चीन-अमेरिका की रस्साकशी में सोलोमन आइलैंड्स का क्या होगा?
राहुल मिश्र
कॉलम
२५ अप्रैल २०२२
सोलोमन आइलैंड्स और चीन के बीच सामरिक समझौता अब तूल पकड़ रहा है, इस मुद्दे में अमेरिका और आस्ट्रेलिया भी कूद पड़े है. और सोलोमन द्वीप की सरकार को दोनों तरफ से धमकियां मिल रही हैं.
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चीन और सोलोमन आइलैंड्स ने 19 अप्रैल 2022 को एक सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए. सूत्रों के अनुसार समझौते के अंतर्गत चीन की नौसेना को सोलोमन आईलैंड्स पर तैनाती का अधिकार मिलेगा, दोनों देशों की नौसेनाएं एक दूसरे के रक्षा कमांडों पर ट्रेनिंग कर सकेंगी. इसके अलावा आपसी सहयोग के तमाम आयाम खुलेंगे.
सबसे बड़ी बात यह कि इस समझौते के लागू होने के बाद चीन की दक्षिण पैसिफिक आइलैंड्स क्षेत्र में मौजूदगी बढ़ जाएगी. चीन के लिए यह बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि इससे आस्ट्रेलिया के आसपास और दक्षिण पैसिफिक में चीन की सामरिक पकड़ बढ़ जाएगी.
अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया को क्या तकलीफ है?
चीन और सोलोमन आइलैंड्स के बीच हुआ यह रक्षा समझौता अमेरिका और आस्ट्रेलिया को रास नहीं आ रहा है. अमेरिका को लगता है कि चीन और सोलोमन आइलैंड्स के बीच हुए रक्षा समझौते में पारदर्शिता का अभाव है. और यह लिबरल इंटरनेशनल आर्डर की आधुनिक व्याख्या और मान्यता के खिलाफ है.
उसका यह भी मानना है कि चीन की इस प्रकार की गतिविधि नई नहीं है बल्कि पिछले कई सालों से चली आ रही उस नीति का हिस्सा है जिसके तहत चीन इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के छोटे और मझोले देशों के साथ गुपचुप तौर पर बड़े समझौते कर रहा है.
चीन से इन देशों को बड़े-बड़े कर्जे भी मिल रहे हैं लेकिन ऐसे समझौतों की शर्तें क्या हैं, इस पर चीन चुप्पी साध रहा है. साफ है, अमेरिका का निशाना श्रीलंका में गहराते आर्थिक संकट पर भी था, जिसके पीछे चीन के बड़े आर्थिक अनुदानों और कर्जों का बहुत बड़ा योगदान है.
समाचार एजेंसी एएफपी के अनुसार अमेरिका चाहता है कि चीन अपने बड़े समझौतों के प्रावधान सार्वजनिक करे और साथ ही सुरक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर के बड़े मुद्दों पर क्षेत्रीय स्तर पर सलाह मशविरा करे.
आस्ट्रेलिया की स्कॉट मॉरिसन सरकार की ज्यादा बड़ी चिंता यह है कि आस्ट्रेलिया के लिए यह बड़ी सामरिक चिंता का विषय है. चीन के साथ उसके संबंधों में खटास तो आ ही रही थी, अमेरिका और ब्रिटेन के साथ आकुस समझौते के बाद जिस तरह तीनों देशों ने चीन को सामरिक प्रतिद्वंद्वी और आस्ट्रेलिया के लिए एक बड़ी सुरक्षा चुनौती बताकर उसे दरकिनार किया था, अब वही बातें गले की फांस बनने जा रही हैं.
सोलोमन आइलैंड्स और आस्ट्रेलिया के उत्तरपूर्वी तटरेखा के बीच की दूरी सिर्फ 2,000 किलोमीटर है. जाहिर है सोलोमन आइलैंड्स में चीनी सेना की उपस्थिति और बीच के समुद्री रास्ते से आवागमन के लिहाज से आस्ट्रेलिया को सीधी चुनौती पेश करता है.
