ट्रंप प्रशासन ने अपनी नई अफगानिस्तान नीति में पाकिस्तान से जिस तरह की भूमिका की उम्मीद लगा रखी है, उसके पूरे होने के आसार फिलहाल नहीं नजर आ रहे हैं.
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दोनों देशों के आपसी रिश्तों में पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा कड़वाहट नजर आ रही है और आपसी विश्वास की जो खाई है उसमें भी और इजाफा ही हुआ है. पिछले हफ्ते जब पाकिस्तानी विदेश मंत्री ख्वाजा आसिफ वॉशिंगटन के दौरे पर आये तो उम्मीद की जा रही थी कि वह ठंडे पड़ रहे रिश्तों में जान फूंकने की कोशिश करेंगे.
लेकिन थिंक टैंकों और कुछ अन्य मंचों पर जो उनके बयान आये उनमें टकराव और शिकायत के सुर मेल-मिलाप की बातों से कहीं ज़्यादा तेज थे और कुछ विश्लेषकों ने उसे एक हताशा की तौर पर भी देखा. ख्वाजा आसिफ ने उन अमरीकी आरोपों को "खोखला” कहा जिनमें कहा जा रहा है कि अभी भी पाकिस्तानी जमीन पर आतंकवादियों के लिए सुरक्षित पनाहगाह मौजूद हैं और पाकिस्तान अपने पड़ोसियों के खिलाफ आतंकवाद को एक अहम हथियार के तौर पर इस्तेमाल करता है. पाकिस्तानी विदेश मंत्री का कहना था, "अपने सत्तर साल पुराने दोस्तों के साथ इस तरह से बात नहीं की जाती.”
उन्होंने ख़ासतौर से अमरीकी रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस पर बगैर नाम लिए हुए निशाना साधते हुए कहा, "जब कोई हमसे यह कहता है कि हमें आखिरी मौका दिया जा रहा है, हमें यह बर्दाश्त नहीं है. आखिरी मौका, दूसरा मौका, पहला मौका ये सब हमें कबूल नहीं है. हमें और कुछ नहीं चाहिए, हम सिर्फ़ ये चाहते हैं कि हमारे साथ बराबरी का और सम्मानजनक बर्ताव हो.”
अफगानिस्तान का अंतहीन संघर्ष
अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण को 16 साल बीत गये हैं. युद्ध प्रभावित यह देश आज भी इस्लामी आतंक की चपेट में है. वहां लगातार आतंकी हमले होते रहते हैं.
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'ग्रीन जोन'
काबुल के सबसे सुरक्षित माने जाने वाले इलाके डिप्लोमैटिक क्वार्टर में घुसकर 31 मई को आतंकियों ने बड़ा धमाका किया. कम से कम 90 लोगों की जान गयी. जर्मन दूतावास को खासतौर पर नुकसान पहुंचा. इसकी जिम्मेदारी किसी ने भी नहीं ली है.
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हमलों की लंबी श्रृंखला
अफगान राजधानी पर पहले भी ऐसे हमले होते आये हैं. मई में इसके पहले भी आईएस के एक हमले में आठ विदेशी सैनिक मारे गये थे. मार्च में विद्रोहियों के एक हमले में अफगान सेना के अस्पताल में कम से कम 38 लोगों की जान गयी थी.
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"ऑपरेशन मंसूर"
इसी साल अप्रैल में अफगान तालिबान ने प्रण लिया था कि वे अफगान सुरक्षा बलों और गठबंधन सेनाओं पर हमले तेज करेंगे. इसे वे सालाना वसंत आक्रमण कहते हैं, जिसे उन्होंने "ऑपरेशन मंसूर" नाम दिया. मंसूर तालिबानी नेता था, जो 2016 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया.
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ट्रंप की अफगान नीति
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अब तक इसकी घोषणा नहीं की है. लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि उनकी नीति काफी हद तक पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा जैसी ही होगी. वे भी अफगान सरकार और तालिबान के बीच सुलह का रास्ता चाहेंगे.
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अफगान शांति प्रक्रिया
अफगानिस्तान पर्यवेक्षक कहते हैं कि आतंकी समूह इस समय शांति वार्ता में दिलचस्पी नहीं दिखाएगा क्योंकि फिलहाल वे अफगान सरकार पर भारी पड़ रहे हैं. 2001 के बाद से इस समय उनके कब्जे में सबसे ज्यादा अफगान जिले हैं.
