1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

देखिए, कितना आसान है अच्छा पुलिसवाला होना

जोगिंदर सिंह४ जुलाई २०१६

एक अच्छा पुलिस वाला कौन होता है? और भारत में अच्छा पुलिस वाला बनने में क्या अड़चनें हैं? सीबीआई के निदेशक रह चुके जोगिंदर सिंह विस्तार से बता रहे हैं.

Protest Demo Indien Vergewaltigung
तस्वीर: Reuters

हर साल 21 अक्टूबर को पुलिस स्मृति दिवस मनाया जाता है. 1959 में लद्दाख में शहीद हुए पुलिसवालों की याद में मनाया जाने वाला यह दिन उन सभी पुलिसवालों को नमन का मौका होता है जो ड्यूटी पर शहीद हो गए. अनुमान है कि एक हजार पुलिसकर्मी ड्यूटी पर शहीद हुए हैं. पुलिस के बारे में जितनी भी कठोरता और कटुता से बात की जाए, यह सरकार का सबसे पहला और सबसे स्पष्ट प्रतीक है. जब भी किसी को सरकार को शर्मिंदा करना होता है या उस पर हमला करना होता है, वह पुलिस वालों को ही मारता है. और यह तो कहने की ही बात नहीं कि जब सरकार को किसी शर्मसार करना होता है, मसलन किसी विरोधी पक्ष के व्यक्ति को, तो वह भी पुलिस का ही इस्तेमाल करती है. किसी को हथकड़ी लगवाकर तो किसी को हवालात की हवा खिलाकर. किसी को गिरफ्तार करके तो किसी को गिरफ्तार न करके. जमानत से या हिरासत से.

भारत में पुलिस फोर्स का जन्म जिस विचार से हुआ है, वह इंग्लैंड से आया है. और इंग्लैड की पुलिस व्यवस्था के जन्मदाता सर रॉबर्ट पील हैं. पील युनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री थे. उन्होंने 9 सिद्धांत दिए थे. उनके मुताबिक, “पुलिस का मूलभूत मकसद तो अपराधों को रोकना और व्यवस्था बनाए रखना है.” पील यह भी कहते हैं कि पुलिस को, हर हालत में, जनता के सात एक संबंध बनाकर रखना चाहिए क्योंकि इसी से उस परंपरा का अनुमोदन होता है कि पुलिस पब्लिक भी और पब्लिक ही पुलिस है क्योंकि पुलिस के लोग समाज के ही सदस्य हैं. समाज के कल्याणकारी अस्तित्व के लिए जो कर्तव्य पूरे समाज के हैं, कुछ लोगों को वही कर्तव्य निभाने के लिए तन्ख्वाह दी जाती है ताकि वे उन कर्तव्यों पर पूरा समय ध्यान दें.

113 साल पहले, 1902 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में पुलिस आयोग गठित किया था. इस आयोग ने कहा, “पूरे देश में पुलिस की हालत बहुत असंतोषजनक है. हर जगह दुरुपयोग हो रहा है. इससे आम लोगों को बहुत नुकसान पहुंच रहा है और एकदम जड़ से सुधारों की जरूरत है.”

एक और पुलिस आयोग बनाया गया आजादी के 30 साल बाद. 1977 में भारत सरकार ने यह आयोग गठित किया. इस आयोग ने कहा, “एक पुराने पड़ चुके सिस्टम की पाबंदियों और बाधाओं में काम करते हुए पुलिस का प्रदर्शन जनता की उम्मीदों पर कहीं भी खरा नहीं उतरता.” जनता की नजर में पुलिस कोई निष्पक्ष और स्वतंत्र एजेंसी नहीं है जिसका काम कानून को लागू करवाना हो. जनता की नजर में पुलिस एक ऐसी एजेंसी है जो सत्ता में बैठी सरकार के एजेंडे को लागू करने या फिर थोपने का काम करती है. लेकिन सरकार का एजेंडा और सत्तधारी पार्टी के हित और उम्मीदें, इन दोनों के बीच की विभाजन रेखा असल जमीन पर बहुत धुंधली पड़ जाती है. आजादी के 68 साल बाद भी लोग पुलिस को एक पक्षपाती, क्रूर, भ्रष्ट और अक्षम फोर्स मानते हैं. यानी छवि ठीक वैसी है जैसी कि आजाद भारत के पहले पुलिस आयोग ने बताई थी. स्वर्गीय श्री धर्मवीर के नेतृत्व में बने इस आयोग ने कहा था, “1903 के पुलिस आयोग ने पुलिस फोर्स के बारे में जो बातें कही थीं, वे आज भी कमोबेश सच दिखाई देती हैं.”

