वन क्या है? भारत की परिभाषा पर सवाल उठाते पर्यावरणविद
१७ सितम्बर २०२४
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल में एक मुकदमा दायर किया गया है जिसमें दावा किया गया है कि भारत में पिछले 20 साल में वन घटे हैं और परिभाषा बदलकर उनमें वृद्धि दिखाई जा रही है.
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भारत की पर्यावरण संबंधी मुद्दों की जांच व सुनवाई करने वाला ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ये जांच कर रहा है कि क्या देश के प्राकृतिक जंगल तेजी से घट रहे हैं, जबकि सरकार का दावा है कि पिछले दो दशकों में भारत के हरित क्षेत्र में भारी वृद्धि हुई है.
इस मामले में भारत की वह प्रतिबद्धता दांव पर है जिसमें उसने 2070 तक शून्य उत्सर्जन हासिल करने के लिए अपने वनों के आकार को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाने का वादा किया है. इस विशाल वन क्षेत्र से भारत भविष्य में कार्बन ट्रेडिंग बाजार में अपने पेड़ों का लाभ उठाना चाहता है.
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ने मई में एक मामला दर्ज किया था, जिसमें कहा गया कि भारत सरकार का हरित क्षेत्र बढ़ने का दावा गलत है. याचिका में कहा गया है कि इस सदी में, यानी पिछले 24 साल में भारत ने अब तक 23,000 वर्ग किलोमीटर पेड़ों का आवरण खो दिया है.
क्या है दावे का आधार?
यह आंकड़ा ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच (जीएफडब्ल्यू) से लिया गया है, जो एक स्वतंत्र संगठन है और उपग्रह से ली गई तस्वीरों से विश्व भर के जंगलों के वास्तविक समय में आंकड़े प्रकाशित करता है. हालिया तस्वीरें संकेत दे रही हैं कि 2013 से 2023 के बीच 95 फीसदी वृक्ष आवरण (ट्री कवर) का नुकसान, भारत के प्राकृतिक जंगलों में हुआ है.
नीलगिरी के हाथियों का खाना छीन रही है एक हमलावर झाड़ी
नीलगिरी पहाड़ियों से हाथियों का एक झुंड न्यूयॉर्क पहुंचा है. ये हाथी बने हैं लैंटाना नाम की एक झाड़ी से, जो दुनिया के सबसे ज्यादा खराब आक्रामक पौधों में से एक है. यह हाथियों के लिए भी आफत बन गया है.
तस्वीर: Frank Schneider/imageBROKER/picture alliance
ग्रेट ऐलिफैंट माइग्रेशन
मीटपैकिंग डिस्ट्रिक्ट, न्यूयॉर्क का एक व्यावसायिक इलाका है. यहां लगी इस प्रदर्शनी में हाथियों की 100 मूर्तियां हैं. इसका नाम है, ग्रेट ऐलिफैंट माइग्रेशन.
तस्वीर: Bianca Otero/ZUMA/picture alliance
सहअस्तित्व: सभी की है यह पृथ्वी
इसका आयोजन 'रीयल ऐलिफैंट कलेक्टिव' नाम के एक संगठन ने किया है. यह समूह जीवों और इंसानों के सहअस्तित्व की दिशा में जागरूकता फैलाने का काम करता है. जिन मूलनिवासी कलाकारों ने हाथियों को बनाया है, वे 'कोएक्जिस्टेंस कलेक्टिव' नाम के समूह से जुड़े हैं.
तस्वीर: Bianca Otero/ZUMA/picture alliance
कई शहरों में आयोजित हो चुकी है प्रदर्शनी
जिन कलाकारों ने ये मूर्तियां बनाई हैं, वे तमिलनाडु के 'नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व' के अलग-अलग समुदायों से ताल्लुक रखते हैं. हाथियों की ये मूर्तियां लैंटाना कैमारा नाम की एक झाड़ी से बनी हैं. लैंटाना की झाड़ियों के ठंडलों को उबाला गया और फिर उस सामग्री से मूर्तियां बनाई गईं. न्यूयॉर्क से पहले यह प्रदर्शनी भारत के कई शहरों और लंदन में भी आयोजित की जा चुकी है.
