ऑस्ट्रेलिया में हुए ‘वॉइस’ जनमत संग्रह की हार ने मूल निवासियों को गहरा आघात पहुंचाया है. यह अहसास बढ़ा है कि ऑस्ट्रेलिया आज भी गोरों का देश है.
विज्ञापन
ऑस्ट्रेलिया में एक जनमत संग्रहमें लोगों ने मूल निवासी लोगों को संसद में प्रतीकात्मक आवाज देने से इनकार कर दिया. ‘वॉइस रेफरेंडम' नाम से हुए इस जनमत संग्रह में 60 फीसदी लोगों ने ‘ना' में वोट किया. सवाल था कि क्या संसद में मूल निवासी लोगों की एक समिति बनायी जाए, जो सरकार को मूल निवासी मामलों पर सलाह देगी.
जनमत संग्रह के इस नतीजे ने ना सिर्फ स्थानीय मूल निवासियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निराशाजनक हैरत में डाल दिया बल्कि दुनियाभर के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी आघात पहुंचा.
जनमत संग्रह के जरिये ऑस्ट्रेलिया सरकार जिस संसदीय समिति की इजाजत चाहती थी, उसे ‘वॉइस' नाम दिया गया था. वॉइस एक सलाहकार समिति होती, जो मूल निवासीयों से जुड़े मामलों में सरकार को सलाह देती. उस सलाह को मानना या ना मानना सरकार का अधिकार होता, बाध्यता नहीं. इस लिहाज से यह सिर्फ एक प्रतीकात्मक संस्था होती.
निराशा का माहौल
दरअसल, यह जनमत संग्रह 60 हजार साल से ऑस्ट्रेलिया में रह रहे मूल निवासियों को संवैधानिक रूप से ज्यादा मान्यता देने के लिए था. 122 साल पुराने संविधान में उनका जिक्र तक नहीं है. इसलिए यह जनमत संग्रह आयोजित किया गया क्योंकि ऑस्ट्रेलिया के संविधान में किसी भी बदलाव के लिए जनमत संग्रह अनिवार्य है.
इंटरनेट पर चाइल्ड पोर्न की बाढ़
इंटरनेट वॉच फाउंडेशन के मुताबिक बीते कुछ सालों में चाइल्ड पोर्न परोसने वाली वेबसाइटों की संख्या तेजी से बढ़ी है.
तस्वीर: Grazvydas Januska/Zoonar/picture alliance
लाखों नये पोर्न यूआरएल
इंटरनेट वॉच फाउंडेशन का कहना है कि इंटरनेट पर ढाई लाख से ज्यादा चाइल्ड पोर्न वेबसाइट मौजूद हैं. 2019 में इनकी संख्या 1,32,676 थी जो इस साल बढ़कर 2,55,588 हो गयी है.
तस्वीर: Jean François Ottonello/MAXPPP/picture alliance
महामारी है कारण
फाउंडेशन की रिपोर्ट कहती है कि यूआरएल में हुई बढ़ोतरी की एक वजह महामारी और लॉकडाउन भी है जिसके कारण बच्चों समेत ज्यादा संख्या में लोग घरों में रह रहे थे और पहले से ज्यादा पोर्न देख रहे थे.
तस्वीर: PA Wire/picture alliance
खुद बना रहे वीडियो
रिपोर्ट कहती है कि खुद के बनाये पोर्न वीडियो इस वक्त सबसे ज्यादा देखे जा रहे हैं. 2019 में 38,424 ऐसी वेबसाइटें थीं जिन पर खुद बनाये वीडियो शेयर किये गये. 2022 में इनकी संख्या 1,99,363 हो गयी.
तस्वीर: NurPhoto/IMAGO
क्या है खुद बनाये वीडियो
ये ऐसे वीडियो हैं जिन्हें माता-पिता की सहमति के बिना बनाया गया लेकिन इनके लिए बच्चे जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि उन्हें लुभाया जाता है. इसलिए इन्हें सही परिप्रेक्ष्य में समझना जरूरी है.
तस्वीर: Grazvydas Januska/Zoonar/picture alliance
11-13 साल की लड़कियां
इंटरनेट पर जो चाइल्ड पोर्न मौजूद है उसमें 11 से 13 साल की लड़कियों की संख्या बाकी समूहों के मुकाबले सबसे ज्यादा है.
