चाय बागानों के रिकॉर्ड से खुलते जलवायु परिवर्तन के राज
प्रभाकर मणि तिवारी
६ अक्टूबर २०२२
अपनी चाय के स्वाद और गुणवत्ता के लिए पूरी दुनिया में मशहूर असम के चाय बागानों के हस्तलिखित रिकार्ड अब पूर्वोत्तर भारत में बारिश के पैटर्न में बदलाव की झलक दे रहे हैं.
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असम के चाय बागानों में हर साल बारिश का तारीखवार रिकार्ड हाथ से लिख कर रखा जाता है. गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज के छात्रों और वैज्ञानिकों ने वर्ष 1990 से 2009 तक के इन हस्तलिखित दस्तावेजों के अध्ययन से 90 साल के दौरान होने वाली बारिश का खाका तैयार किया है.
असम में मानसून में होने वाले बदलावों का राज्य में पैदा होने वाली चाय की गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर पड़ता है. इस वजह से बड़े चाय बागानों में हर साल होने वाली बारिश का रिकॉर्ड रखा जाता था. दिलचस्प बात यह है कि इसमें और मौसम विभाग की ओर से जारी आंकड़ों में अकसर अंतर रहा है. अब ताजा अध्ययन से यह पता चलेगा कि किस साल इन दोनों आंकड़ों में कितना अंतर था और उसका उत्पादन पर क्या और कैसा असर पड़ा.
अब 12 वर्ष तक चले इस अध्ययन से मिले ताजा आंकड़ों से पूर्वोत्तर भारत में बारिश की मात्रा का औसत निकालने में सहायता मिलेगी. इसके साथ ही अतिवृष्टि के कारण पैदा होने वाले प्रतिकूल असर व खतरों का विश्लेषण कर उनसे निपटने के कारगर तरीके अपनाए जा सकेंगे.
इन आंकड़ों का अध्ययन कर निष्कर्ष तक पहुंचने वाली टीम के प्रमुख राहुल महंत बताते हैं, "30-40 साल पहले तक बारिश का जो पैटर्न था वह अब काफी बदल गया है. अब थोड़ी-थोड़ी देर के लिए बारिश होती है और यह हर जगह समान नहीं होती. नतीजतन कई बार एक ही इलाके में अलग-अलग मात्रा में बारिश रिकॉर्ड की गई है.”
वह बताते हैं कि पूर्वोत्तर भारत में अति या अनावृष्टि के अध्ययन के दौरान टीम ने देखा कि भारतीय मौसम विभाग की ओर से नियमित रूप से जारी आंकड़े वर्ष 1975 के बाद यानी महज 32 वर्ष के लिए उपलब्ध थे. उन आंकड़ों को सिर्फ 32 केंद्रों पर ही रिकार्ड किया गया था.
लेकिन बाढ़ या सूखे के अध्ययन के लिए लंबी अवधि के आंकड़े जरूरी होते हैं. इसलिए टीम ने चाय बागानों में सुरक्षित हस्तलिखित दस्तावेजों की सहायता लेने का फैसला किया. लेकिन यह काम इतना आसान नहीं था.
महंत बताते हैं, "लंबे समय से मौसम की मार के कारण हाथ से लिखे ज्यादातर दस्तावेज पीले पड़ चुके हैं और उनमें भी हर साल लिखावट अलग-अलग है. उनका अध्ययन करना काफी चुनौतीपूर्ण था. इसके लिए निजी और पहले ब्रिटिश मालिकों के मालिकाना हक वाले बागानों से आंकड़े जुटाए गए. इसमें 12 वर्षों का समय लग गया.”
शोध टीम की अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि ब्रिटिश शासनकाल में वर्ष 1875 में मौसम विभाग की स्थापना के साथ ही आंकड़ों को सुरक्षित रखने की शुरुआत हुई थी. लेकिन चाय बागानों ने उससे करीब पांच साल पहले से ही हस्तलिखित दस्तावेजों को सुरक्षित रखने की परंपरा शुरू कर दी थी.
