भारत की स्वतंत्रता की 74वीं सालगिरह पर केंद्र सरकार की ओर से लगातार भारत में सुख और संपन्नता की तस्वीर पेश की जा रही है लेकिन देश अभी भी गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई के चंगुल से पूरी तरह बाहर नहीं निकला है.
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भारत की स्वतंत्रता की 74वीं सालगिरह पर केंद्र सरकार ने 'आजादी का अमृत महोत्सव' अभियान शुरू किया है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बारे में एक कार्यक्रम में कहा, "आजादी की 75वीं सालगिरह ऐसी होगी जिसमें सनातन भारत के गौरव की झलक भी हो और आधुनिक भारत की चमक भी हो."
इस मौके पर सरकार की ओर से लगातार भारत में सुख-संपन्नता और ऐश्वर्य की तस्वीर पेश की जा रही है लेकिन फिलहाल यह देश गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई के अद्वितीय स्तर का सामना कर रहा है. यहां लोकतंत्र, प्रेस की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकार और अर्थव्यवस्था सभी जबरदस्त दबाव का सामना कर रहे हैं.
तस्वीरों मेंः ऐसे मना स्वतंत्रता दिवस
ओलंपिक विजेताओं की मौजूदगी में मना स्वतंत्रता दिवस
भारत के 75वें स्वतंत्रता दिवस के ठीक पहले ओलंपिक खेलों में पदक जीत कर आए खिलाड़ियों ने जश्न-ए-आजादी में चार चांद लगाए. देखिए लाल किले के पास मनाए गए स्वतंत्रता दिवस समारोह की कुछ झलकियां.
तस्वीर: Money Sharma/AFP
मोदी का आठवां संबोधन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से आठवीं बार देश को संबोधित किया. उनके पहले लाल किले से पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 10 बार, इंदिरा गांधी 16 बार और जवाहरलाल नेहरू 17 बार देश को संबोधित कर चुके हैं.
तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
महामारी के बीच दूसरा संबोधन
मोदी लाल किले पर गार्ड ऑफ ऑनर का निरीक्षण करते हुए. महामारी के बीच दूसरी बार स्वतंत्रता दिवस पर देश को संबोधित करते हुए मोदी ने कई घोषणाएं की.
तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
कोविड की छाया
2020 में समारोह पर कोविड महामारी की व्यापक छाया दिखाई दी थी. स्कूली बच्चों को शामिल नहीं किया गया था और अतिथियों की संख्या भी बहुत कम कर दी गई थी. इस बार इंतजामों में थोड़ी ढील दी गई और कई अतिथियों को बुलाया गया.
तस्वीर: Manish Swarup/AP Photo/picture alliance
ओलंपिक विजेता मौजूद
अतिथियों में आकर्षण का केंद्र थे वे सभी खिलाड़ी जिन्होंने हाल ही में संपन्न हुए टोक्यो ओलंपिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया और पदक भी जीते. इस तस्वीर में मास्क पहने इन सभी खिलाड़ियों के बीच भाला-फेंक में स्वर्ण पदक जीतने वाले नीरज चोपड़ा को भी देखा जा सकता है.
तस्वीर: Money Sharma/AFP
सेना ने निकाला मार्च
भारतीय सेना के विभिन्न अंगों के जवानों ने भी समारोह में हिस्सा लिया. लाल किले के सामने मार्च करते हुए सेना के जवान.
तस्वीर: Manish Swarup/AP Photo/picture alliance
चांदी का नक्शा
अहमदाबाद में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर चांदी का यह भारत का नक्शा पेश किया गया जिसमें नक्शे के ठीक बीच में 'भारत माता' की एक तस्वीर भी है.
तस्वीर: Sam Panthaky/AFP
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सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) में प्रोफेसर अभय कुमार दुबे कहते हैं, "भारतीय लोकतंत्र का विकास तीन चरणों में हुआ है. पहले चरण में यानि इंदिरा गांधी के दौर तक लोगों को सिर्फ वोट का अधिकार था, राजनीति में उनकी सक्रिय भागीदारी नहीं थी. दूसरे चरण में राजनीति के विकेंद्रीकरण और आरक्षण आदि के जरिए उसका आधार विकसित हुआ. तीसरे चरण में आशा थी कि उसकी गुणवत्ता भी अच्छी होगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं बल्कि पिछले 17 सालों में यह और खराब हुई है. यह भारतीय लोकतंत्र का विशिष्ट अंतर्विरोध है."
