करीब तीन दशक बाद यह पहला मौका है जबकि कांग्रेस पार्टी यूपी की सभी विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है. उसने पूरे चुनाव अभियान को महिला-केंद्रित रखा है.
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उत्तर प्रदेश में तीन चरणों के चुनाव हो चुके हैं और 23 फरवरी को चौथे चरण के लिए मतदान होंगे. इस चरण में राजधानी लखनऊ के अलावा रायबरेली जिले की भी छह सीटें शामिल हैं जिसे कांग्रेस पार्टी का गढ़ कहा जाता है और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी लोकसभा में इस सीट का प्रतिनिधित्व करती हैं.
रायबरेली जिले की छह विधानसभा सीटों में से दो सीटों पर 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के दो उम्मीदवार जीते थे लेकिन अब ये दोनों विधायक बीजेपी में शामिल हो चुके हैं और दोनों ही अब बीजेपी से उम्मीदवार हैं. 2017 में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन था जबकि इस बार इन सभी सीटों पर बीजेपी के अलावा समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के भी उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं.
सीधा चुनाव लड़े बिना कौन कौन बना मुख्यमंत्री
भारत के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में पिछले 15 सालों से मुख्यमंत्री विधान सभा की जगह विधान परिषद के सदस्य रहे हैं. एक नजर बिना सीधा चुनाव लड़े सत्ता पाने वाले नेताओं पर.
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योगी आदित्यनाथ
बीजेपी नेता योगी आदित्यनाथ मार्च 2017 से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. 2017 में राज्य के चुनावों में जीत हासिल करने के बाद जब बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए चुना था उस समय वो गोरखपुर से लोक सभा के सदस्य थे. मुख्यमंत्री बनने के लिए उन्हें लोक सभा से इस्तीफा देना पड़ा. लेकिन उसके बाद वो विधान सभा की किसी सीट से उपचुनाव लड़ने की जगह विधान परिषद के सदस्य बन गए.
तस्वीर: Samiratmaj Mishra/DW
अखिलेश यादव
उनसे पहले समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव भी मार्च 2012 से मार्च 2017 के बीच जब प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब वे भी विधान परिषद के ही सदस्य थे. आदित्यनाथ की तरह अखिलेश भी मुख्यमंत्री बनने से पहले लोक सभा के सदस्य थे.
तस्वीर: Samiratmaj Mishra/DW
मायावती
अखिलेश से पहले मई 2007 से मार्च 2012 तक प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती भी उस कार्यकाल में विधान परिषद की ही सदस्य थीं. बतौर मुख्यमंत्री यह उनका चौथा कार्यकाल था. इससे पहले के कार्यकालों में वो 2002 और 1997 में विधान सभा की सदस्य रहीं.
तस्वीर: IANS
नीतीश कुमार
नीतीश कुमार पिछले 17 सालों से बिहार के मुख्यमंत्री हैं. बस बीच में मई 2014 से फरवरी 2015 के बीच नौ महीनों के लिए वो पद पर नहीं थे. अपने पूरे कार्यकाल में वो बिहार विधान परिषद के ही सदस्य रहे हैं.
तस्वीर: IANS
राबड़ी देवी
नीतीश कुमार के पहले राबड़ी देवी तीन बार प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं. तीन कार्यकालों में से दो बार वो विधान परिषद की सदस्य रहीं और एक बार विधान सभा की.
तस्वीर: picture-alliance/AP
लालू प्रसाद यादव
राबड़ी देवी से पहले उनके पति लालू प्रसाद यादव दो बार मुख्यमंत्री रहे. वो एक कार्यकाल में विधान परिषद के सदस्य रहे और एक में विधान सभा के.
