अमेरिका ने कहा है कि बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को हटाने में उसकी कोई भूमिका नहीं थी. व्हाइट हाउस ने सोमवार को अमेरिकी हस्तक्षेप के आरोपों को "सिर्फ झूठा" बताया.
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अमेरिका ने कहा है कि दक्षिण एशिया के देश बांग्लादेश की राजनीतिक उठापटक में उसकी कोई भूमिका नहीं है. व्हाइट हाउस की प्रवक्ता कैरिन ज्यां-पिएरे ने पत्रकारों से बातचीत में कहा, "हमारा इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं है. यह आरोप या अफवाहें कि अमेरिका की सरकार इन घटनाओं में शामिल थी, बिल्कुल गलत हैं."
रविवार को भारत के इकोनॉमिक टाइम्स अखबार में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि हसीना ने अमेरिका पर उन्हें हटाने की कोशिश का आरोप लगाया क्योंकि अमेरिका बांग्लादेश के सेंट मार्टिन द्वीप पर नियंत्रण चाहता था. अखबार ने कहा कि हसीना ने यह संदेश अपने करीबी सहयोगियों के माध्यम से दिया था.
हालांकि हसीना के बेटे सजीब वाजेद ने इस बात का खंडन करते हुए रविवार को सोशल मीडिया साइट 'एक्स' पर एक पोस्ट में कहा कि उन्होंने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था.
ज्यां-पिएरे ने कहा, "हमारा मानना है कि बांग्लादेश की जनता को वहां की सरकार का भविष्य तय करना चाहिए और इस मामले में हमारा यही रुख है. "
इसी साल जनवरी में आम चुनाव में चौथी बार जीतने के बाद हसीना ने सत्ता संभाली थी, लेकिन विपक्ष ने चुनाव का बहिष्कार किया था और अमेरिकी विदेश विभाग ने कहा था कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं था. अपने चौथे कार्यकाल में हसीना सात महीने ही पद पर रह पाईं और इस्तीफे के साथ उनके 15 साल के निरंतर शासन का अंत हो गया.
क्यों आया सेंट मार्टिन का जिक्र
कुछ खबरों में आरोप लगाया गया कि शेख हसीना की सरकार गिरने की वजह सेंट मार्टिन द्वीप में अमेरिका की दिलचस्पी है. भारतीय मीडिया में कहा गया था कि शेख हसीना पांच अगस्त को देश छोड़ने से पहले राष्ट्र को संबोधित करना चाहती थीं, लेकिन छात्रों के हिंसक प्रदर्शनों के बीच उनका भाषण नहीं हो पाया.
मोहम्मद यूनुस: बांग्लादेश के 'गरीबों का बैंकर'
मोहम्मद यूनुस बांग्लादेश में अंतरिम सरकार का नेतृत्व करेंगे. बांग्लादेश के इकलौते नोबेल विजेता यूनुस को देश में हीरो माना जाता है, लेकिन शेख हसीना सरकार के कार्यकाल में उन पर 100 से भी ज्यादा मुकदमे थोपे गए.
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अमेरिका में पढ़ाई
मोहम्मद यूनुस को "सबसे गरीब लोगों का बैंकर" के रूप में जाना जाता है. उनका जन्म 1940 में चिट्टागोंग के एक समृद्ध परिवार में हुआ. बड़े होकर उन्हें अमेरिका में पढ़ाई करने के लिए फुलब्राइट स्कॉलरशिप मिली. बांग्लादेश की आजादी के तुरंत बाद ही वो वापस आ गए.
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अकाल से मिली प्रेरणा
वापस आने पर उन्हें चिट्टागोंग विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया लेकिन एक भयानक अकाल से गुजर रहे उनके देश की हालत उनसे देखी नहीं गई. उन्होंने खुद कहा था कि उन हालात में उन्हें अर्थशास्त्र के सिद्धांत पढ़ना बहुत कठिन लग रहा था और वो कुछ ऐसा करना चाहते थे जिससे लोगों की तुरंत मदद हो सके.