तस्वीर: empics/picture alliance
5 तस्वीरें1 | 5
नतीजों से आदिवासियों के बड़े तबके में निराशा का माहौल है. ऑस्ट्रेलिया के शहर वोलोनगॉन्ग में रहने वाले एक मूल निवासी जॉनी कहते हैं, "मुझे तो उम्मीद नहीं थी कि वॉइस पास होगा. यह देश आज भी गोरों का है.”
1934 में जन्मे आदिवासी अंकल जॉन डेलनी ने स्थानीय समाचार चैनल एबीसी को दिये इंटरव्यू में अपनी निराशा जाहिर करते हुए कहा कि संविधान में हमें शामिल करने का सपना वह पूरा होते नहीं देख पाएंगे.
वह कहते हैं, "हम नाउम्मीद में उम्मीद कर रहे थे. हमें लगा कि ऑस्ट्रेलिया इतना बुरा नहीं हो सकता. वे सोचते हैं कि हम बस हमेशा जिद करने वाले काले लोगों की भीड़ हैं क्योंकि वे जानते ही नहीं हैं कि हम किस तरह की यातनाओं से गुजरे हैं और अब भी गुजर रहे हैं.”
विज्ञापन
आदिवासियों की स्थिति
ऑस्ट्रेलिया में मूल आदिवासी लोगों और बाहर से आए अंग्रेज शासकों व लोगों के बीच लगातार तनावग्रस्त रिश्ते रहे हैं. दशकों पहले ऑस्ट्रेलिया के श्वेत नागरिकों और मूल निवासियों का जबरदस्ती मिश्रण कराने के लिए नीतियां लागू की गई थीं. हजारों मूल निवासी परिवारों और टॉरस स्ट्रेट द्वीप समूहों के मूल निवासी परिवारों के बच्चों को जबरन उनके परिवारों से अलग कर श्वेत परिवारों की देख-रेख में डाल दिया गया था. यह नीतियां 1970 के दशक तक चलीं.
सबसे धनी शहर के गरीब
दक्षिण अफ्रीका का शहर जोहानिसबर्ग पूरे महाद्वीप में सबसे धनी शहर है. लेकिन यहां हजारों लोग हैं जो इस धनी शहर में बेहद गरीबी में जीवन जी रहे हैं.
तस्वीर: Shafiek Tassiem/REUTERS
अमीर शहर के गरीब
ना साफ पानी है, ना बिजली. टॉयलेट के नाम पर बेहद तंग जगह है जिसके लिए एक वक्त में दर्जनों लोगों को इंतजार करना पड़ता है.
तस्वीर: Shafiek Tassiem/REUTERS
कहां है अमीरी!
दुकान में काम करने वाले थुलानी चेले कहते हैं कि उन्हें लगता नहीं, वह अफ्रीका के सबसे अमीर शहर में रह रहे हैं.
तस्वीर: Shafiek Tassiem/REUTERS
एक ही नल
चेले और उनके करीब 300 पड़ोसियों के लिए एक ही नल है जिससे रोजाना पानी भरने के लिए लाइन में लगना पड़ता है.
तस्वीर: Shafiek Tassiem/REUTERS
बिजली, पानी लापता
जोहानिसबर्ग के इन इलाकों में बिजली और पानी की भारी किल्लत है. लगातार लंबे समय तक बिजली कटती है. पानी के पाइप फट जाते हैं और पानी लापता रहता है.
तस्वीर: Shafiek Tassiem/REUTERS
मूलभूत अधिकार
ऐसा तब है कि जबकि दक्षिण अफ्रीका में पानी और टॉयलेट संवैधानिक मूल अधिकार है और प्रशासन की जिम्मेदारी है कि सबसे यह उपलब्ध हों.
तस्वीर: Shafiek Tassiem/REUTERS
गरीबी की मार
एक सामाजिक कार्यकर्ता सियाबोंगो मालांगू कहते हैं कि गरीबों के लिए शहर में जरा भी सहानुभूति नहीं है और उनके साथ बेहद बुरा व्यवहार होता है.
तस्वीर: Shafiek Tassiem/REUTERS
6 तस्वीरें1 | 6
भले ही ‘श्वेत ऑस्ट्रेलिया नीति' दशकों पहले खत्म हो चुकी है और नस्लवाद विरोधी कानून मौजूद है लेकिन आज भी आदिवासी लोग भेदभाव और यातनाओं के शिकार हैं. केंद्रीय सांख्यिकीय ब्यूरो के मुताबिक 30 जून 2022 तक देश की जेलों में बंदलोगों में से 32 फीसदी आबादी इन्हीं लोगों की थी.
