अफगानिस्तान में बहाए लहू को बर्बादी मानते हैं अमेरिकी सैनिक
२१ जुलाई २०२१
अमेरिकी सेना को अफगानिस्तान से लौटता देख लोग पूछ रहे हैं कि इस युद्ध से क्या हासिल हुआ. बहुत से सैनिक मानते हैं कि अमेरिका यह युद्ध हार गया.
विज्ञापन
जेसन लाइली मरीन रेडर नाम के विशेष अमेरिकी बल का हिस्सा थे और उन्होंने इराक व अफगानिस्तान में कई अभियानों में हिस्सा लिया. 41 साल के लाइली जब राष्ट्रपति जो बाइडेन के अफगानिस्तान से सेनाएं वापस बुलाने के फैसले के बारे में सोचते हैं तो जितना उन्हें अपने देश पर प्यार आता है, उतनी ही राजनेताओं के प्रति घिन भी जाहिर करते हैं.
अमेरिका के सबसे लंबे युद्ध में जो धन और लहू बहाया गया, उस पर लाइली को बहुत अफसोस है. वह कहते हैं कि उन्होंने जो साथी इस युद्ध में खोए हैं, वे बेशकीमती थे. लाइली कहते हैं, "हम यह युद्ध हार गए. सौ फीसदी. मकसद तो तालिबान का सफाया था. और वो हमने नहीं किया. तालिबान फिर से देश कब्जा लेगा.” बाइडेन का कहना है कि अफगानिस्तान के लोगों को अपना भविष्य खुद तय करना होगा और अमेरिका को एक ना जीते जा सकने वाले युद्ध में एक और पीढ़ी बर्बाद नहीं करनी है.
बेमकसद युद्ध
11 सितंबर 2001 को न्यू यॉर्क में अल कायदा द्वारा किए गए आतंकवादी हमले के जवाब में अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया था. ब्राउन यूनिवर्सिटी के कॉस्ट्स ऑफ वॉर प्रोजेक्ट के तहत दो दशक तक चले इस युद्ध में अमेरिका और उसके सहयोगियों के 3,500 सैनिकों की मौत हुई. 47 हजार से ज्यादा अफगान नागरिक मारे गए. कम से कम 66 हजार अफगान सैनिकों की जान गई और 27 लाख से ज्यादा अफगान नागरिकों ने देश छोड़ दिया.
तस्वीरों मेंः आतंकवाद ने बर्बाद कर दी जिंदगी
पाकिस्तान: एक कबायली महिला का आतंकवाद से संघर्ष
अफगान सीमा से लगे पाकिस्तान के मोहमंद जिले में रहने वाली बसुआलिहा का पति और बेटा आतंकी हमलों में मारे गए थे. आज जब इलाके में तालिबान के लौटने का डर फैलता जा रहा है, 55-वर्षीय बसुआलिहा किसी तरह अपने हालात से लड़ रही हैं.
तस्वीर: Saba Rehman/DW
एक कठिन जीवन
पाकिस्तान की कबायली महिलाओं के लिए जिंदगी कठिन है. 55 साल की विधवा बसुआलिहा के लिए आतंकवादी हमलों में 2009 में अपने बेटे और 2010 में अपने पति को खो देने के बाद जिंदगी और दर्द भरी हो गई. वो अफगानिस्तान की सीमा से लगे कबायली जिले मोहमंद में गलनाइ नाम के शहर में रहती हैं. 2001 में अमेरिका के अफगानिस्तान पर आक्रमण के बाद इस इलाके पर तालिबान के विद्रोह का बड़ा बुरा असर पड़ा था.
तस्वीर: Saba Rehman/DW
हर तरफ से हमले
बसुआलिहा के बड़े बेटे इमरान खान की 23 साल की उम्र में एक स्थानीय "शांति समिति" ने हत्या कर दी थी. बसुआलिहा ने डीडब्ल्यू को बताया कि वो समिति एक तालिबान-विरोधी समूह थी और उसके लोगों ने उनके बेटे को आतंकवादियों की मदद करने के शक में मार दिया था. पिछले कुछ सालों में यहां थोड़ी शांति आई है, लेकिन तालिबान के लौटने की संभावना से यहां फिर से डर का माहौल कायम हो गया है.