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एक अनोखे बैंक की स्थापना
उन्होंने गरीबी की वजह से पारंपरिक लोन के लिए अयोग्य पाए जाने वाले लोगों को लोन दिलाने के कई तरीकों पर प्रयोग करने के बाद 1983 में ग्रामीण बैंक की स्थापना की. आज इस बैंक के 90 लाख से ज्यादा ग्राहक हैं, जिनमें से 97 प्रतिशत महिलाएं हैं.
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महिलाओं के जरिए बदलाव
'ग्रामीण बैंक' के जरिए यूनुस ने ग्रामीण महिलाओं को बहुत ही छोटे लोन देने का अभियान शुरू किया. इन महिलाओं को कृषि उपकरण या व्यापार उपकरण खरीदने और अपनी कमाई बढ़ाने के लिए लोन की जरूरत थी.
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'गरीबों का बैंकर'
ग्रामीण बैंक की बांग्लादेश में तेजी से हुए आर्थिक विकास को गति देने के लिए दुनियाभर में सराहना की गई. बाद में बैंक के इस काम को बीसियों विकासशील देशों में अपनाया गया. यूनुस और ग्रामीण बैंक को 2006 में गरीबी को कम करने में मदद करने के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया.
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समझा गया प्रतिद्वंदी
लेकिन बांग्लादेश में उनकी लोकप्रियता की वजह से वो तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना की आंखों में खटकने लगे. हसीना ने उन पर गरीबों का "खून चूसने" का आरोप लगाया. 2007 में यूनुस ने "नागरिक शक्ति" नाम की अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने की योजना की घोषणा की. बाद में उन्होंने कुछ ही महीनों में अपनी इस योजना को वापस भी ले लिया, लेकिन उनकी इस योजना को एक चुनौती की तरह लिया गया.
यूनुस के खिलाफ 100 से भी ज्यादा आपराधिक मामले दर्ज किए गए. सरकार की एक इस्लामिक एजेंसी ने उनपर समलैंगिकता को बढ़ावा देने का आरोप भी लगाया और उन्हें बदनाम करने की पूरी कोशिश की. 2011 में सरकार ने उन्हें जबरन ग्रामीण बैंक से भी निकलवा दिया. यूनुस ने इस फैसले को चुनौती दी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को सही ठहराया.
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जेल की सजा
जनवरी, 2024 में ढाका की एक श्रम अदालत ने उन्हें और उनके तीन साथियों को उनकी एक कंपनी में श्रमिक कल्याण कोष नहीं बनाने का दोषी ठहराया और छह महीने की जेल की सजा सुनाई. हालांकि उन्हें फैसले को चुनौती देने तक जमानत पर बरी भी कर दिया.
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सत्य की जीत
इन चारों ने उन पर लगे आरोपों से इनकार किया. उस समय बांग्लादेश की अदालतों पर हसीना सरकार के फैसलों पर मोहर लगाने के आरोप लग रहे थे. इस मामले की भी इसी आधार पर आलोचना की गई. दुनियाभर में कई लोगों और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संस्थानों ने भी इस फैसले की आलोचना की. छह अगस्त को ढाका की एक अदालत ने यूनुस को बरी कर दिया. - सीके/एए (एएफपी)
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एक रिपोर्ट के मुताबिक शेख हसीना ने खुलासा किया था कि "अगर मैंने सेंट मार्टिन और बंगाल की खाड़ी अमेरिका को दे दिए होते, तो मैं सत्ता में बनी रह सकती थी."
रिपोर्ट के मुताबिक उन्होंने एक पत्र में लिखा, "अगर मैंने सेंट मार्टिन और बंगाल की खाड़ी को अमेरिका को दे दिया होता तो मैं सत्ता में बनी रह सकती थी. कृपया कट्टरपंथियों द्वारा इस्तेमाल न हों.” हालांकि, अब उनके बेटे वाजेद ने इन बयानों से इंकार किया है.