आस्ट्रेलिया को नौसेना जासूसी और उसकी सीमा में चीनी नौसेना के जहाजों के अतिक्रमण का भी खतरा है. यही वजह है कि आस्ट्रेलिया के साथ-साथ अमेरिका भी इस बात से खासा परेशान दिख रहा है. दोनों ही देश सोलोमन आइलैंड्स के प्रधानमंत्री मनासेह सोगवारे और उनकी सरकार पर हर तरह का दबाव बनाने और समझाने बुझाने की कोशिश कर रहे हैं. चीन के लिए बेशक यह बड़ी सामरिक उपलब्धि है.
आस्ट्रेलिया में संसदीय चुनाव भी है बवाल की वजह
चीन और सोलोमन आइलैंड्स के समझौते की गूंज ऑस्ट्रेलिया में भी सुनाई दे रही है. आस्ट्रेलिया में 21 मई को चुनाव होने जा रहे हैं. पिछले चुनावों की तरह इस बार भी चीन चुनावी बहस का महत्वपूर्ण हिस्सा है. पिछले कुछ सालों में चीन और आस्ट्रलिया के संबंधों में काफी कड़वाहट आई है.
लेबर पार्टी के नेतृत्व में आस्ट्रेलिया के विपक्षी दल प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन की कंजर्वेटिव सरकार को चीन के साथ संबंधों में गिरावट का जिम्मेदार मानते हैं. चुनावी बहस में मॉरिसन सरकार पर इस बात के आरोप भी लग रहे हैं कि चीन से संबंधों में गिरावट और चीन से दुराव, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से आज तक के बीच आस्ट्रेलियाई सरकार की सबसे बड़ी गलती है.
दुनिया में कहां कहां तैनात है अमेरिकी नौसेना
अमेरिकी नौसेना की ताकत और उसकी दुनिया भर में तैनाती, अमेरिका को सैन्य महाशक्ति बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है. दुनिया के सबसे अहम इलाकों में हर वक्त अमेरिका नौसेना का एक बेड़ा तैयार रहता है.
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दूसरा बेड़ा
अमेरिकी सेना का दूसरा बेड़ा, उत्तरी अटलांटिक महासागर में अमेरिका में तैनात है.
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तीसरा बेड़ा
थर्ड फ्लीट पूर्वी प्रशांत महासागर में तैनात है. इसका हेडक्वार्टर सैन डियागो है.
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चौथा बेड़ा
दक्षिण अटलांटिक महासागर में इस बेड़े की तैनाती है. इसका मुख्यालय मेपो, फ्लोरिडा में है
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पांचवा बेड़ा
अमेरिकी नौसेना का पांचवा बेड़ा मध्य पूर्व में तैनात है. इस बेड़े का हेडक्वार्टर बहरीन का मनामा है.
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छठा बेड़ा
इटली के गाएटा में तैनात इस बेड़े का मकसद भूमध्यसागर में रूसी नौसेना को रोकना है.
पश्चिमी प्रशांत महासागर में तैनात इस बेड़े का मुख्यालय जापान के योकोशुका में है.
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दसवां बेड़ा
अमेरिका के मध्य अटलांटिक तट पर तैनात इस बेड़े को साइबर कमांड कहा जाता है. यह आधुनिक दौर के साइबर वॉर के लिए तैयार रहता है.
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चीन की प्रतिक्रिया
21 अप्रैल को अपनी साप्ताहिक प्रेस कांफ्रेंस में चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेंबिन ने अमेरिकी वक्तव्य का जोरदार विरोध किया और कहा कि चीन ने अमेरिका की आलोचनाओं को बेबुनियाद और निहित स्वार्थों से भरा पाया. चीनी प्रवक्ता ने यह भी कहा कि अमेरिका को कोई हक नहीं है कि वह चीन और सोलोमन आइलैंड्स के बीच टांग अड़ाए.