पुलिस सरकार का ही एक अंग है. इसलिए यह स्वतंत्र रूप से तो काम कर नहीं सकती, तब भी नहीं जबकि प्रमुख ऐसा चाहते हों. और बदकिस्मती से कोई भी सरकार पुलिस को काम करने की आजादी देने को तैयार नहीं है जबकि सुप्रीम कोर्ट ऐसा कह चुका है. 22 सितंबर 2006 को सुप्रीम कोर्ट राज्यों को ऐसा करने का स्पष्ट निर्देश दिया था. जुलाई 2009 में तो भारत के मुख्य न्यायाधीश ने यहां तक कहा कि “कोई राज्य सरकार सहयोग करने को राजी नहीं है. हम क्या करें?”

सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में सात निर्देश दिए थे और इन्हें ना मानने के लिए आज लगभग सारी राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के लिए कठघरे में खड़ी की जा सकती हैं. इन निर्देशों में बहुत अहम मुद्दों पर बात की गई थी जैसे ट्रांसफर, कार्यकाल, जांच और कानून-व्यवस्था बनाए रखने के काम को लेकर पुलिस के बीच बंटवारा, पुलिस पर राज्य सरकारों का प्रभाव और पुलिस के खिलाफ आईं शिकायतों से निपटने के तरीके. अगर लागू कर दिए जाएं तो ये निर्देश देश के सबसे अहम संस्थानों में से एक, पुलिस फोर्स का प्रदर्शन सुधारने की ओर बेहद अहम और बड़ा कदम हो सकते थे.

पुलिस को राज्य के राजनीतिक प्रभाव से मुक्त करने की सख्त जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट ने तो यहां तक कहा है कि पुलिस की कार्यशैली में बहुत सारी समस्याएं तो बेहद अस्वस्थ और तुच्छ राजनीतिक दखलअंदाजी की वजह से पैदा हुई हैं. सर्वोच्च अदालत ने स्पष्ट तौर पर माना कि पुलिस को राजनीतिक दखलअंदाजी से बचाने की सख्त जरूरत है.

पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम आज एक सामान्य सिपाही के साथ सहानुभूति जताते हैं कि वह दुर्व्यवहार का सबसे ज्यादा शिकार होता है और सबसे ज्यादा धमकाया जाने वाला सरकारी कर्मचारी है. चिदंबर के शब्द हैं, “पुलिस व्यवस्था पुरानी पड़ चुकी है. पुलिसकर्मियों की ट्रेनिंग खराब है, उनके साज ओ सामान खराब हैं और उनकी तन्ख्वाह खराब है. 12 से 14 घंटे रोजाना काम करने वाला सिपाही सबसे ज्यादा गरियाया जाने वाला कर्मचारी है. हर कोई मानता है कि उसे झिड़का जा सकता है या दबाया या खरीदा जा सकता है. वह सबसे ज्यादा धमकाया जाने वाला सरकारी कर्मचारी है. एक औसत पुलिसकर्मी का आत्मसम्मान बहुत कम है.”

1 जनवरी 2011 के आंकड़ों के मुताबिक पुलिस की 25 फीसदी पोस्ट खाली पड़ी हैं. देश में कुल 20 लाख 64 हजार 370 पुलिसकर्मी होने चाहिए लेकिन इनमें से 5 लाख 1 हजार 69 पद खाली हैं. आंध्र प्रदेश में 31 फीसदी पद खाली हैं. बिहार में 28 फीसदी, गुजरात में 27 फीसदी और उत्तर प्रदेश में तो 60 फीसदी पद खाली हैं जबकि अपराधों की दर यहां सबसे ज्यादा है.


नेता कितने भी बड़े बड़े दावे क्यों न करें, भारत में पुलिस की यही स्थिति है. लोग उम्मीद करते हैं कि पुलिसकर्मी के पास सोलोमन जैसी समझ होनी चाहिए, डेविड जैसा हौसला होना चाहिए, सैमसन जैसी ताकत हो और जॉब जैसा धीरज हो. उसके अंदर मोजेज जैसा नेतृत्व हो. और वह नेकदिल भी हो. वह डेनियल की तरह विश्वास करता हो और उसके अंदर जीसस जैसी सहनशक्ति हो. और इसके साथ ही उसे नैचरल, बायोलॉजिकल और सोशल साइंस की हर शाखा की जानकारी भी हो. अगर उसके अंदर यह सब होगा तभी वह एक अच्छा पुलिसवाला होगा.

तो सोचिए, क्या आसान है एक अच्छा पुलिसवाला होना?

जोगिंदर सिंह

पूर्व निदेशक, सीबीआई

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें
डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें