पश्चिम बंगालः क्यों इतने अहम हो गए हैं पंचायत चुनाव
६ जुलाई २०२३वर्ष 2018 के चुनाव में भारी हिंसा और बड़े पैमाने पर चुनावी धांधली के आरोपों के बीच तृणमूल कांग्रेस ने करीब 34 प्रतिशत सीटें निर्विरोध जीत ली थी. लेकिन इस बार अगर निर्विरोध जीती गई सीटों को संकेत मानें तो उसकी राह मुश्किल नजर आ रही है. इस बार वह महज 12 फीसदी सीटें ही निर्विरोध जीत सकी है.
हिंसा, अदालती मामलों और आरोप-प्रत्यारोप के मामले में यह राज्य नित नए रिकॉर्ड बना रहा है. इस चुनाव के लिए प्रचार तो बृहस्पतिवार शाम को थम गया. लेकिन हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है. केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव के दौरान 23 राजनीतिक हत्याएं हुई थी. एनसीआरबी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि वर्ष 2010 से 2019 के बीच राज्य में 161 राजनीतिक हत्याएं हुई और बंगाल इस मामले में देश भर में पहले स्थान पर रहा.
क्यों बढ़ रही है त्यौहार पर हिंसा और सियासत
इस साल चुनावी हिंसा में अब तक 17 लोगों की मौत हो चुकी है. आखिर इस बार तमाम राजनीतिक दलों के लिए इस चुनाव की इतनी ज्यादा अहमियत क्यों हो गई है? इस सवाल का कोई सीधा जवाब नहीं है.
पंचायत चुनाव में इतनी हिंसा क्यों?
यह चुनाव खासकर ग्रामीण इलाकों में वर्चस्व की लड़ाई है. चुनाव चाहे पंचायत का हो या फिर विधानसभा और लोकसभा का, राज्य में ग्रामीण इलाकों के मतदाता ही निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं. ऐसे में जिसा पार्टी का पंचायतों पर कब्जा हो, उसे बाकी दोनों चुनावों में काफी मदद मिल जाती है. हिंसा का दूसरा पहलू है भारी-भरकम रकम. यह आम राय है कि राज्य की पंचायतें दुधारू गाय बन गई हैं. ग्रामीण इलाकों में हर साल हजारों करोड़ की परियोजनाएं इन पंचायतों के जरिए ही लागू की जाती हैं. ऐसे में जहां जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर पंचायतों पर काबू पाने के लिए तमाम राजनीतिक पार्टियां अपनी पूरी ताकत झोंक देती हैं.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राज्य के विभिन्न इलाकों में बालू, पत्थर और कोयले के अवैध खनन और कारोबार पर वर्चस्व भी पंचायत चुनाव में होने वाली हिंसा की एक प्रमुख वजह है. यह तमाम कारोबार पंचायतों के जरिए ही नियंत्रित होते हैं. यही वजह है कि पंचायतों पर कब्जे के लिए तमाम राजनीतिक पार्टियां अपनी पूरी ताकत झोंक देती हैं.
पंचायत चुनाव में होने वाली हिंसा, इसे कई चरणों में कराने और समुचित तादाद में केंद्रीय बलों की तैनाती की मांग में कलकत्ता हाईकोर्ट में इतने मामले दायर थे कि एकबारगी तो इस चुनाव पर ही सवाल खड़ा हो गया था. लेकिन अब तमाम याचिकाएं निपटा दी गई हैं और तय हो गया है कि यह चुनाव एक चरण में आठ जुलाई को ही होंगे.
73, 887 सीटों के लिए मतदान
पश्चिम बंगाल में त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था के तहत राज्य में 3,317 ग्राम पंचायतें हैं. ग्राम पंचायतों की 63,229, पंचायत समितियों की 9,730 और 22 जिला परिषदों की 928 सीटों यानी कुल 73,887 सीटों के लिए मतदान होना है. इनमें से 9,013 सीटों पर मैदान में उतरे उम्मीदवार निर्विरोध चुने जा चुके हैं. इससे पहले वर्ष 2018 में कुल सीटों की तादाद 58,692 थी. उसमें से तृणमूल कांग्रेस ने 20,078 यानी 34.2 प्रतिशत सीटें निर्विरोध जीत ली थी.
