हैपी एंड की तलाश में दर्शक
१५ अप्रैल २०१३प्यार, उदासी, खुशी, इंतजार, जीवन के हर पहलू को, हर एहसास को फिल्मों में उतारने की कोशिश की जाती है. पर फिल्मों में ये इंसानी जज्बात अक्सर परिकथा जैसे लगते हैं. हिन्दी फिल्में अधिकतर दो प्यार करने वालों की कहानी होती हैं. दुनिया से लड़ कर, परेशानियों से जूझ कर ये प्यार करने वाले फिल्म के अंत में एक हो जाते हैं. स्क्रीन पर लिखा "दी एंड" परिकथा के खुशहाल अंत का गवाह होता है.
फिल्मी प्रेम कहानियां
हैदराबाद की विदेशी भाषाओं के विश्वविद्यालय में फिल्म विज्ञान पढ़ाने वाले एम माधव प्रसाद का कहना है कि फिल्मों का यह रूप समाज को दुविधा में ला खड़ा करता है, "भारत में फिल्मों का समाज पर काफी असर पड़ता है. फिल्में ऐसे विचारों के साथ आती हैं जो दर्शकों के समाज का हिस्सा ही नहीं है."
भारतीय सिनेमा में प्रेम कथाओं पर दिखाए जाने पर उनका कहना है, "फिल्में रोमांस और प्यार से भरी पड़ी हैं, और भारतीय समाज इसे खारिज करता है. दुनिया के कई हिस्सों में कोर्टशिप, रोमांस और फिर शादी का चलन है, पर हमारे समाज में ऐसा नहीं होता."
फना, हम तुम और तेरी मेरी कहानी जैसी रोमांटिक फिल्में बनाने वाले निर्देशक कुणाल कोहली ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा कि फिल्म और समाज दरअसल अलग अलग चीजें हैं, "अगर फिल्मों से हमारे समाज पर असर पड़ता तो हम एक दूसरे को हंसाते रहते, हमें थोड़ा और प्यार हो जाता, पर ऐसा तो नहीं है."
तकनीक पर निर्भर
भारतीय फिल्में अभी भी तकनीक के मामले में बहुत आगे नहीं निकल पाई हैं और उन्हें इसके लिए पश्चिमी देशों के सहारे की जरूरत होती है. माधव प्रसाद का कहना है, "सिनेमा के मुद्दे तकनीक पर निर्भर करते हैं और भारतीय सिनेमा भी कहानी सुनाने के उन्हीं तरीकों को अपनाता है जो पश्चिम से आते हैं."
भारतीय फिल्मों में अभिनेत्रियां साड़ी पहन कर बर्फीली पहाड़ियों में नाच सकती हैं या आधी रात को बिना किसी खौफ के मिनी स्कर्ट के साथ सड़कों पर निकल सकती हैं.
दिल्ली के जेएनयू में फिल्म विज्ञान पढ़ाने वाली प्रोफेसर रंजिनी मजूमदार का कहना है,"यह अलग दुनिया है जो असल दुनिया के साथ साथ चलती है. यहां अपने ही तर्क होते हैं, अपने ही अलग रूप. सिनेमा आपको सच्चाई नहीं दिखाता, हां वह उससे जूझता जरूर है."
मनोरंजन की दुनिया
फिल्म डर्टी पिक्चर का विद्या बालन का डायलॉग बहुत हिट हुआ, "फिल्म बनाने के लिए तीन चीजों की जरूरत होती है, एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट". रंजिमी मजूमदार भी इससे इत्तफाक रखती हैं, "सिनेमा का मतलब ही मनोरंजन है. आप निर्देशकों से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे हमेशा समाज पर फिल्में बनाएं, यह उनका काम नहीं है."
हालांकि कुछ निर्देशकों ने समाज पर फिल्में बनाने की हिम्मत भी दिखाई है. ब्लैक फ्राइडे, गुलाल और मकबूल जैसी फिल्मों को मनोरंजन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. इन फिल्मों ने समाज की दिक्कतों को सीधे सीधे पर्दे पर उतारने के कोशिश की. ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इनसे कोई सामाजिक परिवर्तन आया हो, पर ऐसा भी नहीं कि कोई भी फिल्म बदलाव ना ला पाई हो.
बदलाव की कोशिश
2006 में आई फिल्म रंग दे बसंती ने भारत के युवाओं पर गहरी छाप छोड़ी, सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर लाठी चार्ज और इंडिया गेट के सामने उनका मोमबत्तियां जलाना फिल्म का एक हिस्सा था. कुछ ही महीनों बाद नई दिल्ली में आरक्षण के खिलाफ जब छात्रों ने प्रदर्शन किए तो लगा फिल्म के वही दृश्य दिल्ली की सड़कों पर उतर आए हों. मोमबत्तियां जलाने का चलन तो यहां से कुछ ऐसा शुरू हुआ कि जेसिका लाल को न्याय दिलाने का मुद्दा हो या आरुषि हत्याकांड में कार्रवाई का, लोग मोमबत्तियों के साथ इंडिया गेट जरूर पहुंचे.
इसी तरह से शाहरुख खान की चक दे इंडिया ने भारतीय महिला हॉकी टीम की ओर लोगों का ध्यान खींचा, तो आमिर खान की तारे जमीन पर ने डिसलेक्सिक बच्चों की परेशानियों को उजागर किया. दोस्ताना ने हंसी मजाक में ही समलैंगिकों के खिलाफ भावनाओं को कुछ हद तक बदला, तो सलाम नमस्ते से लिव-इन-रिलेशनशिप पर बात होने लगी.
एक बात है जो किसी भी अन्य बॉलीवुड फिल्म की तरह इन सब में सामान है. फिल्म के किरदारों को जितनी भी परेशानियां से गुजरना पड़ा हो, पर इन सब फिल्मों के पास एक हैपी एंड है. वही हैपी एंड जो बस फिल्मों में ही होता है, असल जिंदगी में नहीं.
रिपोर्ट: ईशा भाटिया
संपादन: अनवर जे अशरफ