तस्वीर: AFP/Getty Images
उद्धव ठाकरे
शिव सेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे नवंबर 2019 से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं और विधान परिषद के सदस्य हैं. उनसे पहले मुख्यमंत्री रहे बीजेपी देवेंद्र फडणवीस तो विधान सभा के सदस्य थे, लेकिन फडणवीस से पहले मुख्यमंत्री रहे कांग्रेस नेता पृथ्वीराज चव्हाण विधान परिषद के सदस्य थे.
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कुछ ही राज्यों में होता है
इस सूची में इतने सारे दिग्गज नेताओं के नाम देख कर आप शायद सोच रहे हों कि यह चलन भारतीय राजनीति में आम हो गया है. हालांकि यह परिपाटी कुछ ही राज्यों तक सीमित है. भारत के 28 राज्यों में से सिर्फ छह में ही विधान सभा के अलावा विधान परिषद भी हैं. इनमें बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अलावा आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक शामिल हैं.
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राष्ट्रीय स्तर पर
प्रधानमंत्री का राज्य सभा का सदस्य होना भी कुछ हद तक मुख्यमंत्री का विधान परिषद का सदस्य होने जैसा है. भारत में चार प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल के दौरान राज्य सभा के सदस्य रहे हैं. तीन बार प्रधानमंत्री रही इंदिरा गांधी अपने पहले कार्यकाल के दौरान राज्य सभा की सदस्य थीं.
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एच डी देवगौड़ा
एच डी देवगौड़ा जब जून 1996 में प्रधानमंत्री चुने गए थे उस समय वो कर्नाटक के मुख्यमंत्री थे. सितंबर में उन्होंने राज्य सभा की सदस्यता ले ली थी. बाद में वो कई बार चुन कर लोक सभा के सदस्य भी बने, लेकिन प्रधानमंत्री के अपने छोटे कार्यकाल के दौरान वो राज्य सभा के ही सदस्य थे.
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आइके गुजराल
1990 के राजनीतिक उथल पुथल वाले दशक में देवगौड़ा की तरह आईके गुजराल भी एक छोटे कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री चुने गए थे और उस दौरान वो राज्य सभा के सदस्य रहे. वो दो बार लोक सभा के भी सदस्य रहे.
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मनमोहन सिंह
राज्य सभा से प्रधानमंत्रियों के बीच सबसे लंबा कार्यकाल मनमोहन सिंह का है. वो मई 2004 से मई 2014 तक प्रधानमंत्री रहे और इस दौरान वो राज्य सभा के ही सदस्य रहे. वो कभी लोक सभा के सदस्य नहीं रहे. 1999 में उन्होंने सिर्फ एक बार लोक सभा का चुनाव जरूर लड़ा था लेकिन हार गए थे.
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करीब तीन दशक बाद यह पहला मौका है जबकि कांग्रेस पार्टी यूपी की सभी विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है और किसी भी पार्टी से उसने गठबंधन नहीं किया है. पिछले दो दिन से पार्टी महासचिव और यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी ने कई जिलों की सभी सीटों पर सभाएं कीं और पार्टी उम्मीदवारों को जिताने की अपील की. लेकिन सवाल है कि क्या इतना मजबूत गढ़ पार्टी बचा पाएगी, जिसे 2017 की लहर में भी दो सीटों के साथ बचाने में कामयाब रही थी.
बाकी यूपी से बेहतर हालत
रायबरेली के स्थानीय पत्रकार माधव सिंह कहते हैं,"सोनिया गांधी का चुनाव क्षेत्र होने के कारण यहां कांग्रेस की हालत वैसी नहीं है जैसी कि पूरे यूपी में. चूंकि पिछली बार भी दो विधायक जीते थे इसलिए पार्टी का संगठन और जनाधार कम से कम इस जिले में अभी भी बना हुआ है. हरचंदपुर, सरैनी और बछरावां सुरक्षित सीट पर पार्टी त्रिकोणीय मुकाबले में है जबकि रायबरेली सदर सीट पर वह सीधी लड़ाई में है.
