हिज्बुल्लाह की वजह से लेबनान पर गहरा रहा है आर्थिक संकट
४ अक्टूबर २०१९
अमेरिका ने हिज्बुल्लाह की वजह से लेबनान पर कई तरह के प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए हैं. यदि हिजबुल्लाह अमेरिका के खिलाफ लड़ने का फैसला लेता है तो लेबनान की हालत भी वेनेजुएला जैसी हो सकती है.
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अमेरिका और ईरान के बीच शुरू हुए संघर्ष ने पूरे मध्य पूर्व में तनाव पैदा कर दिया है. लेबनान भी अब इसकी चपेट में आ गया है. यहां अमेरिका ने ईरान समर्थित हिज्बुल्लाह पर प्रतिबंध लगा दिया है. जल्द ही वह प्रतिबंधों को उसके और सहयोगियों पर भी लागू कर सकता है. ट्रंप प्रशासन ने लेबनानी चरमपंथी संगठन और उससे जुड़े संस्थानों पर प्रतिबंधों को तेज कर दिया है. पहली बार सांसदों के साथ-साथ स्थानीय बैंक को भी निशाना बनाया गया है. अमेरिका दावा करता आया है कि ये चरमपंथी संगठन से जुड़े हुए हैं. प्रतिबंध से अरब के इस छोटे से देश में भी आर्थिक संकट गहरा सकता है.
अमेरिका के दो अधिकारी सितंबर महीने में बेरूत गए थे और चेतावनी दी थी कि प्रतिबंधों के माध्यम से हिज्बुल्लाह के आय के स्रोत को बाधित किया जाएगा. अमेरिका के इस कदम से लेबनान गंभीर आर्थिक और वित्तीय संकट की ओर बढ़ रहा है. लेबनान के अधिकारियों ने चेतावनी दी है कि देश आर्थिक और बैंकिंग सेक्टर में इतना दबाव नहीं झेल सकता है. पिछले महीने संयुक्त अरब अमीरात में अमेरिका में आतंकवाद और वित्तीय खुफिया जानकारी विभाग में अंडर सेक्रेटरी ने कहा था, "हमने हाल ही में हिज्बुल्लाह के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की है. यह आतंकवाद विरोधी कार्यक्रम के इतिहास में की गई सबसे बड़ी कार्रवाई है. अमेरिका इस बात के लिए निश्चिंत है कि लेबनान सरकार और वहां की केंद्रीय बैंक ऐसा काम करेगी जिससे यह सुनिश्चित हो कि हिज्बुल्लाह, बैंक से किसी तरह से पैसा प्राप्त न कर सके."
हिजबुल्लाह का इतिहास
हिज्बुल्लाह का अरबी में अर्थ होता है 'भगवान का दूत'. इसकी स्थापना 1982 में इस्रायल द्वारा लेबनान पर हमले के बाद ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड द्वारा की गई थी. इस समूह को लेबनान के शिया समुदाय का समर्थन प्राप्त है. समूह द्वारा अस्पताल, स्कूल जैसे संस्थाएं भी चलाई जाती है. यह आज मध्य पूर्व में एक काफी प्रभावशाली समूह बन गया है. इसके पास लेबनान की सेना से ज्यादा हथियार हैं. सीरिया में गृह युद्ध के समय इसने राष्ट्रपति बसर अल असद की सहायता के लिए अपने लड़ाकों को भेजा. हिज्बुल्लाह और उसके सहयोगियों की पकड़ संसद और सरकार में पहले से कहीं अधिक मजबूत हो गई है. यह राष्ट्रपति मिषेल आउन का एक मजबूत सहयोगी है.
इसलिए ईरान की सऊदी अरब से नहीं पटती
मध्य पूर्व के दो ताकतवर देशों सऊदी अरब और ईरान के बीच हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहता है. दोनों धर्म से लेकर तेल और इलाके में दबदबा कायम करने तक, हर बात पर झगड़ते हैं.
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शिया-सुन्नी टकराव
दोनों ही देश खुद को इस्लाम की दो अलग अलग शाखों का संरक्षक मानते हैं. सऊदी अरब जहां एक सुन्नी देश है, वहीं ईरान शिया देश. इसीलिए ये दोनों दुनिया भर में शिया और सुन्नियों के बीच होने वाले विवादों की धुरी माने जाते हैं.
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तेल के दाम
1973 में अरब-इस्राएल युद्ध के दौरान तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक ने तेल के दाम बहुत बढ़ा दिये थे. अरब तेल उत्पादक देशों ने इस्राएल समर्थक समझे जाने वाले देशों पर रोक लगा दी, जिनमें अमेरिका भी शामिल था.
