मांगनी पड़ी. मुझे पता है कि बाल मजदूरी पर रोक है, लेकिन मैं तो उनकी मदद ही कर रहा हूं."
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"उम्मीद है, घर जाऊंगा"
मूसा की उम्र 13 साल है. वह उत्तरी सीरिया के अफरीन प्रांत से है जो कुर्दिश बहुल इलाका है. जब काम नहीं कर रहा होता है तो मूसा क्या करता है. "फुटबॉल खेलता हूं." वह कहता है, "उम्मीद है कि जल्द ही सीरिया में शांति होगी और हम वापस घर जा सकेंगे. वहां जाकर मुझे पढ़ना है और डॉक्टर बनना है."
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सबको मुनाफा चाहिए
यहां हर दिन महिलाओं की हजारों पैंटियां बनती और पैक होती हैं. तुर्की के बाजारों में बिकने वाली अलग अलग साइज की इन पैंटियों में से हर एक की कीमत चंद लीरा है. तुर्की के व्यापारियों को चीन से आने वाले माल का मुकाबला करना है. बच्चों को यहां बड़ों के मुकाबले लगभग आधा मेहनताना मिलता है.
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12 घंटे काम
अरास 11 साल की है और चार महीनों से इस दुकान में काम कर रही है. उसकी मां गर्भवती है. पिता एक फैक्ट्री में काम करते हैं, लेकिन पैसे इतने नहीं मिलते कि अकेले उससे गुजारा हो पाये. इसलिए अरास को भी काम करना पड़ता है. कई बार तो सवेरे 8 बजे से लेकर रात 8 बजे तक काम होता है. दिन में दो बार ब्रेक मिलता है. वह महीने में 700 लीरा (लगबग 11 हजार रुपये) कमा लेती है.
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वीकेंड पर स्कूल
अरास सोमवार से लेकर शुक्रवार तक काम करती है. इसलिए वह आम स्कूलों में नहीं जा सकती. वह सीरियाई सहायता संगठन की तरफ से वीकेंड पर चलाए जा रहे स्कूल में जाती है. यहां गणित के अलावा अरबी और तुर्क भाषा पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं. यहां पढ़ाने वाले टीचर भी सीरिया से आए शरणार्थी हैं.
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बेहतर भविष्य की ओर..
इस छोटे से सीरियाई स्कूल में एक दिन में चार से 18 साल के उम्र के 70 बच्चे पढ़ने आते हैं. कई बार टीचर बच्चों के घर भी जाते हैं और उनसे माता पिता से अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए कहते हैं ताकि बेहतर भविष्य की तरफ वे कदम बढ़ा सकें.
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अफ्रीका: बच्चों के लिए सबसे बुरी जगह
इस रिपोर्ट में अफ्रीका में लंबे समय से चल रहे संघर्षों का भी जिक्र है. अफ्रीका को बच्चों के लिए दुनिया की सबसे बुरी जगहों में से एक बताया गया है, जहां बच्चों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है. कांगो गणराज्य के कासाई इलाके में बीते साल पांच लाख बच्चे विस्थापित हुए और 400 स्कूलों पर योजनाबद्ध तरीके से हमला किया गया.
नाइजीरिया और कैमरून में आतंकी संगठन बोको हराम ने 135 बच्चों को आत्मघाती हमलावर के रूप में इस्तेमाल किया. पिछले साल की तुलना में यह संख्या पांच गुणा है. वहीं दक्षिण सूडान में 2013 से अब तक 19,000 बच्चों को जबरन युद्ध में उतारा गया है.
अपहरण, बलात्कार झेलते, लावारिस होते रोहिंग्या बच्चे
म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर चरमपंथियों और सेना ने जिस तरह जुल्म किया है उसे सुन कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. सबसे ज्यादा सांसत में बच्चे हैं, जॉन ओवेन की इन तस्वीरों में देखिये.
तस्वीर: DW/J. Owens
गोली और चाकू मारा
अगस्त से लेकर अब तक 6 लाख से ज्यादा रोहिंग्या म्यांमार से भाग कर बांग्लादेश आए हैं. 10 साल के मोहम्मद बिलाल अपने गांव से भाग कर बांग्लादेश आए. वो कहते हैं, "सेना जिस दिन गांव आई, उसने गांव जला दिये, मेरी मां को गोली मार दी, वह भाग रही थी, मेरे पिता चल नहीं सकते थे, उन्हें चाकू मार दिया. मैंने अपनी आंखों से यह सब देखा."