दो सार्वभौम देशों के बीच हुए समझौते से किसी देश को परेशानी कैसे हो सकती है. खास तौर पर तब जब चीन और सोलोमन आइलैंड्स ने यह भी साफ कर दिया कि उनके बीच हुआ समझौता किसी तीसरे देश के खिलाफ नहीं है.
कैसे अमेरिका को चुनौती देने वाली महाशक्ति बन गया चीन
सोवियत संघ के विघटन के बाद से अमेरिका अब तक दुनिया की अकेली महाशक्ति बना रहा. लेकिन अब चीन इस दबदबे को चुनौती दे रहा है. एक नजर बीते 20 साल में चीन के इस सफर पर.
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मील का पत्थर, 2008
2008 में जब दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था आर्थिक मंदी से खस्ताहाल हो रही थी, तभी चीन अपने यहां भव्य तरीके ओलंपिक खेलों का आयोजन कर रहा था. ओलंपिक के जरिए बीजिंग ने दुनिया को दिखा दिया कि वह अपने बलबूते क्या क्या कर सकता है.
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मंदी के बाद की दुनिया
आर्थिक मंदी के बाद चीन और भारत जैसे देशों से वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की उम्मीद की जाने लगी. चीन ने इस मौके को बखूबी भुनाया. उसके आर्थिक विकास और सरकारी बैंकों ने मंदी को संभाल लिया.
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ग्लोबल ब्रांड “मेड इन चाइना”
लोकतांत्रिक अधिकारों से चिढ़ने वाले चीन ने कई दशकों तक बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में खूब संसाधन झोंके. इन योजनाओं की बदौलत बीजिंग ने खुद को दुनिया का प्रोडक्शन हाउस साबित कर दिया. प्रोडक्शन स्टैंडर्ड के नाम पर वह पश्चिमी उत्पादों को टक्कर देने लगा.
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मध्य वर्ग की ताकत
बीते दशकों में जहां, दुनिया के समृद्ध देशों में अमीरी और गरीबी के बीच खाई बढ़ती गई, वहीं चीन अपने मध्य वर्ग को लगातार बढ़ाता गया. अमीर होते नागरिकों ने चीन को ऐसा बाजार बना दिया जिसकी जरूरत दुनिया के हर देश को पड़ने लगी.
चीन के आर्थिक विकास का फायदा उठाने के लिए सारे देशों में होड़ सी छिड़ गई. अमेरिका, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और ब्रिटेन समेत तमाम अमीर देशों को चीन में अपने लिए संभावनाएं दिखने लगीं. वहीं चीन के लिए यह अपने राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव को विश्वव्यापी बनाने का अच्छा मौका था.
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पश्चिम के दोहरे मापदंड
एक अरसे तक पश्चिमी देश मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए चीन की आलोचना करते रहे. लेकिन चीनी बाजार में उनकी कंपनियों के निवेश, चीन से आने वाली मांग और बीजिंग के दबाव ने इन आलोचनाओं को दबा दिया.
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शी का चाइनीज ड्रीम
आर्थिक रूप से बेहद ताकतवर हो चुके चीन से बाकी दुनिया को कोई परेशानी नहीं थी. लेकिन 2013 में शी जिनपिंग के चीन का राष्ट्रपति बनने के बाद नजारा बिल्कुल बदल गया. शी जिनपिंग ने पहली बार चीनी स्वप्न को साकार करने का आह्वान किया.
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शुरू हुई चीन से चुभन
आर्थिक विकास के कारण बेहद मजबूत हुई चीनी सेना अब तक अपनी सीमा के बाहर विवादों में उलझने से बचती थी. लेकिन शी के राष्ट्रपति बनने के बाद चीन ने सेना के जरिए अपने पड़ोसी देशों को आँखें दिखाना शुरू कर दिया. इसकी शुरुआत दक्षिण चीन सागर विवाद से हुई.
