भारत के सुप्रीम कोर्ट में क्यों है 'उच्च जातियों' का वर्चस्व
२५ नवम्बर २०२५
पिछले छह महीनों से भारत के सर्वोच्च न्यायालय की अगुवाई एक ऐसा व्यक्ति कर रहा था, जो भारत के सबसे ज्यादा भेदभाव झेलने वाले समुदायों में से एक से आते थे. 23 नवंबर को रिटायर हुए मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई की अगुवाई में देश ने एक दुर्लभ दृश्य देखा. जब देश के सर्वोच्च न्यायालय में एक दलित विरासत वाला व्यक्ति बैठा. दलित समुदाय को हिंदू समाज की जाति व्यवस्था में सबसे निचली पायदान पर माना जाते है. यहां तक कि इस समुदाय को पहले "अछूत” भी कहा जाता था. आज भी देश के कई हिस्सों में उन्हें भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ता है.
गवई के पिता दलित समुदाय के एक प्रमुख नेता थे. उन्होंने गवई के जन्म से पहले बौद्ध धर्म अपना लिया था. जिस कारण गवई भी बौद्ध धर्म का पालन करते थे. लेकिन अपने करियर के दौरान उन्होंने अपनी दलित पहचान को भी स्वीकार किया और माना कि संविधान की आरक्षण जैसी नीतियों ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट के शीर्ष तक पहुंचने में मदद की है. गवई, सुप्रीम कोर्ट के इतिहास के पहले बौद्ध और दूसरे दलित मुख्य न्यायाधीश रहे हैं.
गवई की इस उपलब्धि के बावजूद भारत के कई हिस्सों में आज भी महिलाएं और वंचित समुदाय अपने जीवन में आगे बढ़ने के दौरान ऐतिहासिक पिछड़ापन, पक्षपात और लैंगिक भेदभाव का सामना करते हैं. डीडब्ल्यू ने भारत की सर्वोच्च अदालत में विविधता की स्थिति को ध्यान से देखने की कोशिश की है. इस जांच में जजों के लिंग, धर्म और जाति जैसे पहलुओं का ध्यान रखा गया है.
आंकड़े क्या कहते हैं?
सुप्रीम कोर्ट अपने न्यायाधीशों की जाति से जुड़ा आधिकारिक डेटा सार्वजनिक नहीं करता है. जिस कारण हर जज की जाति और धार्मिक पहचान को निश्चित रूप से पता लगाना संभव नहीं है. लेकिन फिर भी हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि गवई के रिटायर होने के बाद बचे हुए 33 जजों में से कम से कम 12 जज ब्राह्मण हैं. जो कि हिंदू धर्म की सबसे ऊंची जातियों से आते हैं. 2020 के प्यू रिसर्च सेंटर के सर्वे के मुताबिक, ब्राह्मण जाति भारत की कुल आबादी का केवल चार फीसदी हिस्सा है. लेकिन देश के सर्वोच्च न्यायालय में उनकी हिस्सेदारी 36 फीसदी है.
इन 12 जजों के अलावा अदालत के बाकी आठ जज भी अन्य उच्च जातियों से ही आते हैं. जिससे सुप्रीम कोर्ट के कुल जजों का 60 फीसदी हिस्सा ऊंची जाति के हिंदू जजों से ही बन जाता है.
अब गवई के रिटायर होने के बाद अदालत में केवल एक दलित जज ही बचा है. यहां तक कि अनुसूचित जनजाति (यानी एसटी) समुदाय से तो एक भी जज नहीं है. एसटी वर्ग में उन आदिवासी समुदायों को शामिल किया जाता है, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर माना गया है और संविधान के तहत उन्हें विशेष सुरक्षा मिली है. हालांकि, दलितों के साथ मिलकर यह समुदाय भारत की कुल आबादी का 35 फीसदी हिस्सा है.
बचे हुए अन्य पांच जज पिछड़ा वर्ग (यानी ओबीसी) से आते हैं. संविधान में उन्हें सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा माना गया है. इनके अलावा डीडब्ल्यू अन्य तीन जजों की जाति की पुष्टि नहीं कर सका है. बाकी कम से कम चार जज धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं. जिसमें एक मुस्लिम, एक ईसाई, एक पारसी और एक जैन है. 33 जजों में से केवल एक जज, न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना महिला हैं. हालांकि, देश की लगभग 48.5 फीसदी आबादी महिलाएं हैं. इसके बावजूद आज तक कभी किसी महिला ने मुख्य न्यायाधीश का पद नहीं संभाला है.
