दुनिया की प्रकृति को बचाने के तरीके की तलाश में करीब 200 देशों के प्रतिनिधि मॉन्ट्रियाल में जुटे हैं. लेकिन जैव प्रणालियां (ईकोसिस्टम) गंवा देने के बाद और पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों के गायब हो जाने के बाद क्या बचेगा?
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जब हम बायोडाइवर्सिटी यानी जैवविविधता की बात करते हैं तो हमारा इशारा, धरती पर मौजूद तमाम जीवों और जैवप्रणालियों की जीवविज्ञानी (बायोलॉजिकल) और आनुवंशिक (जेनेटिक) विविधता से होता है.
जीवों में पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों के अलावा फफूंद और मिट्टी में मिलने वाले सूक्ष्मजीवी भी शामिल हैं. वे पूरी दुनिया की उन तमाम व्यापक ईकोप्रणालियों का हिस्सा हैं जो बर्फीले अंटार्कटिक, ट्रॉपिकल वर्षावनों, सहारा रेगिस्तान, मैंग्रोव वेटलैंड, मध्य यूरोप के पुराने बीच वनों और समुद्री और तटीय इलाकों की विविधता से भरा है.
ये रिहाइशें इंसानों को जीने लायक दूसरी और भी चीजें मुहैया कराती हैं जैसे कि पानी, भोजन, साफ हवा और दवा, सामूहिक रूप से इन्हें ईकोसिस्टम सेवाएं कहा जाता है. और वे प्रजातियों की विविधता की पारस्परिकता पर भी निर्भर होती हैं. अगर कोई व्यक्तिगत तत्व गायब हो जाता है, यानी कोई प्रजाति खत्म हो जाती है तो प्रकृति-प्रदत्त ये सेवाएं भी हमेशा के लिए गायब हो सकती हैं.
हमारा जीवन प्रकृति पर कैसे निर्भर है?
एल्जी यानी काई या पेड़ों के बिना, ऑक्सीजन नहीं मिलेगी. और पौधों को परागित करने वाले कीटों के बिना हमारी फसलें चौपट हो जाएंगी. दो तिहाई से ज्यादा फसलें- जिनमें कई फल, सब्जियां, कॉफी और कोकोआ शामिल हैं, कीटपतंगों जैसे कुदरती पॉलिनेटरों पर निर्भर हैं. लेकिन आज एक तिहाई कीट प्रजातियों पर गायब होने का खतरा मंडरा रहा है.
क्यूबा के संकटग्रस्त मगरमच्छों को बचाने की रेस
क्यूबा के मगरमच्छ दुनिया के सबसे ज्यादा लुप्तप्राय प्रजातियों में से हैं. उन्हें बचाने की कोशिश करने वाले वैज्ञानिक प्राकृतिक वास के नष्ट होने, जलवायु परिवर्तन और अवैध शिकार से एक साथ जूझ रहे हैं.
तस्वीर: ALEXANDRE MENEGHINI/REUTERS
विपरीत परिस्थितियों में जीवन
हवाना से 150 किलोमीटर दक्षिणपूर्व की तरफ जपाटा दलदल में अंडे में से निकलता एक नवजात क्यूबन मगरमच्छ. यह प्रजाति कभी क्यूबा और आस पास के द्वीपों में दूर दूर तक फैली हुई थी, लेकिन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अब सिर्फ करीब 4,000 मगरमच्छ बाकी रह गए हैं. इनका प्राकृतिक आवास दलदल के एक छोटे से इलाके और पास के द्वीप आइल ऑफ यूथ में सिमट कर गया है.
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बड़ी जंग, छोटी जीत
जीवविज्ञानी एतियम पेरेज जपाटा दलदल में खुले में एक युवा मगरमच्छ को छोड़ रहे हैं. इन मगरमच्छों की आबादी पर प्राकृतिक वास के नष्ट होने के साथ साथ अवैध शिकार, जलवायु परिवर्तन और अमेरिकी मगरमच्छों के साथ संकरण का भी असर पड़ा है.