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तनाव बढ़ा
ईरान चाहता था कि तेल के दाम और बढ़ाये जाएं ताकि उसके यहां महत्वाकांक्षी औद्योगिक विकास परियोजनाओं के लिए धन मिल सके. लेकिन सऊदी अरब नहीं चाहता था कि तेल के दामों में बेतहाशा वृद्धि हो. इसके पीछे उसका मकसद अपने सहयोगी देश अमेरिका को बचाना था.
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क्रांति का निर्यात
ईरान में 1979 में हुई इस्लामी क्रांति के दौरान पश्चिम समर्थक शाह को सत्ता से बेदखल किया गया और देश में इस्लामी गणतंत्र की स्थापना हुई. इसके बाद क्षेत्र के सुन्नी देशों ने ईरान पर आरोप लगाया कि वह उनके यहां क्रांति को "भेजने" की कोशिश कर रहा है.
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इराक-ईरान युद्ध
सितंबर 1980 में इराक ने ईरान पर हमला कर दिया और यह युद्ध आठ साल तक चला. सऊदी अरब ने वित्तीय रूप से इराकी सरकार की मदद की और अन्य सुन्नी देशों को भी ऐसा ही करने के लिए प्रोत्साहित किया. इससे ईरान और सऊदी अरब की कड़वाहट और बढ़ी.
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हज में टकराव
सऊदी सुरक्षा बलों ने 1987 में मक्का में ईरानी श्रद्धालुओं के अनाधिकृतक अमेरिका विरोधी प्रदर्शनों के खिलाफ कार्रवाई की. इस दौरान 400 लोग मारे गये हैं. इससे गुस्साए ईरानियों ने तेहरान में सऊदी दूतावास में लूटपाट की.
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हज का सियासी इस्तेमाल
अप्रैल 1988 में सऊदी अरब ने ईरान से अपने राजनयिक रिश्ते तोड़ लिये. 1991 तक ईरान से कोई श्रद्धालु हज यात्रा पर नहीं गया. ईरान अकसर सऊदी अरब पर हज यात्रा को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने का आरोप लगाता रहा है.
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बेहतर हुए संबंध
ईरान में मई 1997 के राष्ट्रपति चुनावों में सुधारवादी मोहम्मद खतामी की जीत के बाद दोनों देशों के रिश्तों में सुधार देखने को मिला. मई 1999 में राष्ट्रपति ईरानी राष्ट्रपति ने सऊदी अरब का ऐतिहासिक दौरा किया था.
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इराक की जंग
2003 में इराक पर अमेरिकी हमले ने सऊदी-ईरान तनाव को और बढ़ दिया. अमेरिकी हमले के चलते इराक में बाथ पार्टी का शासन खत्म हुआ और बहुसंख्यक शिया समुदाय को सत्ता में आने का मौका मिला. इससे इराक पर ईरान का प्रभाव बढ़ने लगा.
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अरब स्प्रिंग
2011 में जब अरब दुनिया में बदलाव की लहर चली तो सऊदी अरब ने पड़ोसी बहरीन में अपने सैनिक भेजे. वहां सुन्नी शासक के खिलाफ बहुसंख्यक शिया लोग बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरे. सऊदी अरब ने ईरान पर बहरीन में गड़बड़ी फैलाने का आरोप लगाया.
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सीरिया संकट
ईरान-सऊदी अरब के झगड़े में 2012 के सीरिया संकट ने भी आग में घी का काम किया. सीरिया की जंग में जहां ईरान सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद का साथ दे रहा है, वहीं उनके खिलाफ लड़ रहे विद्रोहियों को सऊदी अरब और उसके सहयोगी अमेरिका का समर्थन मिला.
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यमन का मोर्चा
यमन संकट में भी सऊदी अरब और ईरान एक दूसरे के सामने आ खड़े हुए. मार्च 2015 में सऊदी अरब ने सुन्नी अरब देशों का एक गठबंधन बनाया, जिसने यमनी राष्ट्रपति अब्द रब्बू मंसूर हादी के समर्थन में यमन में हस्तक्षेप किया. वहीं ईरान हूती बागियों के साथ खड़ा दिखा.
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हज में भगदड़
सितंबर 2015 में हज यात्रा के दौरान भगदड़ हुई जिसमें 2,300 विदेशी श्रद्धालु मारे गये. मरने वालों में ज्यादातर ईरानी लोग शामिल थे. इसके बाद ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातोल्लाह खमेनेई ने कहा कि सऊदी शाही परिवार इस्लाम के सबसे पवित्र स्थलों की व्यवस्था संभालने लायक नहीं है.