तस्वीर: Spencer Platt/Getty Images
लैंटाना कैमारा, एक घुसपैठिया प्रजाति
लैंटाना कैमारा दुनिया की सबसे ज्यादा आक्रामक घुसपैठियां झाड़ियों में से एक है. यह बहुत तेजी से फैलता है और इसपर काबू पाना बेहद मुश्किल है. इनवेजिव, या घुसपैठिया प्रजातियां ऐसे पेड़-पौधे या झाड़ियों को कहते हैं, जो उस जगह पर पाई जाने वाली कुदरती वनस्पति नहीं हैं. उन्हें बाहर से लाया गया हो और वे फैल गई हों. माना जाता है कि लैंटाना को सन् 1800 के आसपास सजावटी पौधे के तौर पर भारत लाया गया.
तस्वीर: Frank Schneider/imageBROKER/picture alliance
स्थानीय वनस्पतियों और जीव-जंतुओं पर असर
ऐसी घुसपैठियां प्रजातियां स्थानीय वनस्पतियों को नुकसान पहुंचाती हैं. उन्हें बढ़ने नहीं देतीं, उनसे पोषण छीन लेती हैं, उनका दम घोंट देती हैं. इनसे ईकोसिस्टम और वन्यजीवन को गंभीर नुकसान हो सकता है. कई बार स्थानीय जीव-जंतु इन्हें खा नहीं पाते.
तस्वीर: Joana Kruse/IMAGO
संरक्षित इलाकों में फैलता लैंटाना
'कोएक्जिस्टेंस कलेक्टिव' के मुताबिक, लैंटाना ने भारत के जैव विविधता से संपन्न और संरक्षित इलाकों में करीब 3,00,000 वर्ग किमी के हिस्से पर दबदबा बना लिया है. जहरीले तत्वों वाला लैंटाना बहुत रफ्तार से जगह बनाता है.
तस्वीर: DW
वनस्पतियों की विविधता पर असर
भारतीय वन्यजीव संस्थान के एक अध्ययन में पाया गया कि जिन इलाकों में लैंटाना कैमारा की ज्यादा मौजूदगी थी, वहां पौधों की विविधता कम देखी गई. अक्टूबर 2023 में नेचर पत्रिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 'सेंट्रल इंडियन हाईलैंड्स लैंडस्केप' इलाके के जंगलों में आ रही गिरावट में भी लैंटाना कैमारा की भूमिका है. यह इलाका मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ तक फैला है. तस्वीर: ग्रेट एलिफेंट माइग्रेशन प्रदर्शनी.
तस्वीर: Bianca Otero/ZUMA/picture alliance
जंगलों में फैल गया है लैंटाना कैमारा
ग्लोबल एनर्जी एंड कंजरवेशन की 2020 में आई एक रिपोर्ट के अंतर्गत शोधकर्ताओं ने भारतीय जंगलों में करीब 2,07,100 किलोमीटर स्क्वैयर के इलाके का सर्वे किया. पाया गया कि इसमें से 1,54,837 किलोमीटर स्क्वैयर क्षेत्र में लैंटाना का आक्रमण है. तीन लाख किलोमीटर से ज्यादा जंगल के क्षेत्र को इससे खतरा है. जंगलों में लैंटाना के आतंक के कारण हाथियों के लिए खाने का संकट खड़ा हो रहा है.
तस्वीर: Anna Reinert/imageBROKER/picture alliance
खाने की तलाश जंगल से बाहर ले आती है
जो वनस्पतियां हाथी खाते हैं, उनकी जगह जंगल में लैंटाना पसरता जा रहा है. खाने की कमी के कारण हाथियों को अपने कुदरती आवास से बाहर निकलना पड़ता है. खाने की तलाश में वे जंगल छोड़कर इंसानी बसाहटों वाले इलाकों में आते हैं और मानव-जीव संघर्ष में इजाफा होता है. इसके अलावा लैंटाना जैसे खरपतवार जंगल की आग को तेजी से बढ़ाने में भी मदद कर सकते हैं.