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एक नाजुक संतुलन
एतियम पेरेज जपाटा दलदल में छोड़े गए मगरमच्छों का पर्यवेक्षण कर रहे हैं. यह विशाल दलदली भूमि संरक्षित है लेकिन जरूरी नहीं कि इस प्रजाति को बचाने के लिए इतना पर्याप्त हो. ये मगरमच्छ इस दलदल के अंदर भी एक तुलनात्मक रूप से छोटे इलाके में रहते हैं और कोई भी प्राकृतिक आपदा इनमें से अधिकांश को एक झटके में खत्म कर सकती है.
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मुट्ठी भर उम्मीद
जलवायु परिवर्तन नवजात मगरमच्छों के लिंग पर भी असर डाल रहा है. सरीसृपों के लिंग पर तापमान का असर पड़ता है. तापमान बढ़ने से मादा के मुकाबले ज्यादा नर मगरमच्छ पैदा होते हैं, जिससे प्रजाति का आगे बढ़ना खतरे में पड़ जाता है. ये अभी अभी अंडों से निकले नवजात हैं जिन्हें जल्द दलदल में छोड़ दिया जाएगा.
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सरकार की मदद से एक कोशिश
क्यूबा के शोधकर्ताओं ने इन मगरमच्छों को बचाने का बीड़ा उठाया है और सरकार द्वारा वित्त-पोषित एक कार्यक्रम के तहत इनका प्रजनन कराया जा रहा है और फिर इन्हें छोड़ दिया जा रहा है. पेरेज ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया, "इस कार्यक्रम के तहत हम क्यूबा के मगरमच्छों की ऐतिहासिक रेंज को बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं और साथ ही खुले में इनकी संख्या बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं."
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मगरमच्छ का मांस
कड़े प्रतिबंधों के बावजूद कई मगरमच्छों का अंत बारबेक्यू पर होता है. क्यूबा में रेस्तराओं को सिर्फ उन्हीं मगरमच्छों का मांस परोसने की अनुमति है जिनका अमेरिकी मगरमच्छों से संकरण हुआ हो या जिनमें कोई शारीरिक अभाव हो. लेकिन मगरमच्छ के मांस का एक अवैध बाजार भी है.
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भोजन बनने से बचाए गए
पेरेज जैसे शोधकर्ता अवैध रूप से पकड़े गए मगरमच्छों को आजाद भी कराते हैं. इन बच्चों को तस्करों से बचाया गया है. इन्हें भी जपाटा दलदल में छोड़ दिया जाएगा जहां इनके फलने-फूलने की उम्मीद है.
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छोटे बच्चों से लेकर खौफनाक पशु तक
पशुचिकित्सक गुस्तावो सोसा जपाटा दलदल के पास पर्यटकों को अभी अभी अंडों से निकले मगरमच्छ दिखा रहे हैं. ये जब छोटे होते हैं तो बहुत प्यारे दिखाई देते हैं लेकिन जल्द ही खूंखार और भयभीत करने वाले परभक्षियों का रूप ले लेते हैं. ये वयस्क होने पर 11.5 फुट तक लंबे हो सकते हैं.
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जिज्ञासु प्रवृत्ति
ये छोटा मगरमच्छ भले ही शांत दिखाई दे रहा हो लेकिन इन्हें विशेष रूप से लड़ाकू और ढीठ सरीसृपों के रूप में जाना जाता है. इन्हें इंसानों से डर भी नहीं लगता. सोसा ने रॉयटर्स को बताया, "यह बड़े जिज्ञासु होते हैं. आप खुले में किसी क्यूबन मगरमच्छ को देखते ही पहचान लेंगे क्योंकि ये आपके पास आ जाते हैं." (नेले जेंश)
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अमेरिका स्थित कंजर्वेशन इंटरनेशनल में जलवायु परिवर्तन और जैवविविधता वैज्ञानिक डेव होले कहते हैं कि कुदरत जो सेवाएं हमें मुहैया कराती है उन्हीं की बदौलत हमारा वजूद बना हुआ है लेकिन हम आमतौर पर उसकी परवाह नहीं करते. डेव होले पारिस्थितिकीय आनुवंशिकी के विशेषज्ञ हैं. ईकोसिस्टम सर्विसों की अहमियत पर प्रकाश डालने वाले एक नयी स्टडी के वो सह-लेखक हैं.