इस लेख में हमने वर्तमान भारत को 7 पैमानों पर मापकर जानने की कोशिश की है कि क्या आजाद भारत ने 74 सालों में जो हासिल किया, वह पर्याप्त है.
समावेशी नहीं बन सकी राजनीति
अब तक भारत में राजनीति समावेशी नहीं बन सकी है. भारत की जनसंख्या में करीब 14 फीसदी हिस्सा रखने वाले मुस्लिम वर्तमान लोकसभा में मात्र 4.7 फीसदी हैं. वहीं पहली लोकसभा में जहां महिला सदस्य 4.4 फीसदी थीं. तब से यह आंकड़ा बढ़कर मात्र 11.8 फीसदी हुआ है. इसी तरह 1952 में राज्यसभा में महिला सदस्य 7.5 फीसदी थीं, जो 2021 तक बढ़कर सिर्फ 11.6 फीसदी हो सकी हैं.
यूं तो भारत में कई महिलाएं बड़े राजनीतिक पद संभाल चुकी हैं लेकिन लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने वाला महिला आरक्षण बिल साल 2010 में राज्यसभा में पास होने के बाद से ही लटका हुआ है. जाहिर सी बात है 74 सालों में आधी आबादी को देश के लिए नीति निर्माण प्रक्रिया में शामिल करने में भारत बुरी तरह से फेल रहा है. अपराधियों का नेता बन जाना भी यहां आम रहा है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्तमान लोकसभा सदस्यों में से 43% पर आपराधिक मामले दर्ज हैं.
नागरिक स्वतंत्रता पर बड़ा खतरा
फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2021 रिपोर्ट में भारत की राजनीतिक स्थिति को 'आंशिक रूप से स्वतंत्र' बताया गया है. भारत की स्थिति में गिरावट की वजह मीडिया की स्वतंत्रता में कमी, संकीर्ण हिंदूवादी हितों का उभार, इंटरनेट स्वतंत्रता में गिरावट, वायरस के विरुद्ध समुदाय विशेष को निशाना बनाया जाना, प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई और धर्म परिवर्तन के नए कानूनों को बताया गया है. पेगासस के जरिए समाज के प्रमुख लोगों की जासूसी कराने का आरोप भी नागरिक स्वतंत्रता की खराब स्थिति दिखाता है.
तस्वीरों मेंः मीडिया के हमलावरों में मोदी भी
मीडिया पर हमला करने वाले 37 नेताओं में मोदी शामिल
अंतरराष्ट्रीय संस्था 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' ने मीडिया पर हमला करने वाले 37 नेताओं की सूची जारी की है. इनमें चीन के राष्ट्रपति और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जैसे नेताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी नाम है.
'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' (आरएसएफ) ने इन सभी नेताओं को 'प्रेडेटर्स ऑफ प्रेस फ्रीडम' यानी मीडिया की स्वतंत्रता को कुचलने वालों का नाम दिया है. आरएसएफ के मुताबिक ये सभी नेता एक सेंसर व्यवस्था बनाने के जिम्मेदार हैं, जिसके तहत या तो पत्रकारों को मनमाने ढंग से जेल में डाल दिया जाता है या उनके खिलाफ हिंसा के लिए भड़काया जाता है.
तस्वीर: rsf.org
पत्रकारिता के लिए 'बहुत खराब'
इनमें से 16 प्रेडेटर ऐसे देशों पर शासन करते हैं जहां पत्रकारिता के लिए हालात "बहुत खराब" हैं. 19 नेता ऐसे देशों के हैं जहां पत्रकारिता के लिए हालात "खराब" हैं. इन नेताओं की औसत उम्र है 66 साल. इनमें से एक-तिहाई से ज्यादा एशिया-प्रशांत इलाके से आते हैं.