उम्मीदवारों में नाममात्र की विविधता
डीडब्ल्यू से बात करने वाले कई पूर्व सुप्रीम कोर्ट जजों ने शीर्ष अदालत में विविधता की कमी के लिए सीमित और कमजोर भर्ती प्रक्रिया को जिम्मेदार ठहराया है.
पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज मदन लोकुर (2012–2018) ने कहा, "अब ज्यादा से ज्यादा महिलाएं और वंचित समुदायों के लोग सिस्टम में आ रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद अभी भी उनकी संख्या काफी कम है.” उन्होंने कहा, "ऐतिहासिक रूप से कानूनी व्यवस्था हमेशा से पुरुषों के कब्जे में ही रही है, और उसमें भी ज्यादातर वही लोग आगे बढ़े हैं, जो अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) से नहीं आते हैं. उन्होंने आगे कहा, "हालांकि, स्थिति बदल जरूर रही हैं. लेकिन असल सवाल यह है कि क्या बदलाव की यह रफ्तार पर्याप्त है?”
भारत की पहली डिजिटल जनगणना: मोबाइल ऐप से जुटाया जाएगा 1.4 अरब लोगों का डाटा
इसके अलावा कई जजों ने यह भी माना कि भारतीय न्यायपालिका में आज भी भाई–भतीजावाद व्यवस्था मौजूद है. हालांकि, साथ ही उन्होंने यह भी माना कि अब कई पहली पीढ़ी के वकील और जज भारी संख्या में सामने आ रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने में जजों को दशकों लग जाते हैं
बदलती व्यवस्था का एक संकेत यह भी है कि 2024 तक भारत की जिला अदालतों में 38 फीसदी जज महिलाएं हो गई थी. हालांकि, छह साल पहले तक यह संख्या केवल 28 फीसदी ही थी.
नवंबर 2024 में रिटायर हुए पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा था, "मैंने पिछले 15–20 सालों में एक बड़ा बदलाव होते देखा है, यह बेहद बड़ा है.” उन्होंने कहा, "हमें सुनिश्चित करना होगा कि जिस पूल से हम सुप्रीम कोर्ट में जज चुनते हैं, वह विविध हो.” चंद्रचूड़ हमेशा से पारदर्शिता, विविधता और व्यक्तिगत अधिकारों के प्रबल समर्थक माने जाते रहे हैं. उन्होंने आगे कहा, "लोग सीढ़ी चढ़ रहे हैं.”
हालांकि, उन्होंने यह भी माना कि करियर में आगे बढ़ने की प्रक्रिया "काफी धीमी” होती है. जिसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने वाले जजों को आमतौर पर यहां तक पहुंचने के लिए 50 वर्ष का समय लग जाता है.
महिला वकीलों के लिए "काफी बेहतर हुई है स्थिति”
इसमें सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है कि 2022 के एक सर्वे के मुताबिक भारत में केवल 15 फीसदी वकील ही महिलाएं हैं.
2025 की शुरुआत में रिटायर हुई दिल्ली हाई कोर्ट की पूर्व जज रेखा पल्ली ने कहा कि आज भी ज्यादातर मुवक्किल पुरुष वकीलों को ही तरजीह देते हैं. उन्होंने कहा, "मेरे समय में मेरे साथ केवल कुछ गिनी-चुनी ही महिलाएं (वकालत में) थी. अब हालातों में काफी सुधार हुआ है, लेकिन अब भी महिलाओं को काफी कम अवसर मिलते हैं.”
भारत में शाकाहार: निजी पसंद या जाति की राजनीति?
उन्होंने यह भी कहा कि अदालत में बहस करने वाली भूमिकाओं में पर्याप्त महिला वकील नहीं हैं. उन्होंने बताया, "जब मैं युवा लड़कियों से पूछती हूं कि वह अदालत में बहस क्यों नहीं कर रहीं, तो कई बार वह बताती हैं कि उन्हें पर्याप्त केस ही नहीं मिलते है.” जिस वजह से उन्हें अदालत में अपनी क्षमता दिखाने का मौका ही नहीं मिल पाता है.
युवा जजों की राह में काफी संघर्ष
उत्तरी भारत की एक युवा जज सीमा (इस लेख के लिए वह अपनी पहचान सीमा बताती है) कई घंटों की यात्रा करके अपने घर से निचली अदालत में मामलों की सुनवाई करने जाती हैं. अपने परिवार में ऐसा प्रतिष्ठित पद पाने वाली वह पहली महिला हैं. लेकिन अपने सपनों की नौकरी करते हुए उन्हें लगातार कई कठिन संघर्ष झेलने पड़ते हैं.