होले ने डीडब्ल्यू को बताया, "सुबह सुबह जब अन्न का कटोरा हमारे सामने होता है तो हम ये नहीं सोचते कि कुदरत ने इन फसलों को पॉलिनेट करने में कितनी मदद की है जिसकी बदौलत वो अन्न तैयार हुआ है. रोजमर्रा के स्तर पर कुदरत जो हमारे लिए कर रही है, वो हमें दिखता ही नहीं है."
अध्ययन के मुताबिक, दुनिया की 70 फीसदी फसलें कुछ हद तक, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नीची जमीनों और मैंग्रोव की दलदल पर निर्भर होती हैं क्योंकि वे खाद्य फसलों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली जमीन को बाढ़ से बचाते हैं.
दुनिया भर में जैवविविधता पर तेज होता खतरा
द इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडाइवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज- आईपीबीईएस का अनुमान है कि दुनिया भर में कम से कम 80 लाख प्रजातियां मौजूद हैं. लेकिन उसने आगाह किया है कि 2030 तक करीब 10 लाख प्रजातियां गायब हो सकती हैं. जैवविविधता क्षरण की दर खतरे के निशान पर पहुंच चुकी है- हर 10 मिनट में औसतन एक प्रजाति खत्म हो रही है. शोधकर्ताओं के मुताबिक, हम लोग दुनिया की छठी सामूहिक विलुप्ति के बीचोबीच पहुंच गए हैं.
अकेले जर्मनी में 2008 से 2017 के दरमियान कीटपतंगों की संख्या में तीन चौथाई कमी आ गई है. आईपीबीईएस के मुताबिक दुनिया भर में जंगली स्तनपायी जीवों की संख्या 82 फीसदी गिर चुकी है. पर्यावरणीय संस्था डब्लूडब्लूएफ के मुताबिक जलीय पौधों और जंतुओं की स्थिति तो और भी खराब है. पिछले 50 साल में उनकी संख्या 83 फीसदी कम हो चुकी है. मध्य और दक्षिण अमेरिका में तो गिरावट 94 फीसदी की है.
होले के पर्यवेक्षणों के मुताबिक जैवविविधता के खत्म होने की दर बढ़ रही है.
प्रजातियों की विलुप्ति के जिम्मेदार इंसान
शोध भी यही कहता हैः खेती, मिट्टी की सीलिंग, और जंगलों की कटान, ओवरफिशिंग, विषैले पदार्थों के इस्तेमाल और आक्रामक प्रजातियों के विस्तार से विलुप्ति की जो दर इंसानी दखल के बिना रहनी थी, उससे 100 गुना बढ़ गई है.
जलवायु परिवर्तन: पहाड़ों के लिए भी है खतरा
ग्लोबल वार्मिंग ने पहाड़ों की प्राकृतिक व्यवस्था को खत्म करना शुरू कर दिया है. इन परिवर्तनों का जल प्रवाह से लेकर कृषि, वन्य जीवन और पर्यटन तक हर चीज पर नकारात्मक असर पड़ रहा है.
दुनिया के पहाड़ जहां बहुत सख्त हैं, वहीं बहुत नाजुक भी हैं. दूर के तराई क्षेत्रों पर भी उनका बहुत बड़ा प्रभाव है, लेकिन वे जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं. पहाड़ों में भी तापमान बढ़ रहा है और प्राकृतिक वातावरण बदल रहा है. नतीजतन जल प्रणालियों, जैव विविधता, प्राकृतिक आपदाओं, कृषि और पर्यटन के परिणामों के साथ बर्फ और ग्लेशियर गायब हो रहे हैं.