तस्वीर: Manjunath Kiran/AFP/Getty Images
जैव विविधता में बेहद संपन्न है तमिलनाडु
तमिलनाडु के समूचे भौगोलिक क्षेत्र का 17 फीसदी हिस्सा जंगलों से ढका है. इनमें से 15 फीसदी, यानी करीब 22, 643 वर्ग किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र में आता है. इसके अंतर्गत आठ वाइल्डलाइफ सेंचुरी, 13 बर्ड सेंचुरी, पांच राष्ट्रीय अभयारण्य, चार-चार बाघ और हाथियों के रिजर्व क्षेत्र और तीन बायोस्फीयर रिजर्व हैं.
तस्वीर: Luke Jaworski
हाथी-मानव के बढ़ते संघर्ष की वजह?
इंडियन एक्सप्रेस ने टीआरईसी के कुछ सदस्यों के हवाले से बताया है कि समूह ने तमिलनाडु के चार संरक्षित वन्यक्षेत्रों की मैपिंग की और पाया कि जंगल का 30 से 40 फीसदी हिस्से पर लैंटाना फैल चुका है. यह नीलगिरी क्षेत्र में इंसानों और हाथियों के बढ़ते संघर्ष की बड़ी वजह हो सकता है.
तस्वीर: Bianca Otero/ZUMA/picture alliance
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लेकिन जीएफडब्ल्यू का यह शोध सरकारी आंकड़ों से काफी अलग है. सरकारी आंकड़े दिखाते हैं कि 1999 से भारत का वन क्षेत्र बढ़ा है. सरकार की पिछली रिपोर्ट के अनुसार 2019 से 2021 के बीच वन और वृक्ष आवरण में 2,261 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है.
भारत के जंगल दुनिया के सबसे अधिक जैव विविधता वाले आवासों में से एक हैं. देश में बुनियादी ढांचे और खनिज संसाधनों के लिए बड़ी मात्रा में जंगलों की कानूनी रूप से कटाई की जा रही है, जबकि सरकार ने शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने और जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अपने भूमि क्षेत्र के 33.35 प्रतिशत हिस्से को वनों से ढकने का वादा किया है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक फिलहाल भारत का 25 फीसदी हिस्सा वन क्षेत्र है.
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परिभाषा में बदलाव
सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण करने वाले पर्यावरणविदों का कहना है कि आंकड़ों में यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि 2001 में भारत ने वनों के वर्गीकरण के नियमों में बदलाव कर दिया था.
नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के सह-संस्थापक एमडी मधुसूदन ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "इन आंकड़ों में दिखती तथाकथित बढ़त मुख्य रूप से, भारत सरकार की 'वन' की परेशानीभरी और उल्टी परिभाषा से आ रही है, जिसनें वनों के बाहर के हरित इलाकों को भी शामिल किया गया है."
जीएफडब्ल्यू की वन की परिभाषा दो कारकों पर आधारित है: जैवभौतिक, जिसमें ऊंचाई, छत्र आवरण और पेड़ों की संख्या शामिल है; और भूमि उपयोग, जिसमें भूमि को आधिकारिक या कानूनी रूप से वन उपयोग के लिए नामित किया जाना जरूरी है.
एक पवित्र पहाड़ को बचाने की कहानी
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मधुसूदन कहते हैं कि भारत अपने वन आंकड़ों में उन सभी हरे क्षेत्रों को शामिल करता है जो कोई भी जैवभौतिक मानदंड को पूरा करते हैं, चाहे उस भूमि की कानूनी स्थिति, स्वामित्व या इस्तेमाल कुछ भी हो. इनमें चाय के बागान, नारियल के खेत, शहरी क्षेत्र, घास के मैदान और यहां तक कि बिना पेड़ों वाले रेगिस्तानी क्षेत्रों को भी शामिल किया गया है.
वह कहते हैं, "अगर एक हेक्टेयर भूमि में केवल 10 फीसदी पेड़ थे, तो उसे भी वन माना गया."