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फिर टूटे रिश्ते
जनवरी 2016 में सऊदी अरब में एक प्रमुख शिया मौलवी निम्र अल निम्र को मौत की सजा दी गयी. उन पर सरकार विरोधी प्रदर्शन भड़काने के आरोप लगे. ईरान ने इस पर गहरी नाराजगी जतायी. ईरान में सऊदी राजनयिक मिशन पर हमले किये गये और सऊदी अरब ने ईरान से अपने राजनयिक रिश्ते तोड़ लिये.
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हिज्बोल्लाह एंगल
मार्च 2016 में लेबनान के शिया मिलिशिया गुट और ईरान के सहयोगी हिज्बोल्लाह को अरब देशों ने आतंकवादी करार दिया. इससे पहले हिज्बोल्लाह के प्रमुख ने सऊदी अरब पर शिया और सुन्नियों के बीच "नफरत भड़काने" का आरोप लगाया था.
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लेबनान पर 'पकड़'
नवंबर 2017 में लेबनान के प्रधानमंत्री साद हरीरी ने इस्तीफा दे दिया और कहा कि ईरान हिज्बोल्लाह के जरिए लेबनान पर अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है. पद छोड़ने के बाद हरीरी ने सऊदी अरब जाकर शाह सलमान से मुलाकात की.
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कतर संकट
इससे पहले जून 2017 में सऊदी अरब और उसके कई सहयोगी देशों ने कतर के साथ अपने रिश्ते तोड़ लिये. उन्होंने कतर पर ईरान से नजदीकी संबंध कायम करने और चरमपंथियों का समर्थन करने का आरोप लगाया.
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ट्रंप के साथ सऊदी अरब
अक्टूबर 2017 में सऊदी अरब ने कहा कि वह ईरान के मुद्दे पर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की मजबूत रणनीति का समर्थन करता है. ट्रंप ने 2015 में ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर हुए समझौते को मंजूर करने से इनकार कर दिया.
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हिज्बुल्लाह को यह जानकारी मिल चुकी है कि अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से वह प्रभावित हो रहा है. इसके बावजूद समूह का कहना है कि वह कई सालों तक इस प्रतिबंधों का सामना करने के लिए तैयार है. समूह ने चेतावनी दी है कि लेबनान की सरकार का यह दायित्व है कि वह इन प्रतिबंधों में नागरिकों की रक्षा करे. ये समूह से जुड़े नागरिक या तो शिया समुदाय के हैं या फिर इनके अंदर हिजबुल्लाह के प्रति सहानुभूति है.
जुलाई महीने में वित्त विभाग ने हिज्बुल्लाह के दो सांसदों अमीन शेरी और मोहम्मद राद को निशाना बनाया था. यह पहली बार था जब लेबनान की संसद के वर्तमान सांसदों के खिलाफ कार्रवाई की गई. एक महीने बाद ट्रेजरी ऑफिस ऑफ द फॉरेन एसेट्स कंट्रोल ने जमाल ट्रस्ट बैंक पर प्रतिबंध लगा दिया. इसके पीछे वजह बताई गई "जान बूझ कर बैंकिंग गतिविधियों को सुविधाजनक बनाना." जब बैंक ने किसी तरह का शुल्क देने से मना कर दिया तो उसे बंद कर दिया. हालांकि इस पूरे मामले पर ना तो शेरी और ना ही राद ने किसी तरह की प्रतिक्रिया दी. अब तक जिनके ऊपर प्रतिबंध लगाया गया है कि वह या तो हिज्बुल्ला अधिकारी हैं या फिर शिया मुस्लिम जिनके बारे में अमेरिका कहता है कि ये उन संगठनों से जुड़े हुए हैं.
कैसे प्रभावित होगा लेबनान
हिज्बुल्लाह के नेता हसन नसरल्लाह का कहना है, "समूह अन्य उपायों को देखेगा. अमेरिका बैंकों को निशाना बना रहा है जो हिज्बुल्लाह के नहीं हैं और ना ही इससे उनके समूह का किसी प्रकार का लेन-देन होता है. साथ ही सिर्फ धार्मिक जुड़ाव होने की वजह से धनी लोगों और व्यापारियों को परेशान किया जा रहा है. हम पहले भी कह चुके हैं कि यदि हमारे साथ गलत होता है, तो भी हम धैर्य बनाए रखते हैं. लेकिन यदि हमारे लोगों के साथ गलत होता है तो हमें उससे निपटने के लिए दूसरा रास्ता निकालना चाहिए."