तस्वीर: DW/J. Owens
तकलीफ पीछा नहीं छोड़ती
मोहम्मद की बहन नूर ने भी यह कत्लेआम देखा. वह और उसका भाई अब बांग्लादेश में लावारिस बच्चों के एक केंद्र में रहते हैं. यहां उसे नियमित खाना मिलता है और वह खेलती है. म्यांमार में उसे भूखा रहना पड़ता था. उसकी तुलना में अब हालात कुछ बेहतर हैं लेकिन उसने जो तकलीफ झेली वह उसे अब भी परेशान करती है. उसने कहा, "मुझे मेरे मां बाप, मेरा घर, मेरा देश याद आता है."
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संकट की गहरी जड़ें
रोहिंग्या मुसलमानों का संकट पिछले दूसरे विश्व युद्ध के बाद करीब 70 सालों से चला आ रहा है. इस संकट में 2016 से अब तक 2000 लोगों की जान गई जिनमें 12 साल के रहमान की मां भी थी. रहमान कहते हैं, "उन्होंने मेरे घर जला दिये, मेरी मां बीमार थी इसलिए वह वहां से नहीं निकल सकी."
तस्वीर: DW/J. Owens
बच्चों को बचाओ
5 साल की दिलु आरा अपनी बहन रोजिना के साथ इस कैंप में आई. उसने अपने मां बाप को सेना के हाथों मरते देखा है. उसने बताया, "मैं रोये जा रही थी और गोलियां हमारे सिर के ऊपर से निकलीं, मैं किसी तरह बच गयी." अंतरराष्ट्रीय संगठन सेव द चिल्ड्रन कुटुपालोंग में उन बच्चों की मदद कर रहा है जो बिन मां बाप के यहां पहुंचते हैं. बांग्लादेश में रह रहे शरणार्थी बच्चों में 60 फीसदी रोहिंग्या हैं.
तस्वीर: DW/J. Owens
जानवरों की तरह शिकार
जादेद आलम उन सैकड़ों बच्चों में हैं जो कुटुपालोंग में बिना मां बाप के पहुंचे. उनकी खुशकिस्मती है कि उनकी चाची उनका ख्याल रखती हैं और बहुत अच्छे से. वह मंडी पाड़ा नाम के गांव में पले बढ़े और वह वहां फुटबॉल खेलते थे. सेना के हमले के बाद सब कुछ बदल गया. वो बताते हैं, "उन्होंने हमसे घर छोड़ने को कहा. जब मैं अपने मां बाप के साथ भाग रहा था उन्होंने उन्हें गोली मार दी, वो वहीं मर गये."
तस्वीर: DW/J. Owens
बच्चों का अपहरण
सभी परिवार के लोग इस संकट की वजह से ही नहीं बिछड़े. रहमान अली अपने 10 साल के बेटे जिफाद के गायब होने के बाद कई हफ्ते से इन कैंपों की खाक छान रहे हैं. कई सालों से बच्चों के अपहरण की अफवाहें कैम्प में उड़ती रही हैं और रहमान को डर है कि उनका बेटा भी मानव तस्करों के हाथ लग गया है. रहमान ने कहा, "ना मैं खा सकता हूं, ना सो सकता हूं, मैं इतना परेशान हूं कि लगता है पागल हो गया हूं."
तस्वीर: DW/J. Owens
"मेरा दिमाग ठीक नहीं है"
जब गोलीबारी शुरू हुई तो सोकिना खातून ने अपने बच्चों को बचाने के लिए जो भी मुमकिन था सब किया लेकिन वह 15 साल की यास्मिन और 20 साल की जमालिता को नहीं बचा सकीं, जो उस वक्त पड़ोस के गांव में थे. वो बताती हैं, "उनके दादा दादी के सामने उनका गला काट दिया गया, मैं तो सन्न रह गयी, मुझे दर्द महसूस नहीं होता. मेरा दिमाग ठीक नहीं है." सोकिना अपने 9 बच्चों को बचाने में कामयाब रही.
तस्वीर: DW/J. Owens
हमला, बलात्कार
यास्मिन को लगता है कि वह 15 साल की है लेकिन वह इससे कम उम्र की ही दिखती है. गांव में वह पत्थरों से खेलती थी और खेतों में भागा करती थी लेकिन अब उसे बस यही याद है कि म्यांमार की सेना ने हमला किया, उन्हें मारा, उनके पिता और भाइयों की हत्या की और सैनिकों के समूह ने बलात्कार किया. यास्मिन कहती है, "मैं अपने शरीर में बहुत तकलीफ महसूस करती हूं."