परिभाषा बदली, आंकड़े बदले
मधुसूदन ने 1987 से अब तक हर दो साल पर जारी होने वाली वन सर्वेक्षण की 17 रिपोर्टों की जांच की है. इन रिपोर्टों के मुताबिक 1997 तक भारत के वन क्षेत्र में कमी आई थी. उसके बाद से, इन रिपोर्टों के अनुसार, 2021 तक भारत ने 45,000 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र जोड़ा है, जो डेनमार्क के आकार से भी ज्यादा है.
रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्था एफएसआई (वन सर्वेक्षण) ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की ईमेल और फोन पर कई अनुरोधों का जवाब नहीं दिया.
स्वतंत्र और सरकारी वैज्ञानिकों द्वारा पहले किए गए अध्ययनों में भी भारत के वन क्षेत्र के आधिकारिक अनुमान में झोल पाए गए हैं.
भारत में तेजी से घट रहा है वृक्ष आवरण
ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के आंकड़ों के मुताबिक, 2001 से 2023 के बीच भारत का 23 लाख हेक्टेयर वृक्ष आवरण कम हो गया. जानिए सबसे ज्यादा कमी किन राज्यों में देखी गई.
तस्वीर: Dmitry Rukhlenko/PantherMedia/IMAGO
उत्तर-पूर्वी राज्यों में सबसे ज्यादा हानि
वृक्ष आवरण में सबसे ज्यादा कमी पांच राज्यों में आई. 2001 से 2023 के बीच, असम और मिजोरम में तीन लाख हेक्टेयर से ज्यादा की कमी आई. वहीं, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मणिपुर में दो लाख हेक्टेयर से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई.
तस्वीर: Pond5/IMAGO
दिल्ली में बहुत कम बढ़ा वृक्ष आवरण
वृक्ष आवरण में सबसे ज्यादा बढ़ोत्तरी दक्षिण भारत के तीन राज्यों में हुई. 2000 से 2020 के बीच, कर्नाटक में 2.2 लाख, आंध्र प्रदेश में 1.9 लाख और तमिलनाडु में 1.6 लाख हेक्टेयर वृक्ष आवरण बढ़ा. उत्तर प्रदेश में 1.2 लाख हेक्टेयर और दिल्ली में सिर्फ 512 हेक्टेयर वृक्ष आवरण बढ़ा.
तस्वीर: Anushree Fadnavis/REUTERS
प्राकृतिक वनों में हुई ज्यादातर हानि
भारत में 2013 से 2023 के बीच 95 फीसदी वृक्ष आवरण की हानि प्राकृतिक वनों के भीतर हुई. 2023 में प्राकृतिक वनों के भीतर एक लाख 30 हजार हेक्टेयर वृक्ष आवरण की हानि हुई. वहीं, सबसे ज्यादा नुकसान 2016 और 2017 में दर्ज किया गया.
तस्वीर: Sudipta Das/NurPhoto/picture alliance
ज्यादा कार्बन स्टोर करते हैं प्राथमिक वन
प्राथमिक वन काफी घने, परिपक्व और जैव विविधता से समृद्ध होते हैं. ये दूसरे वनों की तुलना में अधिक कार्बन जमा करते हैं. ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच का अनुमान है कि दुनिया भर के उष्णकटिबंधीय प्राथमिक वन 140 अरब टन से अधिक कार्बन स्टोर करते हैं.
तस्वीर: picture alliance/Zoonar
आपदाओं ने पहुंचाया बड़ा नुकसान
भारत में 2001 से 2022 के बीच, आग लगने की वजह से लगभग 36 हजार हेक्टेयर वृक्ष आवरण खत्म हो गया. 2008 में सबसे ज्यादा, तीन हजार हेक्टेयर, वृक्ष आवरण आग की वजह से कम हुआ. वहीं, 2021 में आग लगने की सबसे ज्यादा घटनाएं दर्ज हुईं.
तस्वीर: Francis Mascarenhas/REUTERS
वृक्ष आवरण कम होने से बढ़ी हानिकारक गैसें
भारत में वृक्ष आवरण में कमी आने के चलते, 2001 से 2022 के बीच एक गीगाटन से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य समकक्ष गैसों का उत्सर्जन हुआ. इस दौरान हर साल औसतन 5.1 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य समकक्ष गैसें वायुमंडल में पहुंची.