तस्वीर: Li Xueren/XinHua/dpa/picture alliance
कई पुराने प्रेडेटर
इनमें से कुछ नेता दो दशक से भी ज्यादा से इस सूची में शामिल हैं. इनमें सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद, ईरान के सर्वोच्च नेता अली खामेनी, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और बेलारूस के राष्ट्रपति एलेग्जेंडर लुकाशेंको शामिल हैं.
मोदी का नाम इस सूची में पहली बार आया है. संस्था ने कहा है कि मोदी मीडिया पर हमले के लिए मीडिया साम्राज्यों के मालिकों को दोस्त बना कर मुख्यधारा की मीडिया को अपने प्रचार से भर देते हैं. उसके बाद जो पत्रकार उनसे सवाल करते हैं उन्हें राजद्रोह जैसे कानूनों में फंसा दिया जाता है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma
पत्रकारों के खिलाफ हिंसा
आरएसएफ के मुताबिक सवाल उठाने वाले इन पत्रकारों के खिलाफ सोशल मीडिया पर ट्रोलों की एक सेना के जरिए नफरत भी फैलाई जाती है. यहां तक कि अक्सर ऐसे पत्रकारों को मार डालने की बात की जाती है. संस्था ने पत्रकार गौरी लंकेश का उदाहरण दिया है, जिन्हें 2017 में गोली मार दी गई थी.
तस्वीर: Imago/Hindustan Times
अफ्रीकी नेता
ऐतिहासिक प्रेडेटरों में तीन अफ्रीका से भी हैं. इनमें हैं 1979 से एक्विटोरिअल गिनी के राष्ट्रपति तेओडोरो ओबियंग गुएमा बासोगो, 1993 से इरीट्रिया के राष्ट्रपति इसाईअास अफवेरकी और 2000 से रवांडा के राष्ट्रपति पॉल कगामे.
तस्वीर: Ju Peng/Xinhua/imago images
नए प्रेडेटर
नए प्रेडेटरों में ब्राजील के राष्ट्रपति जैर बोल्सोनारो को शामिल किया गया है और बताया गया है कि मीडिया के खिलाफ उनकी आक्रामक और असभ्य भाषा ने महामारी के दौरान नई ऊंचाई हासिल की है. सूची में हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान का भी नाम आया है और कहा गया है कि उन्होंने 2010 से लगातार मीडिया की बहुलता और आजादी दोनों को खोखला कर दिया है.
तस्वीर: Ueslei Marcelino/REUTERS
नए प्रेडेटरों में सबसे खतरनाक
सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस सलमान को नए प्रेडेटरों में सबसे खतरनाक बताया गया है. आरएसएफ के मुताबिक, सलमान मीडिया की आजादी को बिलकुल बर्दाश्त नहीं करते हैं और पत्रकारों के खिलाफ जासूसी और धमकी जैसे हथकंडों का इस्तेमाल भी करते हैं जिनके कभी कभी अपहरण, यातनाएं और दूसरे अकल्पनीय परिणाम होते हैं. पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या का उदाहरण दिया गया है.
तस्वीर: Saudi Royal Court/REUTERS
महिला प्रेडेटर भी हैं
इस सूची में पहली बार दो महिला प्रेडेटर शामिल हुई हैं और दोनों एशिया से हैं. हांग कांग की चीफ एग्जेक्टिवे कैरी लैम को चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की कठपुतली बताया गया है. बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को भी प्रेडेटर बताया गया है और कहा गया है कि वो 2018 में एक नया कानून लाई थीं जिसके तहत 70 से भी ज्यादा पत्रकारों और ब्लॉगरों को सजा हो चुकी है.
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स नाम का एक फ्रेंच एनजीओ 'वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स' जारी करता है. इस लिस्ट में साल 2021 में भारत को 180 देशों की लिस्ट में 142वें स्थान पर रखा गया है. मीडिया को नियंत्रित करने के लिए सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल, मानहानि, देशद्रोह और अवमानना जैसे साधनों का इस्तेमाल इस खराब रैंकिंग की वजह है. जानकार कहते हैं कि पत्रकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ भी देशद्रोह के कानून का खुलकर इस्तेमाल किया जा रहा है. इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय लोकतंत्र की छवि लगातार खराब हो रही है.