वाजिद ने ट्वीट किया, "हाल ही में एक अखबार में प्रकाशित मेरी मां के इस्तीफे से जुड़ा बयान पूरी तरह से झूठा और मनगढ़ंत है. मैंने अभी उनसे पुष्टि की है कि उन्होंने ढाका छोड़ने से पहले या बाद में कोई बयान नहीं दिया है."
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क्यों अहम है एक छोटा सा द्वीप
सेंट मार्टिन द्वीप बंगाल की खाड़ी के पूर्वोत्तर में स्थित एक छोटा कोरल द्वीप है. यह द्वीप बांग्लादेश के दक्षिणी प्रायद्वीप कॉक्स बाजार-टेकनाफ के लगभग नौ किलोमीटर दक्षिण में, म्यांमार के पास स्थित है. यह बांग्लादेश का एकमात्र कोरल द्वीप है.
इस द्वीप का क्षेत्रफल केवल तीन वर्ग किलोमीटर है और यहां लगभग 3,700 लोग रहते हैं. ये लोग मुख्य रूप से मछली पकड़ने, धान की खेती, नारियल की खेती और समुद्री शैवाल की कटाई का काम करते हैं. इस शैवाल को सुखाकर म्यांमार को निर्यात किया जाता है.
हाल ही में यह द्वीप तब चर्चा में आया जब बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) पर आरोप लगा कि उसने अमेरिका को द्वीप बेचकर वहां एक सैन्य अड्डा बनवाने की योजना बनाई थी ताकि चुनावों में जीत हासिल की जा सके. हालांकि अमेरिकी विदेश विभाग ने इन आरोपों को खारिज करते हुए बांग्लादेश की संप्रभुता का सम्मान करने और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से लोकतंत्र को बढ़ावा देने की बात कही.
इस द्वीप को बांग्ला में 'नारिकेल जिंजिरा' या नारियल द्वीप के नाम से भी जाना जाता है. इसे 'दारुचिनी द्वीप' या दालचीनी द्वीप भी कहा जाता है. पहले यह द्वीप टेकनाफ प्रायद्वीप का हिस्सा था, लेकिन प्रायद्वीप का एक हिस्सा डूबने के कारण यह मुख्य भूमि से अलग होकर एक द्वीप में बदल गया.
कभी भारत का हिस्सा था द्वीप
इस द्वीप का इतिहास काफी पुराना है. 18वीं सदी में अरबी व्यापारी वहां सबसे पहले बसे थे और तब उन्होंने इसे 'जजीरा' नाम दिया था. साल 1900 में एक ब्रिटिश भूमि सर्वेक्षण टीम ने सेंट मार्टिन द्वीप को ब्रिटिश भारत का हिस्सा बनाया और इसका नाम एक ईसाई पादरी सेंट मार्टिन के नाम पर रखा. हालांकि कुछ रिपोर्टों के अनुसार इसका नाम चटगांव के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर, मिस्टर मार्टिन के नाम पर रखा गया था.
बांग्लादेश: शेख हसीना के हाथ से कैसे फिसल गई सत्ता
बांग्लादेश के इतिहास में सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहीं शेख हसीना को भीषण हिंसा और छात्रों के आंदोलन के कारण इस्तीफा देकर देश छोड़ना पड़ना. आखिर कैसे सत्ता उनके हाथों से फिसल गई. उनके राजनीतिक सफर पर एक नजर.
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शेख हसीना ने कैसे गंवाई सत्ता
5 अगस्त, 2024 को शेख हसीना ने बांग्लादेश के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और सेना के विमान में सवार होकर भारत पहुंच गईं. जुलाई की शुरूआत से ही बांग्लादेश में हजारों छात्र देश के अलग-अलग हिस्सों में मौजूदा कोटा सिस्टम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे.
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कोटा सिस्टम का विरोध
साल 2018 तक बांग्लादेश में सरकारी नौकरियों में 56 फीसदी सीटों में कोटा लागू था. इसमें 30 प्रतिशत स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों और उनके बच्चों के लिए, 10 प्रतिशत महिलाओं, 10 फीसदी पिछड़े जिलों के लोगों, पांच फीसदी अल्पसंख्यकों और एक प्रतिशत कोटा विकलांगों के लिए था. इस तरह सभी भर्तियों में केवल 44 फीसदी सीटें ही बाकियों के लिए खाली थीं.