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पाकिस्तानी मदद
पाकिस्तान पर आरोप लगते हैं कि वह तालिबान का इस्तेमाल कर अफगानिस्तान में भारत का असर कम करना चाहता है. हाल ही में पाकिस्तान तालिबान के पूर्व प्रवक्ता एहसानुल्लाह एहसन (तस्वीर में) पकड़ा गया लेकिन फिर पाकिस्तान ने उसे माफ कर दिया जब उसने भारत पर तालिबान की मदद का आरोप लगाया.
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वारलॉर्ड्स की भूमिका
तालिबान के अलावा अफगान वारलॉर्ड्स का आज भी देश में काफी प्रभाव है. 20 साल बाद हिज्बे इस्लामी के नेता गुलबुद्दीन हिकमत्यार राजनीति में कदम रखने के लिए काबुल लौटे. सितंबर 2016 में अफगान सरकार ने उनके साथ समझौता किया ताकि दूसरे वारलॉर्ड्स और आतंकी समूह अफगान सरकार के साथ काम करें.
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जुड़े हैं रूस के हित
रूस ने अफगानिस्तान के साथ अपने संबंध प्रगाढ़ करने पर ध्यान दिया है. कई सालों तक दूरी बनाये रखने के बाद अब रूस अफगानिस्तान पर "उदासीन" रवैया नहीं रखना चाहता. रूस ने अफगानिस्तान में कई वार्ताएं आयोजित कीं, जिसमें चीन, पाकिस्तान और ईरान को शामिल किया.
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अप्रभावी सरकार
राष्ट्रपति अशरफ गनी को व्यापक समर्थन हासिल नहीं है और अफगान सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं. देश में सत्ता हथियाने को लेकर एक अंतहीन सा दिखने वाला संघर्ष जारी है. (शामिल शम्स/आरपी)
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रक्षा मंत्री मैटिस ने अमरीकी सेनेट के सामने पिछले हफ्ते ही कहा था कि तालिबान को काबू में लाने के लिए वह "एक और बार” पाकिस्तान के साथ काम करने के हक में हैं लेकिन अगर वह नाकाम रहा तो "राष्ट्रपति हर संभव कदम उठाने के लिए तैयार हैं.”
मैटिस ने यह भी कहा कि इसमें पाकिस्तान को गैर-नाटो सहयोगी देश के दर्जे से हटाना भी शामिल होगा. अगर ऐसा होता है तो ये पाकिस्तान के लिए एक बड़ा झटका माना जाएगा. अमरीका में काफी हद तक यह सोच जड़ पकड़ चुकी है कि अफगानिस्तान में मिली नाकामी के पीछे पाकिस्तान का अहम किरदार रहा है.
अमरीकी फौज के सर्वोच्च अधिकारी जनरल जोजफ डनफर्ड ने भी कांग्रेस के सामने कहा कि ये "स्पष्ट है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों के तार आतंकवादी संगठनों से जुड़े हैं.” न्यूयॉर्क में एक सभा में बोलते हुए ख्वाजा आसिफ का कहना था कि यह कहना बेहद आसान है कि पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क, हाफिज सईद और लश्करे तैयबा का साथ देता है. उनका कहना था, "ये हमारे लिए सरदर्द हैं. हमें वक्त दें और हम इस सरदर्द को खत्म करेंगे. आप हमारा सरदर्द और बढ़ा ही रहे हैं.”
अफगानियों के जख्मों पर संगीत का मरहम लगाता अमेरिकी
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उनका कहना था कि अमेरिका पाकिस्तान की कुर्बानियों को नजरअंदाज कर रहा है और इस बात को भूल रहा है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान की सबसे अहम भूमिका रही है. लेकिन ट्रंप प्रशासन और कांग्रेस दोनों ही जगह ये सोच बनती नजर आई है कि पाकिस्तान की बातों पर नहीं बल्कि वो जमीन पर क्या कर रहा है उस पर नजर रखी जानी चाहिए.
विश्लेषकों का कहना है कि फिलहाल ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है कि पाकिस्तान अपनी नीतियों में कोई बड़ी तब्दीली करेगा क्योंकि अभी भी उनकी अफगानिस्तान नीति भारत के खिलाफ एक रणनीतिक ढाल की तरह है. अमेरिका की तरफ से अफगानिस्तान में भारत की और बड़ी भूमिका की पैरवी ने भी पाकिस्तानी नीति-निर्धारकों में असुरक्षा की भावना को और मजबूत ही किया है और वे ऐसा कोई कदम शायद ही उठाएं जिससे अफगानिस्तान पर उनके प्रभाव में कमी आये.