रायबरेली जिले की छह सीटों पर कांग्रेस पार्टी ने उस वक्त भी अपना दबदबा बनाए रखा था जब 1977 में जनता पार्टी की और 1991 में राम मंदिर आंदोलन की लहर थी. 1991 में रायबरेली की छह सीटों में से पांच पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी जबकि पूरे प्रदेश में उसके महज 46 विधायक जीते थे.
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं,"विपक्षी पार्टी के तौर पर पिछले पांच साल तक प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी संघर्ष जरूर करती रही लेकिन अपना जमीनी संगठन बनाने में नाकाम रही. यही कारण है कि इतनी मेहनत के बावजूद उसे सीटों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. पर सभी सीटों पर लड़ने का फैसला जरूर अच्छा है क्योंकि यह पार्टी के संगठन को मजबूत करने में सहायक सिद्ध होगा. जहां तक बात रायबरेली में अपना गढ़ बचाने की है तो पिछले चुनाव में एक और गढ़ अमेठी दरक ही चुका है. यह गढ़ कुछ हद तक बचा रहेगा तो भी और न बचा रहा तो भी उसे पार्टी को लगभग नए सिरे से ही खड़ा करना होगा.”
महिला केंद्रित घोषणाओं का लाभ
कांग्रेस पार्टी जमीन पर बहुत मजबूत भले ही न दिख रही हो लेकिन चुनाव में कांग्रेस पार्टी के महिला केंद्रित घोषणा पत्र और चालीस फीसद महिलाओं को टिकट देने की चर्चा जरूर हो रही है. पार्टी ने विधानसभा चुनाव में महिलाओं को न सिर्फ चालीस फीसद टिकट देने की घोषणा की थी बल्कि घोषित टिकटों में इस अनुपात का पालन भी किया है. साथ ही महिलाओं के लिए अलग से घोषणा पत्र भी पेश किया है जिसमें सरकार बनने पर कई तरह के वायदे किए गए हैं.
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प्रियंका गांधी के नेतृत्व में पार्टी ने ‘शक्ति विधान' नाम से इस महिला घोषणा पत्र में जिन 6 प्रमुख बिन्दुओं यानी स्वाभिमान, स्वावलंबन, शिक्षा, सम्मान, सुरक्षा और सेहत को शामिल किया है उससे ऐसा लगता है कि राज्य में लगभग जनाधार खो चुकी इस पार्टी का मकसद वर्तमान चुनाव जीतना नहीं बल्कि आगे के चुनाव के लिए जमीन तैयार करना है. साल 2017 के चुनाव में पार्टी को महज सात सीटें मिली थीं और अब तक उसके तीन विधायक पार्टी छोड़कर चले भी गए हैं, ऐसे में उसके लिए अपना आधार बचा पाना सबसे बड़ी चुनौती है. अन्य राजनीतिक दलों से हटकर घोषणाएं करना और उन पर अमल करने का भरोसा दिलाना ही उसे इस मकसद में कामयाब बना सकता है.
यूपी के जिन जिलों में अभी तक मतदान हुए हैं या जहां अभी होने हैं, वहां पार्टी उम्मीदवारों की मौजूदगी तो दिखाई दे रही है, जगह-जगह प्रियंका गांधी की रैलियां और सभाएं भी हो रही हैं लेकिन जमीन पर पार्टी का संगठन बहुत कमजोर है, यह साफ देखा जा सकता है. राजधानी दिल्ली से सटे बागपत में गन्ने के खेत में काम कर रहीं कुछ महिलाओं से जब हमने बात की तो ऐसा लगा कि कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र और उनमें महिलाओं के लिए किए गए वायदों की उन्हें कोई खास जानकारी नहीं है.
बागपत-शामली रोड के किनारे गन्ने के खेत में काम कर रहे एक परिवार से हमारी मुलाकात हुई. गन्ने की छिलाई कर रहीं रोशनी देवी कहने लगीं, "यहां तो कमल का फूल और लोकदल की ही लड़ाई है. प्रियंका गांधी भी प्रचार कर रही हैं लेकिन अभी तो उनकी कोई बात नहीं सुन रहा है. सुना है कि महिलाओं के लिए बहुत वादे किए हैं लेकिन सरकार बनने से पहले तो सभी लोग वादे करते ही हैं."