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क्यों सड़कों पर आए छात्र
2018 में सरकार ने एक सर्कुलर जारी कर कोटा सिस्टम को खत्म करने की घोषणा की. इसके अंतर्गत स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारजनों के लिए आरक्षित 30 फीसदी कोटा को भी खत्म करने की बात कही गई. इसके खिलाफ 2021 में हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की गई. 5 जून, 2024 को हाई कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया कि वह संबंधित सर्कुलर को रद्द करे और स्वतंत्रता सेनानियों के लिए चले आ रहे 30 फीसदी कोटा को कायम रखे.
इसके बाद देश के कई हिस्सों में छात्रों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा. 21 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि 93 फीसदी नौकरियों में भर्तियां योग्यता के आधार पर की जाएं. कोर्ट ने कहा 1971 के आंदोलन में शामिल रहे सेनानियों के परिजनों को सिर्फ पांच फीसदी आरक्षण मिले.
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हिंसा और इस्तीफे की मांग
जुलाई से चल रहा छात्रों का आंदोलन सुप्रीम कोर्ट के फैसले से शांत नहीं हुआ और यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में छात्रों का विरोध प्रदर्शन जारी रहा. छात्र संगठनों ने चार अगस्त को पूर्ण असहयोग आंदोलन शुरू करने की घोषणा की थी.
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हसीना के इस्तीफे के पहले क्या हुआ
4 अगस्त को हुई हिंसा में 94 लोग मारे गए. जिनमें 13 के करीब पुलिस वाले थे. सरकार ने प्रदर्शनों को रोकने के लिए सड़कों पर सेना को उतार दिया लेकिन छात्र पीछे नहीं हटे और हसीना के इस्तीफे की मांग की. 5 अगस्त को छात्र संगठनों ने ढाका में लॉन्ग मार्च का एलान किया. जब प्रदर्शनकारी पीएम आवास की ओर बढ़ने लगे तो हसीना ने सेना के विमान में सवार होकर देश छोड़ दिया.
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बांग्लादेश पर मजबूत पकड़
दक्षिण एशियाई देश बांग्लादेश में 76 साल की शेख हसीना दुनिया की सबसे लंबे समय तक सत्ता में रहने वालीं सरकार प्रमुख थीं. शेख हसीना पहली बार 1996 में प्रधानमंत्री बनी और 2008 में वापस लौटीं और 5 अगस्त, 2024 तक पद पर बनी रहीं.
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हसीना पर आरोप
शेख हसीना पर सत्ता में 15 साल रहने के दौरान विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी, अभिव्यक्ति की आजादी पर दमन और असहमति पर दमन के आरोप लगे. उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे. लेकिन हसीना सरकार इन आरोपों को खारिज करती रही.
तस्वीर: Mohammad Ponir Hossain/REUTERS
विरासत में मिली राजनीति
शेख हसीना को राजनीति विरासत में मिली. उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान ने 1971 में पाकिस्तान से आजादी के लिए बांग्लादेश की लड़ाई का नेतृत्व किया था. 1975 में सैन्य तख्तापलट में उनके परिवार के अधिकांश लोगों के साथ उनकी हत्या कर दी गई थी. हसीना भाग्यशाली थीं कि उस समय वह यूरोप की यात्रा पर थीं. 1947 में दक्षिण-पश्चिमी बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) में जन्मी हसीना पांच बच्चों में सबसे बड़ी हैं.
तस्वीर: Mohammad Ponir Hossain/REUTERS
भारत में निर्वासित जीवन
शेख हसीना वर्षों तक भारत में निर्वासन में रहीं. फिर बांग्लादेश वापस चली गईं और अवामी लीग की प्रमुख चुनी गईं. उन्होंने 1973 में ढाका विश्वविद्यालय से बंगाली साहित्य में ग्रैजुएशन की और अपने पिता और उनके छात्र समर्थकों के बीच मध्यस्थ के रूप में राजनीतिक अनुभव हासिल किया.