एक राष्ट्रीय सर्वे में 11 फीसदी लोगों ने कहा कि उनके अंदर किसी ना किसी तरह का भेदभाव मौजूद है जबकि 26 फीसदी ने इस सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया.
मार्च 2022 में देश की डाइवर्सिटी काउंसिल की रिपोर्ट में कहा गया कि 43 फीसदी अश्वेत आबादी कार्यस्थलों पर भेदभाव से जूझती है. इस रिपोर्ट में सिर्फ 18 फीसदी श्वेत लोगों ने माना कि नस्लवाद एक समस्या है.
इसी तरह 2018 में मानवाधिकार आयोग ने पाया कि 2,490 सबसे वरिष्ठ पदों में से 95 फीसदी पर श्वेत लोग ही हैं जबकि 0.4 फीसदी आदिवासी मूल के हैं.
फर्क अहसास का है
वॉइस का विरोध करने वाले लोगों का तर्क था कि ऑस्ट्रेलिया का संविधान हर किसी को बराबर हक देता है और एक अलग समिति बनाने जैसा कदम देश में विभाजन पैदा करेगा.
दक्षिणपंथी लेखिका जैनेट अलब्रेष्टसेन ने लिखा, "आप इस मुल्क में 60 हजार साल से रह रहे हों या 60 सेकेंड पहले ऑस्ट्रेलियन बने हों, संविधान में आप बराबर हैं. आपको समान अधिकार व मौके मिले हैं, समान लोकतांत्रिक अधिकार मिले हैं. वॉइस के समर्थक इसे बदलना चाहते हैं.”
मिलिए अफ्रीका के घने जंगलों में रहने वाले पिग्मी लोगों से
पिग्मी अफ्रीकी देश कॉन्गो के घने जंगलों में रहते हैं. लेकिन अब उनके पुरखों के इलाके पर धीरे धीरे कब्जा होता जा रहा है और उन्हें अपनी संस्कृति को बचाने के लिए जंगलों के और अंदर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है.
तस्वीर: Marco Simoncelli
घने जंगलों में शरण
मोवियो एक युवा आका-बेंजेले पिग्मी है और वो पहले पूरे जंगल में शिकार करने और खाना इकट्ठा करने के लिए स्वच्छंद घूमता था. लेकिन जब उसके समुदाय के लोगों पर जमींदारों, वन विभाग और खनन से जुड़े लोगों की वजह से खतरा मंडराने लगा, तब उन्होंने अपनी खानाबदोश संस्कृति को छोड़कर जंगल के अंदर की तरफ एक जगह बस जाने का फैसला किया.
तस्वीर: Marco Simoncelli
अफ्रीका के आखिरी शिकारी खानाबदोश
पिग्मी लोग अफ्रीका के आखिरी शिकारी खानाबदोश समुदायों में से हैं. कभी ये लोग पूरी कॉन्गो घाटी में रहा करते थे, लेकिन अब इनका इलाका सिमट गया है. केंद्रीय अफ्रीका के नौ देशों के जंगलों में अभी भी करीब 9,00,000 पिग्मी रहते हैं, लेकिन मोवियो जैसे युवाओं के लिए अब अपनी शिकारी परंपरा को जिंदा रखना और मुश्किल होता जा रहा है.
तस्वीर: Marco Simoncelli
जीने के तरीके पर ही खतरा
पिग्मी लोग जंगलों के रहस्य और उनसे जुड़े रिवाज अपने बच्चों को जन्म के साथ ही सिखाना शुरू कर देते हैं. लेकिन आका-बेंजेल समुदाय को अब यह चिंता है कि अब वो यह ज्ञान आने वाली पीढ़ियों को नहीं दे पाएंगे. केंद्रीय अफ्रीका के अधिकांश इलाकों में पिग्मी अब स्वतंत्र रूप से उन इलाकों में घूम नहीं सकते जो पारंपरिक रूप से उन्हीं के थे.
तस्वीर: Marco Simoncelli
लोंगा, जहां मिलती है भेदभाव से पनाह
लोंगा गांव लिकुआला विभाग के वर्षा वनों के गहरे अंदर स्थित है. यहां नस्लीय भेदभाव से दूर सामुदायिक जीवन चुपचाप चल रहा है. कॉन्गो पिग्मी लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून पास करने वाला पहला देश था, लेकिन उसके बावजूद आज भी उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है.