असम के करीब 750 चाय बागानों में से सौ से ज्यादा बागान एक सदी से भी ज्यादा पुराने हैं और वहां दैनिक तापमान और बारिश का रिकार्ड दर्ज हैं. इसके अलावा निजी डायरियों, तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं और मिशनरी अस्पतालों में मिले चिकित्सकीय और वैज्ञानिक शोध के दस्तावेजों से भी इस काम में काफी मदद मिली.
महंत और उनकी टीम फिलहाल ताजा आंकड़ों के आधार पर बाढ़ और सूखे के दौर का विश्लेषण करने में जुटी है. प्राथमिक तौर पर इस टीम को पता चला है कि वर्ष 1970 से मानसून के दौरान अतिवृष्टि और अनावृष्टि का दौर लगातार तेज हुआ है. इससे इलाके में बाढ़ और सूखे का खतरा भी बढ़ा है.
जलवायु परिवर्तन का चाय के बागानों पर असर
ताइवान में चाय के बागानों पर जलवायु परिवर्तन के गंभीर असर होने का संदेह है. इस साल मौसम के असर से चाय की लगभग आधी फसल बर्बाद हो गई. क्या उपाय कर सकते हैं चाय उगाने वाले?
तस्वीर: Ann Wang/REUTERS
जलवायु के आगे बेबस
ताइवान में चाय के बागान के मालिक चिएन शुन-यीह इस साल की फसल से संतुष्ट नहीं हैं. अतिविषम मौसमी हालात ने उनकी आधी फसल बर्बाद कर दी है. वो कहते हैं, "आप मौसम को नियंत्रित कर ही नहीं सकते, भले ही आप चाय ही क्यों ना उगाते हों." लेकिन वो उम्मीद कर रहे हैं कि खुद बनाई हुई पानी टंकी जैसे उपायों की मदद से वो सूखे से निपटने के विकल्प निकाल पाएंगे.
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ताइवान की चाय
मेशान के आस पास के पहाड़ों में 19वीं शताब्दी से चाय उगाई जा रही है. शुन-यीह ने तीन साल पहले अपने पिता के देहांत के बाद बागान का कार्यभार संभाला था. तब से काफी कुछ बदल गया है. अस्थिर मौसमी हालात के बावजूद अच्छी फसल सुनिश्चित करने के लिए अलग अलग तरीके ढूंढना और जरूरी होता जा रहा है.
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श्रमिकों की घटती आय
बागानों में चाय की पत्तियां चुनने वाले भी जलवायु परिवर्तन से सीधा प्रभावित हो रहे हैं, क्योंकि उनकी कमाई एक किलो चाय के दाम के आधार पर निर्धारित होती है. वो कहते हैं, "कम फसल, कम कमाई." आजकल चाय की पत्तियों को उगने में ज्यादा समय लगता है, इसलिए श्रमिकों को हर मौसम में कई बार बागानों में जाना पड़ता है.
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पानी के पंप से मिल सकती है मदद
शुन-यीह बिना थके हमेशा स्थिति में सुधार लाने के तरीके खोजते रहते हैं. पानी की टंकी में लगे हुए एक पाइप की मदद से वो पंप का इस्तेमाल कर दूर से भी टंकी में पानी भर सकते हैं. इससे उन्हें सूखे के बावजूद बागानों की सिंचाई करने की सुविधा मिलती है.
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नई चुनौतियां
जलवायु से जुड़ी चुनौतियां दूसरी नई चुनौतियां लाती हैं. कीड़े एक बड़ी समस्या हैं क्योंकि सूखे की वजह से वो आसानी से पौधों पर हमला कर सकते हैं. सरकारी शोधकर्ता लिन शियो-रुई कहती हैं, "कीड़ों को सूखा और गर्मी बहुत पसंद है." वो बताती हैं कि कीड़े पहले से कमजोर पौधों पर हमला करते हैं, जिसकी वजह से "चाय के संवेदनशील पौधे भी मर सकते हैं."