लेबनानी अमेरिकी विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर वालिद मारूश कहते हैं, "लेबनान की अर्थव्यवस्था में 70% डॉलर है. लेबनान इस मुद्रा का उपयोग कर रहा है. ऐसी स्थिति में देश को अमेरिकी कानूनों का पालन करना होगा. हमारी हालत पहले से ही खराब है. यदि लेबनान अमेरिकी आदेश को मानने के इंकार करता है तो यह और खराब हो जाएगा."
स्थानीय अखबार में आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ अनटोइन फराह कहते हैं, "यदि हिज्बुल्लाह अमेरिका के खिलाफ लड़ने का फैसला लेता है तो देश की मुद्रा तेजी से गिरेगी. लंब समय तक के लिए ऐसा हो सकता है और आखिरकार वेनेजुएला जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है." अपनी बेरुत यात्रा के दौरान अमेरिका के अस्सिटेंट सेक्रेटरी डेविड शेंकर ने कहा कि जो भी लेबनानी व्यक्ति किसी भी तरह से हिज्बुल्लाह का समर्थन कर रहे हैं, भविष्य में उनके ऊपर कार्रवाई की जाएगी. स्थानीय टीवी चैनल की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका चरमपंथी संगठन से जुड़े ईसाई सहयोगियों को निशाना बनाना शुरू कर सकता है, जिसमें संसद के 14 सदस्य हैं. स्वास्थ्य मंत्री सहित तीन कैबिनेट मंत्री हैं.
अमेरिका पर सबसे बड़े आतंकी हमले के साथ ही वॉशिंगटन ने तय किया था कि अफगानिस्तान में घुसकर अल कायदा और तालिबान को साफ कर दिया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. क्या है अफगान युद्ध का लेखा जोखा.
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आम अफगान नागरिक
2009 से अगस्त 2019 तक 32,000 आम नागरिक मारे गए. 60,000 से ज्यादा घायल हुए. विस्थापितों की तादाद लाखों में है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/EPA/J. Rezayee
अमेरिकी और गठबंधन सेना की क्षति
अफगान युद्ध में अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय सहयोग सेना (आईसैफ) के 3,459 सैनिक मारे गए.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
अफगान आर्मी लहूलुहान
2014 से अगस्त 2019 तक अफगान सेना के 45,000 जवान इस युद्ध में मारे जा चुके हैं.
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अमेरिका का खर्च
अक्टूबर 2001 से मार्च 2019 तक अफगान युद्ध में अमेरिका ने 760 अरब डॉलर खर्च किए.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/AP Photo/File/Lt. Col.. Leslie Pratt, US Air Force
तालिबान को कितना नुकसान
18 साल से जारी युद्ध में तालिबान के 31,000 से ज्यादा लड़ाके मारे गए.
तस्वीर: picture-alliance/T. Koene
बड़े निशाने
अफगान युद्ध में अमेरिका को अल कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को मारने में सफलता मिली. बिन लादेन के अलावा तालिबान के कई बड़े कमांडर भी मारे गए.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Ausaf
तालिबान अब भी मजबूत
अफगान सरकार और संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक अमेरिका की अगुवाई वाली गठबंधन सेनाओं के हमले में तालिबान से ज्यादा आम नागरिक मारे गए. ऐसे हमलों ने अमेरिका के प्रति नफरत और तालिबान के प्रति सहानुभूति पैदा करने का काम किया.
तस्वीर: picture-alliance/Getty Images/T. Watkins
इस्लामिक स्टेट का एंगल
अफगानिस्तान में अब इस्लामिक स्टेट भी सक्रिय है. देश के पूर्व में पाकिस्तान से सटी सीमा पर कुनार के जंगलों में इस्लामिक स्टेट की पकड़ मजबूत हो चुकी है. आईएस 2015 से वहां है. कहा जा रहा है कि तालिबान अगर कमजोर हुआ तो इस्लामिक स्टेट ताकतवर होगा.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. Gul
अशांत भविष्य
युद्ध और गृह युद्ध में फंसे अफगानिस्तान का भविष्य डगमग ही दिखता है. देश में विदेशी ताकतों की छत्रछाया में सक्रिय रहने वाले कई धड़े हैं. इन धड़ों के बीच शांति की उम्मीदें कम ही हैं. भू-राजनीतिक स्थिति के चलते ये देश पाकिस्तान, भारत, चीन, रूस, अमेरिका और ईरान के लिए अहम बना रहता है.