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "कुछ सालों बाद तो मैं यह नौकरी ही छोड़ना चाहती थी. जैसे-जैसे आप बड़े शहरों से छोटे शहरों की ओर जाते हैं, वैसे-वैसे हालात और व्यवहार खराब होने लगते हैं.” सीमा ने बताया कि उन्हें कई बार वरिष्ठ जजों को खाना परोसने, चाय या कॉफी लाने जैसे काम भी करने पड़ते थे. उन्होंने कहा, "एक बार तो एक वरिष्ठ वकील ने कोर्ट में खुलेआम कह दिया था कि ‘इसे क्या पता? यह नई है,'” जिसे वह साफ तौर पर अपने प्रति लैंगिक भेदभाव का मामला मानती हैं.
'भारतीय न्यायपालिका भी भारतीय समाज का प्रतिबिंब'
डीडब्ल्यू से बात करते हुए कई पूर्व हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जजों ने न्यायपालिका में किसी भी तरह का भेदभाव मानने से साफ इनकार किया. जस्टिस पल्ली ने कहा, "यह कहना गलत होगा कि कोई भी व्यवस्था भेदभाव से लिप्त है. मैं यह बात बहुत स्पष्ट करना चाहता हूं कि अगर आप अच्छे हैं, तो आपको प्रमोशन जरूर मिलेगा.”
हालांकि, जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह नहीं नकारा कि कभी–कभार "उत्पीड़न के कुछ मामले” रहे हैं. उन्होंने कहा, "भारतीय न्यायपालिका भारतीय समाज का ही प्रतिबिंब है. इसलिए यह उम्मीद करना कि न्यायपालिका पूरी तरह सामाजिक पक्षपात से मुक्त होगी, शायद सही नहीं होगा.” उन्होंने आगे कहा, "लेकिन हमारे पास एक मजबूत शिकायत-निवारण प्रणाली है, जिसे हाई कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.”
शिकायत यानी दोधारी तलवार
सीमा यह सुन कर हंस पड़ती हैं कि वह आधिकारिक शिकायत भी तो दर्ज की जा सकती हैं. उन्होंने कहा, "न्यायपालिका एक बहुत जुड़ा हुआ तंत्र है, जो संपर्कों से चलता है. अगर मैं शिकायत करूंगी, तो मुझ पर भी तुरंत शिकायत दायर हो जाएगी और मेरी सालाना रिपोर्ट खराब कर दी जाएगी.”
सालाना रिपोर्ट यानी जिसमें किसी न्यायिक अधिकारी के पूरे साल के काम और व्यवहार का मूल्यांकन किया जाता है. यह जजों के प्रमोशन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. सीमा और कई अन्य जिला-स्तर के जजों ने डीडब्ल्यू को बताया कि सिस्टम में "पुरानी दुश्मनी निकालने” के लिए सालाना रिपोर्ट का गलत इस्तेमाल करना भी आम बात है.
जाति के जिक्र पर सख्त हुई यूपी सरकार, कहां-कहां लगाई रोक
एक अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले सिविल जज ने बताया कि उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा दिया गया था और बिना किसी जांच या सुनवाई के ही उन्हें तुरंत ट्रांसफर कर दिया गया था. उन्होंने कहा, "एक बार शिकायत लग गई, तो चाहे वह बाद में झूठी भी साबित हो जाए, लेकिन प्रमोशन को तो भूल ही जाइए. यह सब काफी आम बातें हैं.”
एक पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज ने नाम न बताने की इच्छा जताते हुए कहा कि उन्होंने सुना है कि सालाना रिपोर्ट का दुरुपयोग होता है. लेकिन उन्होंने इसके साफ सबूत नहीं देखे हैं. उनके अनुसार, यह समस्या व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने से ज्यादा कुछ चुनिंदा लोगों को करियर में आगे बढ़ाने से जुड़ा होता है.
सुप्रीम कोर्ट ने जाति-आधारित भेदभाव की निंदा की
हालांकि, कुछ चर्चित मामलों ने इस सोच के विपरीत तस्वीर पेश की है.