तस्वीर: Saiful Islam Kallal/AP Photo/picture alliance
हसीना और आम चुनाव
शेख हसीना जनवरी, 2024 में लगातार चौथी बार चुनाव जीतीं. इस चुनाव का मुख्य विपक्षी दल और उनकी प्रतिद्वंद्वी बेगम खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने बहिष्कार किया था. इस चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली के आरोप लगे.
तस्वीर: AFP
निरंकुश शासन के आरोप
बीएनपी और मानवाधिकार समूहों का कहना है कि हसीना की सरकार ने जनवरी, 2024 में हुए चुनाव से पहले 10,000 विपक्षी पार्टी कार्यकर्ताओं को झूठे आरोपों में गिरफ्तार किया था. इस चुनाव का विपक्ष ने बहिष्कार किया था. जैसे-जैसे समय बीतता गया, वह निरंकुश होती गईं और उनके शासन में राजनीतिक विरोधियों और कार्यकर्ताओं की सामूहिक गिरफ्तारी, जबरन गायब होना और न्यायेतर हत्याओं के आरोप लगे.
तस्वीर: Mohammad Ponir Hossain/REUTERS
शेख हसीना और खालिदा जिया के बीच संघर्ष
हसीना ने अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बीएनपी की प्रमुख खालिदा जिया के साथ हाथ मिला लिया और लोकतंत्र के लिए एक विद्रोह का नेतृत्व किया, जिसने 1990 में सैन्य शासक हुसैन मोहम्मद इरशाद को सत्ता से उखाड़ फेंका. लेकिन जिया के साथ गठबंधन लंबे समय तक नहीं चला और दोनों महिलाओं के बीच तीखी प्रतिद्वंद्विता जारी रही.
तस्वीर: Getty Images/AFP/FARJANA K. GODHULY
कमजोर हो चुकीं खालिदा जिया
शेख हसीना और खालिदा जिया के बीच कई सालों से राजनीतिक संघर्ष चला आ रहा है. 78 साल की जिया दो बार प्रधानमंत्री रह चुकी हैं और फरवरी 2018 में भ्रष्टाचार के एक मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद से जेल में हैं. उनकी तबीयत बिगड़ती जा रही है और 2019 में उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था. बांग्लादेश के राष्ट्रपति मोहम्मद शहाबुद्दीन ने 5 अगस्त, 2024 को जिया को रिहा करने का आदेश दिया.
तस्वीर: A.M. Ahad/picture alliance/AP Photo
हसीना के भारत के साथ संबंध
भारत और बांग्लादेश के बीच बेहद मजबूत संबंध हैं. जब कभी भी बांग्लादेश को जरूरत पड़ी तो भारत उसके साथ खड़ा नजर आया. दोनों देशों के बीच पिछले 53 सालों से द्विपक्षीय संबंध हैं. 2023 में भारत में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन में भारत ने बांग्लादेश को विशेष अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया था. हसीना के पीएम रहते हुए दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ा है.
तस्वीर: Manish Swarup/AP/picture alliance
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1974 में बांग्लादेश और म्यांमार के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें सेंट मार्टिन द्वीप को बांग्लादेशी क्षेत्र के रूप में मान्यता दी गई. हालांकि, द्वीप की समुद्री सीमा को लेकर विवाद बना रहा. बांग्लादेशी मछुआरों को म्यांमार की नौसेना द्वारा हिरासत में लिया गया और चेतावनी दी गई.
2012 में अंतरराष्ट्रीय समुद्री न्यायाधिकरण ने एक फैसले में इस द्वीप पर बांग्लादेश के अधिकार को मान्यता दी. यह द्वीप बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था के लिए अहम है और विशेष आर्थिक क्षेत्र में होने की वजह से यह समुद्री व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.