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जलवायु से संबंध है भी या नहीं?
शुन-यीह गर्व से पर्यटकों को अपने बागान दिखाते हैं और बार बार कहते हैं कि फसल बदलते मौसमी हालात पर बहुत निर्भर है. लेकिन ताइवान के चाय के बागानों में जो हो रहा है उसके लिए जलवायु परिवर्तन सीधे तौर पर जिम्मेदार है या नहीं इसे अभी तक निसंदेह रूप से साबित नहीं किया गया है.
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चाय की फसल
ताजा चुनी हुई चाय की पत्तियों को शुन-यीह और उनकी टीम ताइवान की कड़ी धुप में सुखाते हैं. जहां संभव हो वो खुद भी मदद करते हैं. पत्तियों के सूखने के बाद अगला कदम होता है किण्वन (फर्मेंटेशन).
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रंग सही होना चाहिए
किण्वन कब तक करना है उसकी अवधि बेहद जरूरी है. चाय की पत्तियों का रंग इस बात का संकेत देता है कि स्वाद सही है या नहीं. इसके बाद चाय को तैयार करने के और भी कदम हैं.
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खुशबू से पहचान
एक तजुर्बेकार चाय उगाने वाला सूंघ कर बता सकता है कि उसकी चाय तैयार है या नहीं. हालांकि इसके पीछे एक लंबी और जटिल प्रक्रिया है, शुन-यीह और उनकी टीम को उम्मीद है कि यह परंपरा बदलते मौसम के बावजूद चलती रहेगी. (जूली एच.)
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मौसम विज्ञानी जीसी दस्तीदार कहते हैं, "बारिश की मात्रा अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग होती है. इसलिए जिन केंद्रो से आंकड़े लिए जा रहे हैं उनका घनत्व जितना ज्यादा होगा, मौसम के चरित्र को समझने में उतनी ही आसानी होगी. पूर्वोत्तर भारत में आंकड़े जुटाने के लिए मौसम विभाग के संसाधन शुरू से ही सीमित रहे हैं. ऐसे में चाय बागानों में मौजूद रिकार्ड्स की सहायता से जलवायु के इतिहास के पुनर्निर्माण में काफी मदद मिलने की संभावना है.”
मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि बारिश में उतार-चढ़ाव का पैटर्न समझने के लिए लंबी अवधि के आंकड़े जरूरी है. लेकिन पूर्वोत्तर में महज 12 केंद्रों के लिए ही बीते सौ साल के आंकड़े उपलब्ध हैं. महतं बताते हैं, "पूर्वोत्तर भारत में 1950 से पहले मौसम विभाग के पास बारिश मापने के लिए सौ से ज्यादा केंद्र थे. 1940 से पहले मेघालय के चेरापूंजी में भी ऐसे पांच केंद्र थे. लेकिन 1950 के बाद ऐसे केंद्रों की संख्या लगातार कम होती रही. अब चेरापूंजी के बारे में भी नियमित कड़े उपलब्ध नहीं है. बीचे के कई वर्षों का कहीं कोई रिकार्ड नहीं मिलता.”
दस्तीदार बताते हैं, "पूर्वोत्तर में बारिश का सीजन अप्रैल में शुरू होता है. अप्रैल व मई के दौरान इलाके में इतनी बारिश होती है जितनी मध्य भारत में जून के दौरान होती है.”
अब असम के कई चाय बागानों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग शुरू हुई है. पहले ज्यादा बारिश होने की स्थिति में बागान डूब जाते थे और चाय के पौधों को नुकसान होता था. इसकी वजह यह थी कि आस-पास खेत या दूसरी फसलें होने के कारण उस अतिरिक्त पानी के बागान से निकलने का कोई रास्ता नहीं था.