तस्वीर: dapd
एक हिंसक दौर
अगले ही साल छह दिसंबर 2010 को बसुआलिहा के पति अब्दुल गुफरान की एक सरकारी इमारत पर आत्मघाती बम विस्फोट में जान चली गई. उन्होंने बताया कि उनके पति अपने बेटे की मौत का मुआवजा लेने वहां गए थे. हमले में बीसियों लोग मारे गए थे. बसुआलिहा कहती हैं कि कबायली इलाकों में पति या किसी और व्यस्क मर्द के बिना एक महिला की जिंदगी खतरों और जोखिमों से भरी हुई होती है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Majeed
उम्मीद का दामन
बसुआलिहा को अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है. उनके गांव में गैस, बिजली की स्थिर आपूर्ति और इंटरनेट जैसी सुविधाएं नहीं हैं लेकिन पति और बेटे की मौत के बावजूद उन्होंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा. उन्हें सरकार से मदद के रूप में 10,000 रुपये हर महीने मिलते थे, लेकिन को सिर्फ इस पर निर्भर नहीं रहना चाहती थीं. सरकारी मदद 2014 में बंद भी हो गई.
तस्वीर: Saba Rehman/DW
सिलाई का काम
बसुआलिहा चाहती हैं कि उनके बाकी बच्चों को उचित शिक्षा मिले. उन्होंने बताया, "यह आसान नहीं था. एक बार तो मुझे ऐसा लगने लगा था कि मेरी जिंदगी बेकार है और मैं इस समाज में नहीं रह सकती हूं." आज कपड़ों की सिलाई उनकी कमाई का एक अहम जरिया है. वो महिलाओं के लिए सूट सिलती हैं और हर सूट के लिए 150-200 रुपए लेती हैं.
तस्वीर: Saba Rehman/DW
मर्द का साथ अनिवार्य
बसुआलिहा कहती हैं, "मेरे पति की मौत के बाद मैं रोटियां बनाती थी और मेरी छोटी बेटियां उन्हें मुख्य सड़क पर बेचा करती थीं. फिर मेरी बेटियां थोड़ी बड़ी हो गईं और हमारे इलाके में लड़कियों का 'इधर उधर घूमना' बुरा माना जाता है." वो कहती हैं कि इसके बाद उन्होंने रजाइयां और कंबल सिलना और उन्हें बेचना शुरू किया. जब भी वो बाजार जाती हैं उनके साथ एक मर्द जरूर होना चाहिए, चाहे वो किसी भी उम्र का हो.
तस्वीर: Saba Rehman/DW
और हिंसा होने वाली है?
पाकिस्तान के उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी कबायली इलाकों में ऐसे हजारों परिवार हैं जो हिंसा के शिकार हुए हैं. बसुआलिहा के देवर अब्दुर रजाक कहते हैं उन्हें आज भी याद है जब मियां अब्दुल गुफरान तालिबान के हमले में मारे गए. वो उम्मीद कर रहे हैं कि कबायली इलाके एक बार फिर हिंसा और उथल पुथल में ना डूब जाएं. (सबा रहमान)
तस्वीर: Saba Rehman/DW
7 तस्वीरें1 | 7
16 साल तक अमेरिका के ‘आतंक के खिलाफ युद्ध' में मोर्चे पर तैनात रहे लाइली पूछते हैं कि क्या यह युद्ध लड़ने लायक था? वह तो सोचते थे कि फौजों को इसलिए तैनात किया गया है ताकि दुश्मन को हराया जाए, अर्थव्यवस्था को गति मिले और अफगानिस्तान को पूर्ण रूप से ऊपर उठाया जा सके. लेकिन जो हासिल हुआ, उस पर वाइली कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि इसके लिए दोनों तरफ से एक भी जान गंवाई जानी चाहिए थी.”