शहरों में दलितों पर ज्यादा अत्याचार
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के डाटा मुताबिक साल 2016 में दर्ज आपराधिक मामले बताते हैं कि उत्तर प्रदेश देश का सबसे असुरक्षित राज्य है. साथ ही शहरी क्षेत्रों में दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार बढ़ रहे हैं
तस्वीर: Reuters
सबसे अधिक गंभीर अपराध
रिपोर्ट मुताबिक, देश में सबसे अधिक गंभीर अपराध उत्तर प्रदेश में होते हैं. यहां महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या भी सबसे अधिक है. कुल अपराधों में उत्तर प्रदेश के बाद बिहार का नंबर आता है. लेकिन महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध उत्तरप्रदेश के बाद पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक होते हैं.
तस्वीर: Reuters/P. Kumar
दलितों पर अत्याचार
रिपोर्ट मुताबिक शहरी क्षेत्रों में दलितों पर होने वाले अत्याचार अब भी बना हुआ है. लखनऊ और पटना देश के दो ऐसे बड़े शहर हैं जहां ये अपराध सबसे अधिक है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश और बिहार दो ऐसे राज्य हैं जहां दलितों के खिलाफ सबसे अधिक अपराध दर्ज किये गये हैं. तीसरे स्थान पर राजस्थान का नंबर आता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
शहरों में स्थिति
शहरों की बात करें तो दलितों के खिलाफ अपराध में लखनऊ के बाद पटना और जयपुर का नंबर आता है. इसके बाद आईटी हब माने जाने वाले बेंगलुरू और हैदराबाद का स्थान आता है. बेंगलुरू को छोड़कर कर्नाटक में ये अत्याचार अन्य राज्यों के मुकाबले कम है.
तस्वीर: Imago/Indiapicture
स्थिति अब भी साफ नहीं
जाति आधारित अपराधों और अत्याचारों से जुड़े मामलों पर एनसीआरबी साल 2014 से डाटा जुटा रहा है लेकिन यह पहला मौका है जब ये आंकड़ें जारी किये गये हैं. ये रिकॉर्ड पुलिस द्वारा दर्ज किये गये मामलों पर आधारित है इसलिए संभव है कि जमीन पर हालात और भी खराब हो सकते हैं.
तस्वीर: Reuters
अपने हक से वाकिफ
शहरों में दलितों से जुड़ी आबादी के कोई आंकड़ें नहीं है इसलिए ये बता पाना कि शहरों में इन अपराधों का औसत क्या है, मुश्किल माना जा सकता है. सूत्रों के मुताबिक शहरों में दलित अत्याचार के अधिक मामले सामने का कारण है कि शहरों में रहने दलित अपने अधिकारों के प्रति अधिक वाकिफ हैं. वे अपराधों को दर्ज कराते हैं.
तस्वीर: Reuters
बलात्कार के मामले
एनसीआरबी का डाटा देश में बलात्कार जैसे अपराध की बेहद ही गंभीर तस्वीर पेश करता है. साल 2016 में मध्यप्रदेश में बलात्कार के सबसे अधिक मामले दर्ज किये गये. इसके बाद उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र का नंबर आता है.
तस्वीर: Reuters
राजधानी असुरक्षित
दिल्ली में हर घंटे 23 आपराधिक मामले दर्ज होते हैं. साल 2015 के मुकाबले इन मामलों में 15 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. आंकड़े मुताबिक देश में कुल दर्ज आपराधिक मामले में से 39 फीसदी मामले दिल्ली में दर्ज किेय गये.