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लुक्का छिप्पी की रणनीति
एक तरफ शी और दूसरी तरफ अमेरिका में बराक ओबामा. इस दौरान प्रभुत्व को लेकर दोनों के विवाद खुलकर सामने नहीं आए. दक्षिण चीन सागर में सैन्य अड्डे को लेकर अमेरिकी नौसेना और चीन एक दूसरे चेतावनी देते रहे. लेकिन व्यापारिक सहयोग के कारण विवाद ज्यादा नहीं भड़के.
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कमजोर पड़ता अमेरिका
इराक और अफगानिस्तान युद्ध और फिर आर्थिक मंदी, अमेरिका आर्थिक रूप से कमजोर पड़ चुका था. चीन पर आर्थिक निर्भरता ने ओबामा प्रशासन के पैरों में बेड़ियों का काम किया. चीन के बढ़ते आक्रामक रुख के बावजूद वॉशिंगटन कई बार पैर पीछे खींचता दिखा.
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संघर्ष में पश्चिम और एकाग्र चीन
एक तरफ जहां चीन दक्षिण चीन सागर में अपना प्रभुत्व बढ़ा रहा था, वहीं यूरोप में रूस और यूरोपीय संघ बार बार टकरा रहे थे. 2014 में रूस ने क्रीमिया को अलग कर दिया. इसके बाद अमेरिका और उसके यूरोपीय साझेदार रूस के साथ उलझ गए. चीन इस दौरान अफ्रीका में अपना विस्तार करता गया.
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इस्लामिक स्टेट का उदय
2011-12 के अरब वसंत के कुछ साल बाद अरब देशों में इस्लामिक स्टेट नाम के नए आतंकवादी गुट का उदय हुआ. अरब जगत के राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष ने पश्चिम को सैन्य और मानवीय मोर्चे पर उलझा दिया. पश्चिम को आईएस और रिफ्यूजी संकट से दो चार होना पड़ा.
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वन बेल्ट, वन रोड
2016 चीन ने वन बेल्ट वन रोड परियोजना शुरू की. जिन गरीब देशों को अपने आर्थिक विकास के लिए विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कड़ी शर्तों के साथ कर्ज लेना पड़ता था, चीन ने उन्हें रिझाया. चीन ने लीज के बदले उन्हें अरबों डॉलर दिए और अपने विशेषज्ञ भी.
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हर जगह चीन ही चीन
चीन बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट सहारे अफ्रीका, दक्षिण अमेरका, पूर्वी एशिया और खाड़ी के देशों तक पहुचना चाहता है. इससे उसकी सीधी पहुंच पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक भी होगी और अफ्रीका में हिंद और अटलांटिक महासागर के तटों पर भी.
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सीन में ट्रंप की एंट्री
जनवरी 2017 में अरबपति कारोबारी डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका के नए राष्ट्रपति का पद संभाला. दक्षिणपंथी झुकाव रखने वाले ट्रंप ने अमेरिका फर्स्ट का नारा दिया. ट्रंप ने लुक्का छिप्पी की रणनीति छोड़ते हुए सीधे चीन टकराने की नीति अपनाई. ट्रंप ने आते ही चीन के साथ कारोबारी युद्ध छेड़ दिया.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Young-joon
पड़ोसी मुश्किल में
जिन जिन पड़ोसी देशों या स्वायत्त इलाकों से चीन का विवाद है, चीन ने वहाँ तक तेजी से सेना पहुंचाने के लिए पूरा ढांचा बैठा दिया. विएतनाम, ताइवान और जापान देशों के लिए वह दक्षिण चीन सागर में है. और भारत के लिए नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका में.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo
सहयोगियों में खट पट
चीन की बढ़ते वर्चस्व को रोकने के लिए ट्रंप को अपने यूरोपीय सहयोगियों से मदद की उम्मीद थी, लेकिन रक्षा के नाम पर अमेरिका पर निर्भर यूरोप से ट्रंप को निराशा हाथ लगी. नाटो के फंड और कारोबारियों नीतियों को लेकर मतभेद बढ़ने लगे.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/P. Nicholls
दूर बसे साझेदार
अब वॉशिंगटन के पास चीन के खिलाफ भारत, ब्रेक्जिट के बाद का ब्रिटेन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और वियतनाम जैसे साझेदार हैं. अब अमेरिका और चीन इन देशों को लेकर एक दूसरे से टकराव की राह पर हैं.