आने वाले दिनों में दो बड़े अमरीकी प्रतिनिधिमंडल पाकिस्तान के दौरे पर जाएंगे और उसके फौरन बाद इस महीने के अंत में अमरीकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन और फिर अगले महीने रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस भी पाकिस्तान के दौरे पर जा रहे हैं.
पाकिस्तान की घरेलू राजनीति में इसे अमरीका की नजरों में पाकिस्तान की अहमियत की तौर पर पेश किया जाएगा लेकिन वॉशिंगटन में माना जा रहा है कि ट्रंप प्रशासन इन दौरों से पुरजोर तरीके से दबाव बनाने की कोशिश में है. विश्लेषकों की राय में अमरीका और पाकिस्तान के रिश्ते एक गंभीर संकट से गुजर रहे हैं और आने वाले दिनों में किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.
बच्चाबाजी बनी तालिबान का हथियार
बच्चाबाजी यानी लड़कों का यौन शोषण अफगानिस्तान में एक परंपरा जैसा है. लेकिन इसके चक्कर में सैकड़ों पुलिसवाले मारे जा चुके हैं. तालिबान इन बच्चों के हाथों ही उन अफसरों की हत्याएं करवा रहा है. तस्वीरें प्रतीकात्मक हैं.
तस्वीर: DW/O. Didar
क्या है बच्चाबाजी
अफगानिस्तान में ताकतवर राजनीतिज्ञ, सैन्य अफसर, कबीलाई सरदार और अन्य प्रभावशाली लोग बच्चों को दास की तरह रख सकते हैं. यह उनके प्रभाव का प्रतीक होता है.
तस्वीर: DW/O. Didar
कैसे होती है बच्चाबाजी
दास बनाए गए इन बच्चों को महिलाओं जैसे कपड़े पहनाकर पार्टियों में नचाया जाता है और इनका यौन शोषण भी किया जाता है.
तस्वीर: DW/H. Sirat
समलैंगिकता से इतर
बच्चाबाजी को समलैंगिकता नहीं माना जाता. समलैंगिकता तो इस्लाम में हराम है लेकिन बच्चाबाजी को एक सांस्कृतिक परंपरा कहकर स्वीकार किया जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
औरतें और बच्चे
कई अफगान इलाकों में कहावत है कि औरतें बच्चे पैदा करने के लिए होती हैं और लड़के मजे करने के लिए.
तस्वीर: DW/N. Behzad
कैसे होते हैं बच्चे
बच्चाबाजी के लिए इस्तेमाल होने वाले बच्चे 10 से 18 साल के बीच के होते हैं. या तो वे गरीबी की वजह से इसमें फंसते हैं या फिर उन्हें अगवा करके इस पेशे में धकेल दिया जाता है. कई बार गरीब परिवार अपने लड़कों को बेच भी देते हैं.
तस्वीर: DW/A. Behrad
बच्चाबाजी के बाद
बच्चाबाजी झेलने के बाद जो लड़के बड़े होते हैं, देखा गया है कि वे हिंसक हो जाते हैं और तालिबान उन्हें उनके मालिकों के कत्ल के लिए इस्तेमाल करता है.
तस्वीर: DW/H. Sirat
तालिबान ने बैन कियाा
अफगानिस्तान में जब (1996-2001) तालिबान का राज था तो इस परंपरा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. लेकिन हाल के सालों में इसने फिर जोर पकड़ लिया है. दक्षिणी और पूर्वी ग्रामीण इलाकों में इसका चलन काफी है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Shirzada
क्यों बढ़ा
अफगान समाज में महिलाओं पर बहुत ज्यादा पाबंदियां हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि इससे पुरुषों और महिलाओं का संपर्क कम होता है और बच्चाबाजी बढ़ती है.
तस्वीर: DW/H. Sirat
कानून कहां है?
अफगानिस्तान इंडेपेंडेंट ह्यूमन राइट्स कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक देश में रेप के खिलाफ तो कड़े कानून हैं लेकिन बच्चाबाजी को लेकर यह कानून स्पष्ट नहीं है.