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पिघलती बर्फ
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज का कहना है कि अगर उत्सर्जन बेरोकटोक जारी रहा तो कम ऊंचाई वाले बर्फ के आवरण में 80 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है. ग्लेशियर भी सिकुड़ रहे हैं. यूरोपीय आल्प्स में कार्बन डाइऑक्साइड के मौजूदा स्तर पर समान पिघलने की आशंका है. विश्व के पर्माफ्रॉस्ट का कम से कम एक चौथाई भाग ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में है.
बदलती आबोहवा का जल प्रणालियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है, लेकिन प्रभाव समय के साथ बदलते हैं. ग्लेशियरों से नदियों में पानी बहता था, लेकिन अब उनके पिघलने की गति तेज हो गई है. इससे नदी में पानी का बहाव भी बढ़ गया है. कई पर्वत श्रृंखलाओं में बर्फ पिघलने के कारण ग्लेशियरों का आकार छोटा हो गया है, जैसा कि पेरू के पहाड़ों के मामले में हुआ है.
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जैव विविधता: विकास का बदलता परिवेश
पर्वतीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन ने पर्वतीय वन्यजीवों, पक्षियों और जड़ी-बूटियों के विकास के लिए प्राकृतिक वातावरण को भी बहुत बदल दिया है. वनों की कटाई ने तलहटी में वन आवरण को कम कर दिया है. नतीजतन, इन क्षेत्रों में वन्य जीवन बढ़ तो रहा है लेकिन वह इसकी कीमत चुका रहा है.
ग्लेशियरों के पिघलने और पहाड़ों के स्थायी रूप से जमे हुए क्षेत्रों से बर्फ के घटने से पहाड़ी दर्रे और रास्ते अस्थिर हो गए हैं. इससे हिमस्खलन, भूस्खलन और बाढ़ में वृद्धि हुई है. पश्चिमी अमेरिकी पहाड़ों में बर्फ बहुत तेजी से पिघल रही है. इसके अलावा, ग्लेशियरों के पिघलने से भारी धातुएं निकल रही हैं. यह पृथ्वी पर जीवन के लिए बहुत हानिकारक हो सकता है.
दुनिया की लगभग 10 प्रतिशत जनसंख्या ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करती है. लेकिन बिगड़ते आर्थिक अवसरों और प्राकृतिक आपदाओं के उच्च जोखिम के साथ वहां जीवन और अधिक सीमांत होता जा रहा है. पहाड़ के परिदृश्य के सौंदर्य, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पहलू भी प्रभावित होते हैं. उदाहरण के लिए नेपाल में स्वदेशी मनांगी समुदाय ग्लेशियरों के नुकसान को उनकी जातीय पहचान के लिए एक खतरे के रूप में देखता है.
पर्वतीय क्षेत्रों में बढ़ते तापमान ने अर्थव्यवस्था को बहुत ही नकारात्मक स्थिति में डाल दिया है. जलवायु परिवर्तन ने पर्वतीय पर्यटन और जल आपूर्ति को भी प्रभावित किया है. इसके अलावा कृषि को भी नुकसान हुआ है. पहाड़ के बुनियादी ढांचे जैसे रेलवे ट्रैक, बिजली के खंभे, पानी की पाइपलाइन और इमारतों पर भूस्खलन का खतरा है.
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शीतकालीन पर्यटन: बर्फ रहित स्की रिजॉर्ट
कम बर्फबारी के कारण पहाड़ों में हिमपात का आनंद जलवायु परिवर्तन ने भी प्रभावित किया है. स्कीइंग के लिए बर्फ कम होती जा रही है. पर्वतीय मनोरंजन क्षेत्रों में स्कीइंग के लिए कृत्रिम बर्फ का इस्तेमाल किया जा रहा है, जो पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक है. बोलिविया को ही ले लीजिए, जहां पिछले 50 सालों में आधे ग्लेशियर पानी बन गए हैं.