मई 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका के भीतर जाति-आधारित भेदभाव की कड़ी आलोचना की. यह मामला एक निचली अदालत के जज से जुड़ा था, जिन्हें उनकी सालाना रिपोर्ट में अचानक आई गिरावट और बढ़ोतरी के आधार पर जबरन रिटायरमेंट दे दिया गया था. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने उस जज की बर्खास्तगी रद्द कर दी थी. यहां तक कि टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार अदालत ने कहा था, "उन्हें निशाना बनाया जा रहा है, वह भी सिर्फ इसलिए कि वह निचली जाति से आते हैं. हाई कोर्ट में यह एक बड़ी समस्या है.”
एक तरफ यह मामला भेदभाव का सबूत माना जा सकता है. वहीं दूसरी तरफ, पूर्व जस्टिस चंद्रचूड़ का कहना था कि यह घटना दिखाती है कि शिकायत-निवारण प्रणाली काम करती है.
एक अच्छा सुप्रीम कोर्ट जज बनने के लिए क्या जरूरी है?
भारत की सर्वोच्च अदालत तक पहुंचने की चाहत रखने वाले जजों को सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम से सिफारिश प्राप्त करनी होती है, जिसमें पांच सबसे वरिष्ठ जज शामिल होते हैं. साथ ही, कोलेजियम की आंतरिक चर्चाएं और किसी नाम को चुनने या न चुनने के कारण सार्वजनिक नहीं किए जाते हैं. और जिन उम्मीदवारों को अस्वीकार कर दिया जाता है, उनके पास अपील करने का भी कोई तरीका नहीं होता है.
जस्टिस लोकुर और जस्टिस चंद्रचूड़ भी कोलेजियम में रह चुके हैं. उन्होंने बताया कि चयन प्रक्रिया में जजों की वरिष्ठता, उनके निर्णयों की गुणवत्ता, उनकी सालाना रिपोर्ट और ईमानदारी जैसे मानदंड शामिल होते हैं. जिसके बाद विविधता के कारक भी आते हैं. जिसमें उनकी भौगोलिक पृष्ठभूमि, उनका व्यक्तिगत अनुभव, उनकी जाति और धर्म शामिल होते हैं.
जस्टिस चंद्रचूड़ के अनुसार, उम्मीदवारों का अधिक विविध समूह तैयार करने के लिए स्कूलों और लॉ फर्मों के शुरुआती स्तर पर सुधार की जरूरत है. उन्होंने कहा, "सिस्टम के बाहर खड़े होकर आलोचना करना काफी आसान होता है, लेकिन असल बदलाव लाना एक अलग बात है.” साथ ही, उन्होंने यह भी जोड़ा कि मौजूदा न्याय प्रणाली लिंग, जाति या धर्म के आधार पर प्रमोशन को नहीं रोकती है.
जस्टिस लोकुर ने कहा, "यदि किसी में योग्यता है, तो उसे जरूर प्रमोशन मिलेगा.” और जहां तक चयन प्रक्रिया की चर्चा सार्वजनिक करने की बात है. उन्होंने कहा, "आपको जजों पर भरोसा करना होगा.”
जजों के चयन के नए तंत्र को सुप्रीम कोर्ट ने किया रद्द
भारत सरकार ने 2014 में विपक्ष के मजबूत समर्थन के साथ नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (एनजेएसी) बिल पारित किया था. जिसके तहत कोलेजियम की जगह एक नई चयन प्रक्रिया प्रस्तावित की गई थी. जिसके अनुसार इस नई समिति में भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ दो सबसे वरिष्ठ जज, कानून मंत्री और न्यायपालिका से बाहर के दो "प्रतिष्ठित” व्यक्तियों का शामिल होना आवश्यक था.
लेकिन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस बिल को खारिज कर दिया. अदालत ने कहा कि गैर-न्यायिक सदस्यों की भागीदारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता करेगी. जिला जज सीमा कहती हैं कि "जब भी कोई ऊपरी अदालतों की जवाबदेही पर सवाल उठाता है, वह स्वतंत्रता और मेरिट का मुद्दा उठा देते हैं. जिससे पारदर्शिता पीछे छूट जाती है. सुधारों के बिना सिस्टम में कुछ भी नहीं बदलेगा.”
हाल ही में गवई के रिटायर होने और 2026 में कई अन्य जजों के रिटायर होने के बाद सुप्रीम कोर्ट के पास अपनी विविधता सुधारने का एक अवसर जरूर होगा. लेकिन शायद इसकी शुरुआत यह मानने से होगी कि सिस्टम में बदलाव की जरूरत है.