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अमेरिका को अफगानिस्तान से फौज हटाने की इतनी जल्दी क्यों है

१९ नवम्बर २०२०

अमेरिका एक फैसले से उसके दोस्त भी परेशान है और उसके विरोधी भी. यह फैसला है अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को जल्द से जल्द निकालना.

अफगानिस्तान में नाटो
अफगानिस्तान से सैनिक हटाएगा अमेरिकातस्वीर: Allison Dinner/ZUMAPRESS/imago images

आशंका है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों के हटने के बाद वहां हिंसा और क्षेत्रीय अफरा तफरी बढ़ सकती है. स्थिति का फायदा उठाकर वहां तथाकथित इस्लामिक स्टेट और उससे जुड़े आतंकवादी संगठन मजबूत हो सकते हैं.

अमेरिका और तालिबान के बीच पहले हुए समझौते में सैनिकों को धीरे धीरे हटाने की बात कही गई थी. सैनिकों को अप्रैल तक अफगानिस्तान छोड़ना था. लेकिन अब अमेरिकी रक्षा मंत्रालय का कहना है कि लगभग 2,500 अमेरिकी सैनिक जनवरी तक अफगानिस्तान छोड़ देंगे, अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन के पद संभालने से ठीक पहले. इसके बाद अफगानिस्तान में लगभग दो हजार सैनिक बचे रह जाएंगे. बाइडेन ने कहा है कि वह छोटे स्तर पर अफगानिस्तान में मौजूदगी बनाए रखना चाहेंगे जिसमें खुफिया जानकारी के आधार पर आतंकवाद से निपटने की क्षमता हो. 

अफगान सरकार के एक पूर्व सलाहकार और राजनीतिक समीक्षक तोरेक फरहीद कहते हैं कि अफगानिस्तान के देहाती इलाकों में अमेरिकी सैनिकों की वापसी का स्वागत होगा क्योंकि वहां आम लोग अकसर तालिबान और सरकारी बलों की लड़ाई में शिकार बनते हैं. वह कहते हैं, "बम चाहे किसी ने भी बरसाए हों, लेकिन वहां ध्वस्त घरों को बनाने के लिए वापस कोई नहीं गया. वहां के लोगों की तकलीफ सुनने और उनका दिल जीतने की कोशिश किसी ने नहीं की है."

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अमेरिकी चश्मा

अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी ने नाम ना जाहिर करने की शर्त पर बताया कि अमेरिका ने यह सोच कर तालिबान के साथ डील की थी कि कहीं अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट का विस्तार ना होने लगे. सीरिया और इराक में अपनी तथाकथित "खिलाफत" को गंवाने के बाद इस्लामिक स्टेट विस्तार के लिए नई जमीन तलाश रहा है.

अमेरिका ने 11 सितंबर 2001 के आतंकवादी हमले के बाद अफगानिस्तान पर हमला कर तालिबान को सत्ता से बेदखल किया था, क्योंकि तालिबान सरकार ने अल कायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन को शरण दे रखी थी. तालिबान हाल के सालों में फिर से मजबूत हुआ है. वहीं इस्लामिक स्टेट और अल कायदा से जुड़े तत्व भी समय समय पर हमले करने की स्थिति में हैं.

वॉशिंगटन में विल्सन सेंटर के एशिया कार्यक्रम के उपनिदेशक मिषाएल कूगलमन कहते हैं, "अमेरिका ने अफगानिस्तान को हमेशा आतंकवाद रोधी चश्मे से देखा है और आने वाला बाइडेन प्रशासन भी ऐसा ही करना वाला है."

पश्चिम देशों के सैन्य संगठन नाटो के अफगानिस्तान में 12 हजार सैनिक हैं जो अफगान सुरक्षा बलों को ट्रेनिंग और सलाह मशविरा देते हैं. इसमें तीस देशों के सैनिक शामिल हैं जो यातायात, लॉजिस्टिक और अन्य मदद के लिए अमेरिकी सेना पर निर्भर हैं.  

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खूनी दौर लौटने का डर

तालिबान ने अफगानिस्तान से जल्द अमेरिकी सैनिकों तो हटाने का स्वागत किया है. लेकिन जर्मन विदेश मंत्री हाइको मास कहते हैं कि अमेरिका के इस कदम से अफगान शांति प्रक्रिया को नुकसान हो सकता है. बर्लिन में एक प्रेस कांफ्रेस में मास ने कहा, "दोनों पक्ष इस समय शांति वार्ता की मेज पर बैठे हैं और उन्होंने दशकों के संघर्ष के बाद रचनात्मक तरीके से एक दूसरे से बात करनी शुरू की है. इस बात को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए."

मास ने कहा कि जर्मनी इस बात का गहराई से मूल्यांकन कर रहा है कि अफगानिस्तान से सैनिकों को हटाने के अमेरिका के फैसला का वहां मौजूद जर्मन सैनिकों पर क्या असर होगा. नाटो अभियान के तहत अभी जर्मनी के 1300 सैनिक अफगानिस्तान में तैनात हैं जो मुख्यतः अफगान बलों को ट्रेनिंग और उनकी मदद के लिए काम करते हैं.

वहीं अफगानिस्तान में बहुत से लोगों का आशंका है कि अमेरिका सैनिकों के हटने के बाद फिर वही खूनी दौर लौट सकता है जब ताकतवर लड़ाके एक दूसरे पर अपनी बंदूकें तानते थे. जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के कतर कैंपस में सीनियर फेलो अनातोल लीवेन कहते हैं, "अफगानिस्तान में अमेरिका के सबसे अहम कामों में से एक यह है कि वह अफगान गुटों को एक दूसरे से लड़ने से रोकता है."

विश्लेषकों का कहना है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों के जल्दी हटने से अफगान बलों की रक्षा क्षमताओं पर भी असर पड़ सकता है. कुगलमन कहते हैं कि अमेरिकी बलों की छोटी सी मौजूदगी भी युद्ध की दिशा तय करने में अहम भूमिका अदा कर सकती है.

लंबे समय से अफगानिस्तान में विदेशी फौजी मौजूद हैंतस्वीर: Australian Defenses Forces/dpa/picture alliance

पाकिस्तान एंगल

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को हटाने के फैसले पर उसके पड़ोसी पाकिस्तान की भी नजरें टिकी हैं. दोनों देशों के रिश्ते बहुत से तनावपूर्ण हैं. अफगानिस्तान का आरोप है कि पाकिस्तान तालिबान का साथ देता है और उसके नेताओं को अपने यहां शरण देता है. वहीं पाकिस्तान का कहना है कि उसे निशाना बनाकर किए जाने वाले भारत समर्थित हमलों के लिए अफगानिस्तान जमीन मुहैया करा रहा है.

पाकिस्तान ने तालिबान को शांति की मेज पर लाने में अहम भूमिका अदा की है. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान कहते हैं कि अगर अमेरिका तुरत फुरत वहां से अपने सैनिकों को हटाएगा तो इससे अफगानिस्तान में अफरा तफरी फैल सकती है, जिसका असर सीधे पाकिस्तान पर भी पड़ सकता है. पाकिस्तान में अब भी लगभग बीस लाख अफगान शरणार्थी रहते हैं.

लीवेन कहते हैं, "अंत में, अफगानिस्तान का भविष्य खुद अफगानों पर और अफगानिस्तान के पड़ोसियों पर निर्भर करता है. अमेरिका तो हमेशा इस इलाके में रहेगा नहीं."

एके/ओएसजे (एपी)

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