जैसे-जैसे ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं आखिरकार नदियों और घाटियों में बहने वाले पानी की मात्रा कम होती जा रही है. स्थानीय किसानों को कम कृषि उपज का सामना करना पड़ रहा है. नेपाल में किसान सूखे खेतों की चुनौती से जूझ रहे हैं. उनके लिए आलू उगाना मुश्किल हो गया है. इसी तरह के कई अन्य हिल स्टेशन के किसानों ने गर्मियों की फसलों की खेती शुरू कर दी है. (रिपोर्ट: एलिस्टर वॉल्श)
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संयुक्त राष्ट्र के कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी में कार्यकारी सचिव एलिजाबेथ मरूमा म्रेमा स्पष्ट रूप से कहती हैं कि इंसान ही इसके लिए जिम्मेदार हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "इंसानी हरकतों की वजह से 97 फीसदी वैश्विक जैवविविधता नष्ट हो चुकी."
उनके आंकड़े डरावने हैं: धरती का 75% भूक्षेत्र और महासागरों का 66% क्षेत्र, 85% दलदली भूमि बर्बाद हो चुकी है या गायब हो चुकी है. और आधे कोरल रीफ खत्म हो चुके हैं. इन आंकड़ों की गिनती में वो प्लास्टिक तो शामिल ही नहीं जो धरती पर बड़े पैमाने पर बिखरा पड़ा है.
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मनुष्यता का भविष्य खतरे में
जेंकेनबर्ग सोसायटी फॉर नेचर रिसर्च के महानिदेशक क्लेमेंट टोकनर कहते हैं, "हमारी कुदरती पूंजी का बढ़ता नुकसान तमाम मनुष्यता के लिए सबसे बड़ा खतरा है. एक बार ये पूंजी खत्म हो गई तो समझो हमेशा के लिए खत्म हो गई."
जब कोई प्रजाति ईकोसिस्टम से गायब हो जाती है तो प्रकृति का संतुलन रातोरात नहीं बिखरता है लेकिन वो बदलना शुरू हो जाता है. पूर्वी जर्मनी में हाले-येना-लाइपजिग में जर्मन सेंटर फॉर इंटिग्रेटिव बायोडाइवर्सिटी रिसर्च से जुड़े आंद्रिया पेरिनो कहते हैं, "जितना ज्यादा हम प्रजातियों की संख्या में कमी करते हैं, सिस्टम उतना ही अधिक अवरोधी होता जाता है."
होले कहते हैं कि जलवायु जैसे ईकोसिस्टम में ऐसे टिपिंग पॉइंट हैं जो हमारी दुनिया में तीव्र और निर्बाध बदलाव ला सकते हैं. एक मिसाल है अमेजन के वर्षावनों की. पूरी तरह साफ कर दिए जाने के बाद जंगल में जो हिस्से बचते हैं उनके लिए फिर से पनप पाना बहुत मुश्किल होता जाता है. इस तरह समूचे वर्षावन के ढहने का जोखिम भी बढ़ जाता है.
जीव नहीं तो जंगल भी नहीं होगा
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इसके बावजूद अमेजन जैसे गर्म सूखे इलाकों वाले वर्षावन दुनिया की दो तिहाई ज्ञात प्रजातियों का घर हैं. जलवायु परिवर्तन को काबू में रखने के लिहाज से तो वे बहुत ही ज्यादा जरूरी हैं.
हमारे अपने हित में है प्रकृति की सुरक्षा
मौजूदा जैवविविधता विनाश को रोकने के सामूहिक प्रयत्न के बगैर, मनुष्य जीवन की प्राकृतिक बुनियाद अप्रत्याशित दर से गायब होने लगेगी. धरती पर जीवन के सभी पहलुओं पर इसके दूरगामी नतीजे होंगे.
संयुक्त राष्ट्र के कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी में कार्यरत एलिजाबेथ म्रेमा का कहना है कि समस्त वैश्विक आर्थिक उत्पादन का आधा हिस्सा कुदरत पर सीधे तौर पर निर्भर है. वह कहते हैं, "हम लोग उस जैवविविधता को खत्म कर रहे हैं, जबकि हमारा जीवन, हमारी अर्थव्यवस्था और हमारी सेहत सब कुछ उस पर निर्भर है."