दस्तीदार कहते हैं, "मौसम विभाग को पूर्वोत्तर इलाके में और ज्यादा केंद्रों की स्थापना करनी चाहिए. यह इलाका भौगोलिक रूप से काफी विविध है. वहां से मिलने वाले आंकड़े जलवायु परिवर्तन के असर को समझने में तो तो मदद करेंगे ही, ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए कारगर रणनीति बनाने में भी अहम भूमिका निभा सकते हैं.”
सबसे ज्यादा चाय ये देश उगाते हैं
यूं तो चाय का उद्गम चीन को माना जाता है, लेकिन इस बीच दुनिया के कई देशों में चाय का उत्पादन होता है. औपनिवेशिक शासकों ने इसे न सिर्फ उपनिवेशों में बल्कि दुनिया भर में लोकप्रिय बनाया है.
तस्वीर: Isna
चीन (2473443 टन)
चीन में चाय पीने का लंबा इतिहास है. कहते हैं कि सम्राट शेनॉन्ग ने 2737 ईसा पूर्व में इसका प्रचलन शुरू किया. अब तो चीन में चाय पेय से लेकर दवा तक में इस्तेमाल होती है और देश की कई सांस्कृतिक रिवाजों का हिस्सा है.
तस्वीर: picture-alliance/Imaginechina/Gu Dao Cd
भारत (1325,000 टन)
चाय तो भारत में पहले से होती थी, लेकिन जब अंग्रेजों को चीन से चाय पीने का पता चला तो उन्होंने इसका औद्योगिक चलन शुरू किया. आज भारत में उत्पादित 70 फीसदी चाय की खपचत देश में ही होती है.
तस्वीर: DW/Prabhakar
केन्या (440,000 टन)
केन्या ऐसा देश है जहां चाय की खेती बड़े बागानों में नहीं बल्कि छोटे खेतों में होती है. करीब साढ़े चार लाख टन का छोटे खेतों में उत्पादन बड़ी बात है. लेकिन केन्या नई उन्नत किस्मों के विकास पर जोर दे रहा है.
तस्वीर: DW/D. Omondi
श्रीलंका (350,000 टन)
1867 में एक ब्रिटिश किसान ने श्रीलंका के कैंडी में चाय का उत्पादन 19 एकड़ जमीन पर शुरू किया था. इस बीच करीब 2 लाख हेक्टेयर जमीन पर चाय की खेती होती है और यह श्रीलंका के प्रमुख उद्योगों में शामिल है.
तस्वीर: Imago/BE&W
वियतनाम (260,000 टन)
जो काम भारत में अंग्रेजों ने किया वह वियतनाम में फ्रेंच लोगों ने किया. 1880 में वहां चाय का उत्पादन शुरू हुआ और पचास साल के अंदर चाय उद्योग इतना बड़ा हो गया कि वियतनाम यूरोप और अफ्रीका को चाय का निर्यात करने लगा.
तस्वीर: dpa
तुर्की (234,000 टन)
तुर्की में काले सागर के निकट एक छोटे से इलाके राइज में चाय का उत्पादन होता है. हालांकि तुर्की की कॉफी ज्यादा मशहूर है लेकिन वहां चाय भी काफी लोकप्रिय है. तुर्की में मुख्य रूप से काली चाय का उत्पादन होता है.
तस्वीर: Soraya Azizian
इंडोनेशिया (140,000 टन)
इंडोनेशिया में चाय औपनिवेशिक शासकों के जरिए आई. डच लोगों ने 1700 के आसापास चाय का उत्पादन शुरू किया लेकिन यह स्थानीय लोगों में इतना लोकप्रिय नहीं है. आज भी इंडोनेशिया की चाय आम तौर पर विदेशों में निर्यात की जाती है.
तस्वीर: picture-alliance/ dpa
ईरान (100,000 टन)
ईरान में 15 सदी में व्यापक रूप से कॉफी पी जाती थी. चीन के साथ सिल्क रूट की वजह से ईरानी लोगों को चाय का पता चला और फिर इसका चस्का लगा. 1882 में भारत से लाए गए बीज की मदद से ईरान ने खुद चाय का उत्पादन शुरू किया.