तस्वीर: DW/J. Owens
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इसके अलावा यमन में मार्च 2015 में शुरू हुए गृह युद्ध के बाद से अब तक 5,000 बच्चे मारे गए हैं. खाने की किल्लत के चलते बीस लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. वहीं इराक और सीरिया में करीब 700 बच्चों की जान गई है.
यूनिसेफ की इस रिपोर्ट से पहले पोप फ्रांसिस ने भी अपने क्रिसमस संदेश में पूरी दुनिया का ध्यान इन बच्चों के हालात की ओर खींचा था. पोप ने कहा, "दुनिया भर में जहां भी बच्चे उन जगहों में रह रहे हैं, जहां शांति और सुरक्षा को खतरा है और जहां नए संघर्ष शुरू होने का तनाव है, उन सब बच्चों में हम ईसा को देखते हैं."
डेविड मार्टिन/आईबी
75 फीसदी बच्चे हैं हिंसा का शिकार
भारत के एडवोकेसी ग्रुप "नो वॉयलेंस इन चाइल्डहुड" की एक स्टडी मुताबिक दुनिया के चार में तीन बच्चे किसी न किसी रूप में हिंसा का शिकार हैं. स्टडी अनुसार दुनिया के तकरीबन 1.7 अरब बच्चे मानसिक या शारीरिक हिंसा का शिकार हैं.
तस्वीर: picture-alliance/MITO images/R. Niedring
घरों में होती पिटाई
घरों में दिया जाने वाला शारीरिक दंड, हिंसा का सबसे आम रूप है, इस घरेलू हिंसा से दुनिया में 14 साल तक की उम्र वाले करीब 1.3 अरब बच्चे प्रभावित हैं.
तस्वीर: picture-alliance/MITO images/R. Niedring
दादागिरी और गुंडागर्दी
13-15 साल की आयु वर्ग के तकरीबन 13.8 करोड़ बच्चे दादागिरी, गुंडागर्दी के शिकार बनते हैं तो वहीं 12.3 करोड़ बच्चे स्कूलों में होनेवाली लड़ाइयों में हिंसा का शिकार होते हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. de Sakutin
यौन प्रताड़ना के मामले
तीन साल के अध्ययन के बाद तैयार की गयी इस रिपोर्ट मुताबिक 15 से 19 साल के आयु वर्ग में आने वाली दुनिया की 1.8 करोड़ लड़कियां यौन शोषण का शिकार होती हैं.
तस्वीर: Getty Images/G.Mingasson
हिंसा का शिकार
रिपोर्ट के मुताबिक यौन हिंसा की दर सबसे अधिक अफ्रीका में नजर आती है. यहां 15-19 साल की उम्र वाली तकरीबन 10 फीसदी लड़कियां अपने जीवन में कभी न कभी यौन हिंसा का शिकार होती हैं.
तस्वीर: Imago/Hindustan Times/D. Gupta
परंपराओं में हिंसा
इस अध्ययन में हिंसा को समाज की परंपराओं से जुड़ा कहा गया है. रिपोर्ट मुताबिक कई समाजों में पत्नियों और बच्चों की पिटाई को अनुशासन बनाये रखने के लिए जरूरी समझा जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/Bildagentur-o
वैश्विक प्रतिबद्धता
साल 2015 में दुनिया के कई देशों ने वैश्विक लक्ष्यों को तय करते हुए साल 2030 तक दुनिया भर में बच्चों के खिलाफ हो रही हिंसा को खत्म करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जतायी थी.
तस्वीर: picture-alliance/blickwinkel/P. Cairns
खरबों का नुकसान
साल 2014 की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि बचपन की हिंसा भविष्य में उत्पादकता को तकरीबन 70 खरब डॉलर का नुकसान पहुंचाती है. गरीब परिवारों के बच्चे तनाव में जीते हैं और उनके साथ हिंसा सबसे अधिक होती है.
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/T. Chowdhury
हिंसा यहां है कम
स्टडी मुताबिक बच्चों में होने वाली हिंसा उन देशों में कम है जहां बाल जीवन दर अपने उच्च स्तर पर है और अधिक लड़कियां स्कूल जाती हैं. रिपोर्ट में बलात्कार, मानव तस्करी में हिंसा का शिकार बनते बच्चों को शामिल नहीं किया गया है.