न्यायपालिका की बिगड़ती स्थिति
मुंबई हाईकोर्ट के जज बीएच लोया की संदिग्ध मौत ने भारत में न्यायपालिका की छवि को खराब किया था. भारत में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की ओर से साल 2018 में एक ऐतिहासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर भी इस मामले पर सवाल उठाए गए थे. मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगोई को कार्यकाल समाप्त होते ही राज्यसभा का सदस्य बनाए जाने के बाद एक बार फिर भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर गंभीर सवाल उठे थे. हाल ही में सामाजिक कार्यकर्ता स्टैन स्वामी की मौत के मामले ने एक बार फिर न्यायपालिका पर सवाल खड़े किए.
अभय कुमार दुबे के मुताबिक न्यायपालिका में आई गड़बड़ी के लिए भी सरकार ही जिम्मेदार है. वह कहते हैं, "लोकतंत्र के तीन अंग हैं, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका. राजनीतिक सत्ता विधायिका और न्यायपालिका के पास नहीं होती सिर्फ कार्यपालिका के पास होती है. फिलहाल कार्यपालिका बहुत ज्यादा शक्तिशाली हो गई है. न्यायपालिका की गड़बड़ी के लिए भी वही जिम्मेदार है. ये गड़बड़ियां दूर करनी हैं तो कार्यपालिका को संयमित रखना होगा."
मजबूत विपक्ष की कमी
भारत की हिंदूवादी पार्टी बीजेपी पर राज्यों में सरकार बनाने के लिए विपक्षी विधायकों को खरीदने के कई आरोप लगे हैं. इसे लेकर अक्सर सोशल मीडिया पर पार्टी के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह का मजाक भी उड़ाया जाता है. भारत के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के कई बड़े नेता बीजेपी में शामिल हो चुके हैं और किसी राज्य में चुनाव से पहले वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी के नेताओं का पाला बदल कर बीजेपी में शामिल हो जाना अब आम बात हो चली है.
देखेंः कब-कब कहा सरकार ने, आंकड़े नहीं हैं
कब-कब सरकार ने कहा आंकड़े नहीं हैं
भारत में ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर भारत सरकार के पास आंकड़े नहीं हैं. विपक्ष सरकार से आंकड़े मांगता है सरकार कहती है हमें जानकारी ही नहीं है. एक नजर, ऐसे मुद्दों पर जिनके बारे में सरकार के पास डेटा नहीं हैं.
तस्वीर: Sonali Pal Chaudhury/NurPhoto/picture alliance
ऑक्सीजन की कमी से मौत
कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन की कमी से किसी की भी मौत नहीं होने के बयान के बाद सरकार दोबारा से डेटा जुटाएगी. सरकार ने संसद में 20 जुलाई को बयान दिया था कि देश में ऑक्सीजन की कमी से किसी की भी मौत नहीं हुई थी. लेकिन विपक्षी दलों के हंगामे और आलोचना के बाद सरकार ने राज्यों से दोबारा से ऑक्सीजन की कमी से होने वाली मौतों का आंकड़ा मांगा है.
कोरोना की पहली लहर में लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूर पैदल ही शहरों से गांव की ओर निकल पड़े. सफर के दौरान प्रवासी मजदूरों की सड़क हादसे, रेल ट्रैक पर चलने और अन्य कारणों से मौत हुई. स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क के आंकड़ों के मुताबिक पिछले लॉकडाउन के दौरान 971 प्रवासी मजदूरों की गैर कोविड मौतें हुईं. सरकार ने कहा था कि लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की मौत के बारे में उसके पास डेटा नहीं है.
तस्वीर: DW/M. Kumar
बेरोजगारी और नौकरी गंवाने पर डेटा
मानसून सत्र में सरकार से सभी दलों के कम से कम 13 सांसदों ने कोरोना महामारी के दौरान बेरोजगारी और नौकरी गंवाने वालों का स्पष्ट डेटा मांगा था, लेकिन सरकार ने डेटा मुहैया नहीं कराया. इसके बदले केंद्र सरकार ने आत्मनिर्भर भारत पैकेज, मेड इन इंडिया परियोजनाओं, स्वरोजगार योजनाओं और ऋणों का विवरण देकर इस मुद्दे को टाल दिया.