तस्वीर: Marco Simoncelli
जंगल के साथ तालमेल
कॉन्गो के समाज में पिग्मी लोगों को तुच्छ समझा जाता है. बैंतु जनजाति के लोग कभी इन्हें गुलामों की तरह रखते थे और आज भी वो इन्हें पिछड़ा हुआ समझते हैं. लेकिन पिग्मी लोगों का वर्षा वनों के पर्यावरण से बहुत करीबी रिश्ता है. वो उसकी पूजा करते हैं, प्रकृति के साथ तालमेल बना कर रहते हैं और पर्यावरण की रक्षा भी करते हैं.
तस्वीर: Marco Simoncelli
जलवायु के लिए जरूरी जंगल
पिग्मी अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से कॉन्गो घाटी के जंगलों पर निर्भर हैं. ये दुनिया के दूसरे सबसे बड़े वर्षावन हैं और ये वैश्विक जलवायु के संतुलन के लिए भी बहुत महत्ववूर्ण हैं. ये साल में 1.2 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड सोख लेते हैं. लेकिन अब इन जंगलों पर पेड़ काटने, खनन और शहरीकरण की वजह से खतरा मंडरा रहा है.
तस्वीर: Marco Simoncelli
अद्भुत शिकारी और जंगल गाइड
आका-बेंजेले लोग रात में भी जंगल में रास्ता ढूंढ सकते हैं. ये परभक्षियों की पकड़ में ना आने में माहिर होते हैं और प्रतिभाशाली शिकारी होते हैं. ये दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण अभयारण्यों में से एक में रहते हैं, जो 24 करोड़ हेक्टेयर में फैला है और जो 10,000 से भी ज्यादा किस्म के पौधों और हजारों जानवरों का घर है.
तस्वीर: Marco Simoncelli
वन अधिकारियों द्वारा शोषण
जंगलों के कई हिस्सों में अभयारण्य के पहरेदारों ने पिग्मी लोगों पर अवैध शिकार का आरोप लगा कर उनकी बस्तियों पर हमला कर उन्हें जला दिया. 2016 में सर्वाइवल इंटरनैशनल संस्था ने डब्ल्यूडब्ल्यूएफ और अफ्रीका के उद्यानों पर मूल निवासी लोगों के शोषण के सैकड़ों मामलों का आरोप लगाया.
तस्वीर: Marco Simoncelli
संरक्षण के नाम पर
संयुक्त राष्ट्र की जांच में भी पर्यावरण समूहों द्वारा पिग्मी लोगों के शोषण और मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों की पुष्टि हुई है. इससे मूल निवासियों की पारम्परिक जमीन पर अभयारण्य बनाने पर भी सवाल खड़े करता है.
तस्वीर: Marco Simoncelli
वन देवता 'मोबे'
सूर्यास्त के समय लोंगा में पिग्मी लोगों के वन देवता 'मोबे' का रूप लिए एक शख्स आता है. लोग देवता से फलों और अच्छे शिकार का आशीर्वाद मांगते हैं. कॉन्गो के एथनोलॉजिस्ट सोरेल एटा कहते हैं, "उन्होंने अपनी दुनिया की सालों से रक्षा की है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि हम इनके बिना जंगल को बचा नहीं पाते." (मार्को सिमोंसेली)
तस्वीर: Marco Simoncelli
10 तस्वीरें1 | 10
लेकिन बहुत से मूल निवासी ऐसा महसूस नहीं करते. एक मूल निवासी नेता डैरेन बर्न्स ने मीडिया से बातचीत में कहा, "मैं आदिवासियों के अधिकारों के लिए बहुत समय से काम कर रहा हूं. कुछ बुजुर्गों ने मुझे कहा कि इस (वॉइस की हार) ने (मूल निवासी अधिकारों को) 40-50 साल पीछे भेज दिया है.”
वह कहते हैं कि मूल निवासियों की स्थिति को ऑस्ट्रेलियाई पूरी तरह समझ नहीं रहे हैं. उन्होंने कहा, "मूल निवासी समुदायों में आत्महत्या की दर, जीवन प्रत्याशा... सरकार में बैठे कुछ लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं कि यह अंतर कैसे दूर किया जाए. कि हमारे लोगों को क्या मार रहा है. जो चीज हमारे लोगों को मार रही है वो हर सुबह उठने पर होने वाला यह अहसास है कि आपकी जमीन उन लोगों से भरी हुई है जिन्होंने इसे चुरा लिया है और आपको ऐसे रहना है जैसे कुछ गलत नहीं है.”