पश्चिम बंगाल में राजनीति और भ्रष्टाचार के घालमेल की कहानी
राज्य का चुनावी इतिहास गवाह है कि पंचायत चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने वाली राजनीतिक पार्टियां ही आगे चल कर लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भी बेहतर प्रदर्शन करती रही हैं. इसकी वजह यह है कि वाममोर्चा सरकार के जमाने से ही ग्रामीण इलाकों में मजबूत पकड़ को ही किसी राजनीतिक पार्टी के लिए सत्ता में पहुंचने की चाबी माना जाता है. वाममोर्चा ने भूमि सुधारों और पंचायत व्यवस्था की सहायता से सत्ता के विकेंद्रीकरण के जरिए ग्रामीण इलाकों में अपनी जो पकड़ बनाई थी उसी के दम पर 34 साल तक सत्ता में बनी रही. इतना ही नहीं वर्ष 2008 के पंचायत चुनाव में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले तृणमूल कांग्रेस के जबरदस्त प्रदर्शन जैसी वजहों ने वाममोर्चा सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने में अहम भूमिका निभाई थी.
यही वजह है कि पंचायत चुनावों को देश के कई राज्यों के विधानसभा चुनावों के मुकाबले ज्यादा सुर्खियां और अहमियत मिलती रही है. इस बार भी अपवाद नहीं है. अगले साल राज्य में अहम लोकसभा चुनाव होने हैं. यहां लोकसभा की 42 सीटें केंद्र सरकार का भावी स्वरूप तय करने में अहम भूमिका निभा सकती हैं. यह इसका राजनीतिक पहलू है.
इस बार के पंचायत चुनाव की अहमियत पहले के तमाम चुनावों से ज्यादा है तो इसकी कई वजहें हैं. पहली यह कि विपक्षी भाजपा बीते विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने के बाद अब तृणमूल कांग्रेस को मजबूत चुनौती देने की स्थिति में है. दूसरी ओर, मुर्शिदाबाद मॉडल की कामयाबी से उत्साहित वाम-कांग्रेस गठजोड़ भी नए उत्साह के साथ मैदान में है. मुर्शिदाबाद की एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में इस गठजोड़ का उम्मीदवार भारी मतों के अंतर से जीत गया था. हालांकि बाद में वह तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गया. लेकिन उस नतीजे ने अल्पसंख्यकों में तृणमूल का जनाधार खिसकने का संकेत तो दे ही दिया था.
बंगाल में चुनावी हिंसा का इतिहास
दरअसल, तमाम दलों के आम चुनाव से पहले यह अपनी ताकत और पकड़ के आकलन का अंतिम मौका है. वर्चस्व की लड़ाई में अदालती फटकार के बावजूद चौतरफा हिंसा होती रही है. नामांकन की प्रक्रिया सबसे शांतिपूर्ण रहने के मुख्यमंत्री के दावे के बावजूद अब तक 17 लोगों की मौत हो चुकी है. इनमें तमाम पार्टियों के लोग हैं.
बंगाल की राजनीति से हिंसा का साथ नहीं छूटता
बंगाल में हिंसा अब चुनावी संस्कृति का अटूट हिस्सा बन गई है. वर्ष 2018 के पंचायत चुनावों के बाद उसके अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव और वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव भी काफी हिंसक रहे थे. खासकर विधानसभा चुनाव के बाद बड़े पैमाने पर होने वाली हिंसा और कथित राजनीतिक हत्याओं ने तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरी थी.
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं कि वर्ष 1998 में ममता बनर्जी की ओर से टीएमसी के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया था. उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई. इस साल होने वाला चुनाव भी कोई अपवाद नहीं है.