तस्वीर: Pradeep Gaur/Zumapress/picture alliance
किसान आंदोलन के दौरान मौत का आंकड़ा
23 जुलाई 2021 को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि किसान आंदोलन के दौरान कितने किसानों की मौत हुई इसकी जानकारी नहीं है, लेकिन पंजाब सरकार ने जो डेटा इकट्ठा किया है उसके मुताबिक कुल 220 किसानों की राज्य में मौत हुई. राज्य सरकार ने मृतकों के परिजनों को 10.86 करोड़ मुआवजा भी दिया है.
तस्वीर: Adnan Abidi/REUTERS
कितना काला धन
मानसून सत्र में सरकार ने कहा है कि पिछले दस साल में स्विस बैंकों में कितना काला धन छिपाया गया है उसे इस बारे में कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है. लोकसभा में कांग्रेस सांसद विन्सेंट एच पाला के सवाल के लिखित जवाब में वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने यह बात कही. साथ ही उन्होंने कहा कि सरकार ने बीते कई सालों में विदेशों में छिपाए गए काले धन को लाने की कई कोशिशें की हैं.
तस्वीर: picture-alliance/Global Travel Images
क्रिप्टो करेंसी के कितने निवेशक
भारत में काम कर रहे निजी क्रिप्टो करेंसी एक्सचेंजों की संख्या बढ़ रही है, केंद्र के पास उन पर कोई आधिकारिक डेटा नहीं है. इन एक्सचेंजों से जुड़े निवेशकों की संख्या के बारे में भी कोई जानकारी नहीं है. देश में एक्सचेंजों की संख्या और उनसे जुड़े निवेशकों की संख्या पर एक प्रश्न के उत्तर में वित्त मंत्री ने 27 जुलाई को संसद में एक लिखित जवाब में कहा, "यह जानकारी सरकार द्वारा एकत्र नहीं की जाती है."
तस्वीर: STRF/STAR MAX/IPx/picture alliance
पेगासस जासूसी मामला
भारत ही नहीं पूरी दुनिया में पेगासस जासूसी मामला इस वक्त सबसे गर्म मुद्दा है. दुनिया के 17 मीडिया संस्थानों ने एक साथ रिपोर्ट छापी, जिनमें दावा किया गया था कि पेगासस नाम के एक स्पाईवेयर के जरिए विभिन्न सरकारों ने अपने यहां पत्रकारों, नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के फोन हैक करने की कोशिश की. भारत के संचार मंत्री ने इस मामले में लोकसभा में एक बयान में कहा कि फोन टैपिंग से जासूसी के आरोप गलत है.
एक ओर जहां सत्ताधारी बीजेपी पर सरकारी संस्थाओं के जरिए विपक्षी नेताओं पर शिकंजा कसने का आरोप लगाया जाता है, वहीं विपक्षी दल भी ऐतिहासिक रूप से कमजोर हुए हैं. भारत के ज्यादातर बड़े राज्यों में फिलहाल बीजेपी सरकार है. कुछ राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां सत्ता में हैं लेकिन वे अभी बीजेपी का राष्ट्रीय विकल्प नहीं मानी जा सकतीं. यही वजह है कि भारत में पिछले दिनों हुए ज्यादातर आंदोलन नागरिकों ने किए हैं. राजनीतिक दलों की ओर से पिछले कई सालों से कोई उल्लेखनीय आंदोलन नहीं हो सका है. प्रोफेसर अभय कुमार दुबे कहते हैं, "इसमें सरकार की भूमिका भी है. मीडिया जैसे उपकरणों का प्रयोग कर वह विपक्ष को अवैध बना देती है."
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कानून के शासन में कमियां
जानकारों के मुताबिक आजादी के दौर से इस मोर्चे पर परिस्थितियां ज्यादा नहीं बदली हैं. आजादी से तुरंत पहले भारत ने बंगाल में जबरदस्त राजनीतिक हिंसा का दौर देखा था. पश्चिम बंगाल में हाल ही में समाप्त हुए विधानसभा चुनावों के बाद भी हिंसा का जबरदस्त दौर दिखा. भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने इस दौरान हुए 'हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों' की सीबीआई जांच की सिफारिश की है.