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कोरोना का असर
चीन के वुहान शहर ने निकले कोरोना वायरस ने दुनिया भर में जान माल को भारी नुकसान पहुंचाया. कोरोना ने अर्थव्यवस्थाओं को भी चौपट कर दिया है. अब इसकी जिम्मेदारी को लेकर विवाद हो रहा है. यह विवाद जल्द थमने वाला नहीं है.
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चीन पर निर्भरता कम करने की शुरुआत
अमेरिका समेत कई देश यह जान चुके हैं कि चीन को शक्ति अपनी अर्थव्यवस्था से मिल रही है. इसके साथ ही कोरोना वायरस ने दिखा दिया है कि चीन ऐसी निर्भरता के क्या परिणाम हो सकते हैं. अब कई देश प्रोडक्शन के मामले में दूसरे पर निर्भरता कम करने की राह पर हैं.
आस्ट्रेलिया की तमाम कोशिशों के बावजूद सोलोमन सरकार पर इसका असर नहीं पड़ा. नतीजा यह कि व्हाइट हाउस के इंडो-पैसिफिक कोऑर्डिनेटर कोर्ट कैम्पबेल खुद सोलोमन आइलैंड्स की यात्रा पर चले गए. अपने दौरे में उन्होंने चेतावनी दी कि अगर चीन और सोलोमन आइलैंड्स के बीच सुरक्षा समझौता रद्द नहीं हुआ तो अमेरिका इसके जवाब में उचित कार्रवाई करेगा. अमेरिका और आस्ट्रेलिया के लिए आगे का रास्ता मुश्किल है क्योंकि अब उन्हें जवाबी कार्रवाई करने की कोशिश करनी पड़ेगी.
लेकिन क्या जवाबी कार्रवाई सही रास्ता है? चीन और सोलोमन आइलैंड्स के लिए भी आने वाला समय चुनौतीपूर्ण है- खास तौर पर दक्षिण पैसिफिक आइलैंड्स क्षेत्र में. सोलोमन आइलैंड्स बेवजह ही दो महाशक्तियों के पाटों के बीच पिसने की हालत में आ चुका है. सोलोमन आइलैंड्स की मुश्किलें सबसे ज्यादा बढ़ने वाली हैं. इसकी बड़ी वजह यह है कि चीन और अमेरिका-आस्ट्रेलिया के बीच सोलोमन आइलैंड्स को किसी एक को चुनना पड़ेगा.
आस्ट्रेलिया का पड़ोसी और उस पर निर्भरता के चलते सोलोमन आइलैंड्स के लिए आस्ट्रेलिया का दामन छोड़ना मुश्किल है, तो वहीं दूसरी और चीन से आसान निवेश और कर्ज की संभावनाएं बड़ी हैं. सोलोमन आइलैंड्स के नजरिए से देखा जाए तो यह चीन ही है जिसकी वजह से आज अमेरिका उसे दरवाजे पर दौड़ा आया है.
यह दिलचस्प बात है कि पिछले लगभग तीन दशकों से सोलोमन आइलैंड्स में अमेरिकी दूतावास बंद पड़ा है. बीते फरवरी में इसे फिर खोला गया. अमेरिका के काफी नजदीक होने के बावजूद दक्षिण पैसिफिक आइलैंड्स देशों पर अमेरिकी प्रशासन ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया है. सोलोमन आइलैंड्स जैसे देशों के लिए यह निराशाजनक बात रही है.
लेकिन फिर भी, चीन के बहाने ही सही अगर अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे देश इनकी सुध लेने और वापस आने को तत्पर हैं तो शायद दक्षिण पैसिफिक आइलैंड्स के देश इसका स्वागत ही करेंगे. सोलोमन आइलैंड्स के लिए यह सरदर्दी है या अच्छी खबर, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि चीन से उसके समझौतों में और क्या छुपा है.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)