ऐसा सोचने वाले लाइली अकेले नहीं हैं. दो दशक की जंग के बाद जब अमेरिकी फौजें घर लौट रही हैं तो देश के बहुत से लोग इसके नतीजों पर विचार कर रहे हैं. कई अन्य पूर्व सैनिक लाइली से सहमत नहीं हैं. बहुत से लोगों को लगता है कि इस युद्ध की बदौलत महिलाओँ की स्थिति बेहतर हुई और नेवी सील कमांडो अल कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में घुसकर खत्म करने में कामयाब रहे.
विज्ञापन
सेना की वापसी सही
हालांकि, सेनाओं को वापस बुलाने के बाइडेन के फैसले के पक्ष में ज्यादातर लोग हैं. इसी महीने हुए रॉयटर्स-इप्सोस के एक सर्वेक्षण के मुताबिक सिर्फ 30 प्रतिशत डेमोक्रैट्स और 40 प्रतिशत रिपब्लिकन मानते हैं कि सेनाओं को वापस बुलाने का फैसला गलत है. लेकिन लाइली और उन जैसे बहुत से पूर्व सैनिक इस युद्ध की तुलना वियतनाम युद्ध से करते हैं. वह कहते हैं कि दोनों ही युद्धों का कोई स्पष्ट मकसद नहीं था. दोनों युद्धों के दौरान एक से ज्यादा राष्ट्रपति बदले और दोनों बार सामना एक बहुत खूंखार दुश्मन से था जिसकी कोई वर्दी नहीं है.
देखिएः चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
बगराम हवाई अड्डा करीब बीस साल तक अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों का मुख्यालय रहा. अमेरिकी फौज स्वदेश वापस जा रही है और इस मुख्यालय को खाली किया जा रहा है. पीछे रह गया है टनों कचरा...
तस्वीर: Adek Berry/Getty Images/AFP
जहां तक नजर जाए
2021 में 11 सितंबर की बरसी से पहले अमेरिकी सेना बगराम बेस को खाली कर देना चाहती है. जल्दी-जल्दी काम निपटाए जा रहे हैं. और पीछे छूट रहा है टनों कचरा, जिसमें तारें, धातु और जाने क्या क्या है.
तस्वीर: Adek Berry/Getty Images/AFP
कुछ काम की चीजें
अभी तो जहां कचरा है, वहां लोगों की भीड़ कुछ अच्छी चीजों की तलाश में पहुंच रही है. कुछ लोगों को कई काम की चीजें मिल भी जाती हैं. जैसे कि सैनिकों के जूते. लोगों को उम्मीद है कि ये चीजें वे कहीं बेच पाएंगे.
तस्वीर: Adek Berry/Getty Images/AFP
इलेक्ट्रॉनिक खजाना
कुछ लोगों की नजरें इलेक्ट्रोनिक कचरे में मौजूद खजाने को खोजती रहती हैं. सर्किट बोर्ड में कुछ कीमती धातुएं होती हैं, जैसे सोने के कण. इन धातुओं को खजाने में बदला जा सकता है.
तस्वीर: Adek Berry/Getty Images/AFP
बच्चे भी तलाश में
कचरे के ढेर से कुछ काम की चीज तलाशते बच्चे भी देखे जा सकते हैं. नाटो फौजों के देश में होने से लड़कियों को और महिलाओं को सबसे ज्यादा लाभ हुआ था. वे स्कूल जाने और काम करने की आजादी पा सकी थीं. डर है कि अब यह आजादी छिन न जाए.
तस्वीर: Adek Berry/Getty Images/AFP
कुछ निशानियां
कई बार लोगों को कचरे के ढेर में प्यारी सी चीजें भी मिल जाती हैं. कुछ लोग तो इन चीजों को इसलिए जमा कर रहे हैं कि उन्हें इस वक्त की निशानी रखनी है.
तस्वीर: Adek Berry/Getty Images/AFP
खतरनाक है वापसी
1 मई से सैनिकों की वापसी आधिकारिक तौर पर शुरू हुई है. लेकिन सब कुछ हड़बड़ी में हो रहा है क्योंकि तालीबान के हमले का खतरा बना रहता है. इसलिए कचरा बढ़ने की गुंजाइश भी बढ़ गई है.