भारत में मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा के ऐसे दर्जनों मामले गिनाए जा सकते हैं, जिसमें आरोपियों को छोड़ दिया गया है. हाल ही में सामाजिक न्याय और अधिकारिता के राज्य मंत्री रामदास अठावले ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में कहा कि 2019 में एक साल पहले के मुकाबले अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लोगों के खिलाफ हिंसा के मामलों में 11.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और इन मामलों में आरोपियों के सजा पाने की दर भी कम बनी हुई है. यही हाल गरीबों का भी है. खुद सुप्रीम कोर्ट भी ऐसी स्वीकारोक्ति कर चुका है कि गरीबों और अमीरों के लिए न्याय प्रणाली अलग-अलग तरीके से काम करती है.
भेदभाव के मारे नागरिक, कैसे निभाएं कर्तव्य
जानकार कहते हैं कि नागरिक कहते ही लगता है कि जैसे भारत में सभी नागरिक सामान्य हैं लेकिन ऐसा नहीं है. ऐसे में कौन राज्य के संसाधनों का अच्छी तरह फायदा उठा सकता है और कौन कर्तव्य निभा सकता है, यह उनकी परिस्थिति पर निर्भर करता है. इसके लिए अभय कुमार दुबे उदाहरण देते हैं अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) का. वह कहते हैं, "आर्थिक रूप से मजबूत ओबीसी जातियां इसमें आगे रहती हैं और किसानी का काम करने वाली ओबीसी जातियां पिछड़ जाती हैं जबकि दोनों का हिस्सा समुदाय में करीब आधा-आधा है."
तस्वीरों मेंः गुलामी के भंवर में लोग
गुलामी के भवर में आज भी फंसे हैं भारत के कई लोग
भारत और अफ्रीका जैसे देशों को आजादी सालों पहले मिल गई, लेकिन फिर भी कई लोग आज भी अलग-अलग रूपों में गुलामों वाली जिंदगी जी रहे हैं.
तस्वीर: Daniel Berehulak/Getty Images
भारत में दुर्दशा
80 लाख की संख्या के साथ भारत में सबसे ज्यादा आधुनिक गुलाम रहते हैं. इसके बाद 38.6 लाख के साथ चीन इस मामले में दूसरे स्थान पर आता है. पाकिस्तान में 31.9 लाख, उत्तर कोरिया में 26.4 लाख और नाइजीरिया में 13.9 लाख लोग आज भी गुलाम हैं.
मुनाफे के लिए लोगों से हर तरह का काम कराया जा रहा है. उन्हें देह व्यापार, बंधुआ मजदूरी और अपराधों की दुनिया में धकेला जा रहा है. कहीं उनसे भीख मंगवाई जा रही है, तो कहीं घरों में उनका शोषण हो रहा है. जबरन शादी और अंगों के व्यापार में भी उन्हें मुनाफे का जरिया बनाया जा रहा है.
तस्वीर: Pradeep Gaur/Zumapress/picture alliance
कुल कितने गुलाम
दुनिया में कम से 4.03 करोड़ लोग गुलामों की तरह रह रहे हैं. इसमें से दो करोड़ से खेतों, फैक्ट्रियों और फिशिंग बोट्स पर काम लिया जा रहा है. 1.54 करोड़ को शादी के लिए मजबूर किया जाता है जबकि पचास लाख लोग देह व्यापार में धकेले गए हैं.
तस्वीर: Sony Ramany/NurPhoto/picture alliance
यूएन का लक्ष्य
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि इंसानों की तस्करी तेजी से बढ़ते हुए अपराध उद्योग की जगह ले रही है. संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक बंधुआ मजदूरी और जबरी विवाह को खत्म करने का लक्ष्य रखा है. लेकिन यह काम बहुत ही चुनौतीपूर्ण है.
तस्वीर: Stefanie Glinski/AFP/Getty Images
इंसानी तस्करी विरोधी दिवस
कहां पर कितने लोगों से गुलामों की तरह काम लिया जा रहा है, इस पर कहीं विश्वसनीय आंकड़े नहीं मिलते. लेकिन कुछ आंकड़े और तथ्य इतना जरूर बता सकते हैं कि समस्या कितनी गंभीर है. इसी की तरफ ध्यान दिलाने के लिए यूरोपीय संघ 18 अक्टूबर को इंसानी तस्करी विरोधी दिवस मनाता है.