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हालांकि ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस पार्टी ने महिलाओं के लिए घोषणापत्र में जो बातें कही हैं, महिलाएं उनसे पूरी तरह से अनजान हों. रायबरेली के एक कॉलेज से राजनीतिशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट कर रही एक छात्रा प्रियंका त्यागी का कहना था, "कांग्रेस पार्टी ने कम से कम महिलाओं और लड़कियों के लिए कहा तो है. दूसरी पार्टियों को भी उससे सीख लेनी चाहिए. शोषण की शिकार कई महिलाओं को उसने टिकट भी दिया है. कांग्रेस ने ही पंचायतों में भी महिलाओं को आरक्षण दिया था और महिला आरक्षण के लिए विधेयक भी ले आई थी जो आज तक पारित नहीं हो सका. हमें तो उम्मीद है कि कांग्रेस सरकार बनने पर अपने वादों को निभाएगी भी."
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घोषणों में विरोधाभास
कांग्रेस पार्टी ने यूपी के लिए महिलाओं को ध्यान में रखकर भले ही घोषणाएं की हों लेकिन उत्तराखंड और पंजाब जैसे अन्य राज्यों में खुद उसने ही टिकट देने में अपने चालीस फीसद के नियम का पालन नहीं किया है. उत्तराखंड में पार्टी ने सिर्फ पांच महिलाओं को टिकट दिया है जबकि बीजेपी और आम आदमी पार्टी दोनों ने ही उससे ज्यादा महिलाओं को टिकट दिए हैं. बीजेपी ने आठ और आम आदमी पार्टी ने सात महिलाओं को टिकट दिए हैं.
मेरठ विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक प्रोफेसर सतीश प्रकाश कहते हैं कि महिलाओं को राजनीति में अहम भूमिका देने में कांग्रेस का रिकॉर्ड अच्छा रहा है, इसमें कोई संदेह नहीं है. उनके मुताबिक, कांग्रेस पार्टी ने न सिर्फ देश को पहली महिला प्रधानमंत्री दी बल्कि यूपी में पहली महिला मुख्यमंत्री भी उसी की देन हैं. वह कहते हैं कि आज यूपी में कांग्रेस की जमीनी स्थिति भले ही ठीक न हो लेकिन आने वाले दिनों में उसे इसका लाभ जरूर मिलेगा.
स्वास्थ्य व्यवस्था में ये हैं भारत के टॉप 10 राज्य
नीति आयोग की ओर से जारी दूसरे स्वास्थ्य सूचकांक में केरल पहले स्थान पर है. रिपोर्ट के मुताबिक स्वास्थ्य मानकों पर अब भी मध्य प्रदेश, ओडीशा, उत्तराखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में खास तरक्की नहीं हुई है.
तस्वीर: DW/M. Kirshnan
1. केरल
केरल को एक बार फिर हेल्थ इंडेक्स यानि स्वास्थ्य सूचकांक में पहला स्थान मिला है. नीति आयोग की रिपोर्ट, "हेल्दी स्टेट्स प्रोग्रेसिव इंडिया" में राज्यों को ऐसे क्रम में रखा गया है.
तस्वीर: picture-alliance/imagebroker/O. Krüger
2. आंध्र प्रदेश
इंडेक्स में दूसरा स्थान आंध्र प्रदेश को मिला. रिपोर्ट में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में साल दर साल हुए परिवर्तन के आंकड़े हैं. साथ ही 2016 और 2018 के दौरान राज्यों में स्वास्थ्य व्यवस्था का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है.
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3. महाराष्ट्र
फरवरी 2018 में पेश की गई पहली रिपोर्ट में तमिलनाडु को तीसरे स्थान पर रखा गया था. जबकि 2019 की रिपोर्ट में महाराष्ट्र तीसरे नंबर पर आ गया है.