तस्वीर: LensAndLuck//Pond5 Images/IMAGO
ब्राजील के बाद दूसरे नंबर पर भारत
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक, भारत में 2015 से 2020 के बीच हर साल औसतन साढ़े छह लाख हेक्टेयर से अधिक वनों की कटाई हुई. इस मामले में भारत ब्राजील के बाद दूसरे नंबर पर रहा. इस दौरान ब्राजील में हर साल 17 लाख हेक्टेयर वन काटे गए.
तस्वीर: Sharvan Patel
आर्द्र प्राथमिक वन का क्षेत्रफल भी कम हुआ
2002 से 2023 के बीच, भारत में चार लाख हेक्टेयर से ज्यादा आर्द्र प्राथमिक वन कम हुए. इस दौरान भारत में आर्द्र प्राथमिक वन का कुल क्षेत्रफल चार फीसदी कम हो गया. सबसे ज्यादा गिरावट 2016 और 2017 में दर्ज की गई.
तस्वीर: Dmitry Rukhlenko/PantherMedia/IMAGO
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अमेरिका में काम करने वाले रिमोट सेंसिंग वैज्ञानिक मैथ्यू हैन्सन के नेतृत्व में 2013 में वैश्विक अध्ययन हुआ था जिसमें बताया गया कि 2000 से 2012 के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग 4,300 वर्ग किलोमीटर की कमी आई. इसी तरह 2016 में सरकारी संस्था नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरएससी) के वैज्ञानिकों ने दिखाया कि 1995 से 2013 के बीच भारत ने लगभग 31,858 वर्ग किलोमीटर वन खो दिया.
इसके उलट, भारत के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2008 से 2022 के बीच केवल लगभग 3,000 वर्ग किलोमीटर वन काटे गए हैं.
नए नियम
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की पूर्व रिसर्चर व स्वतंत्र कानून और नीति शोधकर्ता कांची कोहली कहती हैं कि वनों को नियंत्रित करने वाले कानूनों और नियमों में हुए बदलावों ने पर्यावरण की सुरक्षा को कमजोर कर दिया है.
कोहली कहती हैं, "वन भारतीय सरकार के लिए एक संवेदनशील मुद्दा है. भारत के जलवायु लक्ष्य और पर्यावरणीय जिम्मेदारियां वैश्विक स्तर पर इसके वनों की सफलता की कहानी से गहरे जुड़े हुए हैं. यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में भारत में वनों को उनकी कार्बन सोखने की क्षमता और इसके बदले मिलने वाले मूल्य के लिए देखा जाता है, न कि जैव विविधता, आजीविका अधिकार या सांस्कृतिक संबंधों के लिए."
मधुसूदन कहते हैं कि ऊर्जा और उद्योग के लिए वनों का इस्तेमाल सिर्फ भारत में नहीं हो रहा है लेकिन सरकारें वनों की वैश्विक कार्बन व्यापार में संभावनाएं भी देख सकती हैं, जिसमें वन क्षेत्र देशों को अन्य देशों के उत्सर्जन की भरपाई के लिए पैसा कमाने का अवसर दे सकते हैं.
नवंबर में होने वाले अगले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (कॉप 29) में देशों से अंतरराष्ट्रीय कार्बन क्रेडिट व्यापार के विवरणों पर बातचीत की संभावना है. भारत और अन्य देशों ने तर्क दिया है कि वनों को इस रूप में क्रेडिट मिलना चाहिए जिसका इस्तेमाल अन्य देशों या निजी क्षेत्र के साथ व्यापार में किया जा सके.
कोहली ने कहा कि जीएफडब्ल्यू की कार्यप्रणाली की भी इस मामले में जांच हो सकती है. जलवायु संबंधी कदमों के साथ आर्थिक विकास का संतुलन, भारत की ऐसी सफलता को दर्शाने की कोशिश कर रही सरकार के लिए, घर पर और विदेश में, अपने इन आंकड़ों का समर्थन करना कड़ा इम्तिहान होगा.
कोहली कहती हैं, "भारत के लिए यह जरूरी है कि वह अपने वनों के बारे में एक अच्छी कहानी पेश करे."