तस्वीर: Adek Berry/Getty Images/AFP
कहां जाएगा यह कचरा?
अमेरिकी फौजों के पास जो साज-ओ-सामान है, उसे या तो वे वापस ले जाएंगे या फिर स्थानीय अधिकारियों को दे देंगे. लेकिन तब भी ऐसा बहुत कुछ बच जाएगा, जो किसी खाते में नहीं होगा. इसमें बहुत सारा इलेक्ट्रॉनिक कचरा है, जो बीस साल तक यहां रहे एक लाख से ज्यादा सैनिकों ने उपभोग करके छोड़ा है.
तस्वीर: Adek Berry/Getty Images/AFP
बगराम का क्या होगा?
हिंदुकुश पर्वत की तलहटी में बसा बगराम एक ऐतिहासिक सैन्य बेस है. 1979 में जब सोवियत संघ की सेना अफगानिस्तान आई थी, तो उसने भी यहीं अपना अड्डा बनाया था. लेकिन, अब लोगों को डर सता रहा है कि अमरीकियों के जाने के बाद यह जगह तालीबान के कब्जे में जा सकती है.
तस्वीर: Adek Berry/Getty Images/AFP
सोचो, साथ क्या जाएगा
क्या नाटो के बीस साल लंबे अफगानिस्तान अभियान का हासिल बस यह कचरा है? स्थानीय लोग इसी सवाल का जवाब खोज रहे हैं.
तस्वीर: Adek Berry/Getty Images/AFP
9 तस्वीरें1 | 9
लाइली और उनका नेटवर्क अमेरिकी जनता को युद्ध की कीमत बताने का काम कर रहा है. उन्हीं के नेटवर्क में काम करने वाले 34 वर्षीय जॉर्डन लेयेर्ड कहते हैं कि उनके साथी अफगानिस्तान और इराक को ‘विएतस्तान' कहते हैं. वह अफगानिस्तान के हेल्मंड प्रांत में अक्टूबर 2010 से अप्रैल 2011 के बीच तैनात रहे. इस दौरान उन्होंने 25 साथी खोए और 200 से ज्यादा अपंग हो गए.
साम्राज्यों की कब्रगाह
वाइली कहते हैं कि अफगानिस्तान में तैनाती के दौरान उन्होंने जाना कि क्यों इस जगह को इतिहासकारों ने ‘साम्राज्यों की कब्रगाह' कहा है. 19वीं सदी में ब्रिटेन ने दो बार अफगानिस्तान पर हमला किया और 1842 में सबसे बुरी हार झेली. सोवियत संघ ने 1979 से 1989 तक अफगानिस्तान में जंग लड़ी और 15 हजार लाशें व हजारों घायल सैनिक लेकर लौटा.
लाइली बताते हैं कि अमेरिकी सेना के युद्ध के नियमों को लेकर वह हमेशा सशंकित रहे. जैसे कि उन्हें रात को तालिबान पर हमले की इजाजत नहीं थी. वह कहते हैं, "मरीन सैनिक बच्चों को चूमने और पर्चे बांटने के लिए नहीं बने हैं. हम वहां सफाया करने के लिए होते हैं. हम दोनों काम नहीं कर सकते. इसलिए हमने कोशिश की और हार गए.”
लाइली की आलोचना पर अमेरिका सेना ने कोई टिप्पणी नहीं की. लेकिन लाइली एक तालिबानी कैदी की बात को अक्सर याद करते हैं. उस कैदी ने लाइली से कहा था कि तालिबान अमेरिका के जाने का इंतजार करेंगे क्योंकि वे जानते हैं कि एक दिन अमेरिकी इस युद्ध पर भरोसा खो बैठेंगे, ठीक वैसे ही जैसे सोवियतों के साथ हुआ था. लाइली कहते हैं, "यह 2009 की बात थी. आज हम 2021 में हैं. और वह सही था.”