तस्वीर: Vijay Pandey/dpa/picture alliance
महिलाएं और लड़कियां निशाना
आधुनिक गुलामों में हर दस लोगों में सात महिलाएं और लड़कियां हैं जबकि इनमें एक चौथाई बच्चे शामिल हैं. वैश्विक स्तर पर देखें तो हर 185 लोगों में से एक गुलाम है. आबादी के हिसाब से उत्तर कोरिया में सबसे ज्यादा आधुनिक गुलाम रहते हैं.
तस्वीर: Equivi
कहां क्या स्थिति
उत्तर कोरिया में 10 प्रतिशत आबादी को गुलाम बनाकर रखा गया है. इसके बाद इरिट्रिया में 9.3 प्रतिशत, बुरुंडी में चार प्रतिशत, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक में 2.2 प्रतिशत और अफगानिस्तान में 2.2 प्रतिशत लोग गुलामों की जिंदगी जी रहे हैं.
तस्वीर: Mehedi Hasan/NurPhoto/picture alliance
तो किसे अपराध कहेंगे?
2019 की शुरुआत तक 47 देशों में इंसानी तस्करी को अपराध घोषित नहीं किया गया था. 96 देशों में बंधुआ मजदूरी अपराध नहीं थी जबकि 133 देशों में जबरन शादी को रोकने वाला कोई कानून नहीं था.
तस्वीर: Colourbox
विकसित देश भी पीछे नहीं
अनुमान है कि इंसानी तस्करी से हर साल कम से कम 150 अरब डॉलर का मुनाफा कमाया जा रहा है. विकासशील ही नहीं, विकसित देशों में भी आधुनिक गुलाम मौजूद हैं. ब्रिटेन में 1.36 लाख और अमेरिका में चार लाख लोगों से गुलामों की तरह काम लिया जा रहा है. (स्रोत: अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, वॉक फ्री फाउंडेशन)
तस्वीर: picture-alliance/PA Wire/D. Lipinski
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उनके मुताबिक इसके लिए भी सरकार ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है क्योंकि वह देश की सबसे बड़ी एजेंसी है. गलत नीतियों के चलते ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अन्य संसाधनों के मामले में नागरिकों के बीच खाई खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी है. इन सबके बावजूद सरकार चुनाव जीतने की टेक्नोलॉजी इस तरह विकसित कर चुकी है कि वह इन कारकों का इस्तेमाल भी अपने उद्देश्य के लिए कर लेती है.
समाज में सहिष्णुता और सहयोग मौजूद
भारत में नागरिक समुदायों के बीच सहिष्णुता, सहयोग और समझौते की भावना लंबे समय से चर्चा का विषय बनी हुई है. देश में आए दिन ऐसे वीडियो सामने आते हैं, जिनमें मुस्लिम समुदाय से आने वाले लोगों से 'जय श्री राम' जैसे धार्मिक नारे लगवाने और हिंसा करने की घटनाएं दर्ज होती हैं. जानकार कहते हैं कि चुनावों के बीच की राजनीति इसके लिए जिम्मेदार होती है. भारत में अब समुदायों के बीच नफरत को राजनीतिक गोलबंदी का तरीका बना लिया गया है.
अभय कुमार दुबे कहते हैं, "समाज का इससे कोई लेना-देना नहीं है. यह सामाजिक असामाजिक तत्वों का काम है. यह नारे लगवाने वाले राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले कट्टरपंथी तत्व हैं. अगर सामाजिक बदलाव आ गया होता और पूरे देश में कट्टरपंथ की लहर चल गई होती तो यह घटनाएं पश्चिम बंगाल और अन्य गैर-बीजेपी शासित राज्यों में भी हो रही होतीं. दरअसल अभी ये सिर्फ इसलिए हो रही हैं क्योंकि इन्हें अंजाम देने वाले जानते हैं कि वे जिस राज्य में हैं, वहां वे पुलिस और न्यायपालिका की कार्रवाई से बच जाएंगे."