तस्वीर: picture alliance/robertharding/G. Hellier
4. गुजरात
चौथे नंबर पर गुजरात का स्थान रहा. यह रिपोर्ट स्वास्थ्य मानकों, प्रशासनिक मामले और नीतिगत फैसलों से निकले नतीजों को ध्यान में रखकर तैयार की गई है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky
5. पंजाब
साल 2018 के इंडेक्स पर दूसरा स्थान पाने वाला पंजाब अब पांचवे नंबर पर आ गया है. पिछली रिपोर्ट में पांचवें नंबर पर हिमाचल प्रदेश का स्थान था जो इस बार एक नीचे खिसक गया.
तस्वीर: picture-alliance/prisma/B. Bruno
6. हिमाचल प्रदेश
पहली हेल्थ इंडेक्स रिपोर्ट में साल 2014-15 को आधार वर्ष माना गया था और साल 2015-16 को संदर्भ वर्ष माना गया था. वहीं दूसरी रिपोर्ट में साल 2015-16 को आधार वर्ष और संदर्भ वर्ष 2017-18 माना गया.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. R. Jain
7. जम्मू और कश्मीर
बड़े राज्यों की सूची में हिमाचल के बाद जम्मू और कश्मीर का नंबर आता है. रिपोर्ट के मुताबिक जम्मू और कश्मीर अन्य राज्यों के मुकाबले स्वास्थ्य मोर्चे पर सतत विकास करने में दूसरे स्थान पर रहा.
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/F. Khan
8. कर्नाटक
कर्नाटक आठवें स्थान पर रहा. रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और ओडीशा में स्वास्थ्य मोर्चे पर कोई खास तरक्की नहीं हुई है.
तस्वीर: Imago/G. Hellioer
9. तमिलनाडु
पिछला रिपोर्ट में तीसरे स्थान पर रहा तमिलनाडु अब नौवें नंबर पर आ गया है.
तस्वीर: imago/imagebroker
10. तेलंगाना
स्वास्थ्य मानकों में दसवें स्थान पर तेलंगाना का स्थान है.
तस्वीर: picture alliance/abaca
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राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जिस तरह से मतदान में महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ रही है, उसे देखते हुए कांग्रेस की घोषणाएं देर-सवेर महिलाओं को जरूर आकर्षित करेंगी और अभी भी कर रही हैं. यूपी की बात करें तो साल 2007 के विधानसभा चुनाव में जहां सिर्फ 42 फीसद महिलाओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था, वहीं साल 2012 के विधानसभा चुनाव में यह आंकड़ा बढ़कर 60.28 फीसद और साल 2017 में यह 63.31 प्रतिशत तक पहुंच गया था.
बात तो चली है
वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "आंकड़ों से साफ है कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में महिला मतदाता किसी भी दल की दशा और दिशा बदलने में सक्षम हैं. इसलिए वो राजनीतिक दलों से अपने हितों से संबंधित घोषणाओं की उम्मीद न करें, ऐसा संभव नहीं. कांग्रेस को इसका तात्कालिक लाभ कितना मिलता है, यह तो चुनाव के बाद पता चलेगा लेकिन इसके जरिए महिलाओं से संबंधित मुद्दों का जो नैरेटिव उसने गढ़ा है, उसे दूसरे दल भी महत्व देने पर मजबूर होंगे."
कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र में न सिर्फ राजनीतिक हिस्सेदारी की बात शामिल है बल्कि उन सब क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की कोशिश की गई है जिनसे महिलाओं का सशक्तिकरण हो सके. मसलन, सरकारी पदों पर 40 फीसद महिलाओं की नियुक्ति, महिलाओं के लिए मुफ्त बस सेवा, सस्ता ऋण, कामकाजी महिलाओं के लिए 25 शहरों में छात्रावास, आंगनबाड़ी महिलाओं के लिए 10 हजार रुपये हर महीने का मानदेय, राशन दुकानों में 50 फीसद का संचालन महिलाओं के हाथों में, स्नातक की लड़कियों को स्कूटी, 12वीं की छात्राओं को स्मार्ट फोन, पुलिस बल में 25 फीसद महिलाओं को नौकरी जैसी घोषणाएं की गई हैं.