कोरोना संकट से निपटने के लिए लगातार कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग की बात चल रही है. कई जगह तो इसके लिए ऐप भी बन गए हैं. लेकिन कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग किया कैसे जाता है?
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कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग का उद्देश्य होता है लोगों को आगाह करना ताकि वे किसी कोरोना संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में ना पहुंचें और इस तरह से खुद भी इस वायरस को फैलाने से बचें. जानकार मानते हैं कि कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग बेहद अहम है. अगर यह ठीक से किया जाए तो सुनिश्चित किया जा सकता है कि दोबारा कभी लॉकडाउन की कोई जरूरत नहीं रहेगी. लेकिन यह कहने में जितना आसान है, करने में उतना ही मुश्किल.
किसी व्यक्ति के कोरोना पॉजिटिव टेस्ट करने के बाद कॉन्टैक्ट ट्रेसर उससे संपर्क करता है और पता लगाता है कि वह कहां गया और किन लोगों के आसपास रहा. ट्रेसर उन लोगों पर ध्यान देता है जो आम तौर पर व्यक्ति के इर्दगिर्द रहते हैं, जैसे कि घर या दफ्तर में या फिर जो लोग छह फीट से कम दूरी में व्यक्ति के आसपास रहे, वह भी कम से कम दस मिनट तक. इन लोगों को फिर सेल्फ आइसोलेट करने को कहा जाता है. इन लोगों को लक्षणों पर ध्यान देने को कहा जाता है और जरूरत पड़ने पर इनका टेस्ट भी किया जाता है.
जिन लोगों में लक्षण साफ साफ दिखते हैं, फिर उनकी कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग की जाती है, यानी उनके संपर्क में कौन कौन आया, इसका पता लगाया जाता है. दुनिया भर में यह काम अलग अलग तरीकों से किया जा रहा है. लेकिन जैसे जैसे रेस्त्रां और बाजार खुल रहे हैं, लोग दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलने निकल रहे हैं, वैसे वैसे यह काम मुश्किल होता चला जा रहा है. ऐसे में मुमकिन है कि मामले इतने बढ़ जाएं कि स्वास्थ्य अधिकारियों के लिए इन पर नजर रखना ही मुमकिन ना रह जाए.
अमेरिका में लोगों को एसएमएस भेज कर पूछा जाता है कि कहीं वे किसी संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में तो नहीं है. कई मामलों में फोन भी किया जाता है. लेकिन अगर लोग फोन और एसएमएस का जवाब ही ना दें, तो कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग मुश्किल हो जाती है. भारत में भी इसी तरह लोगों को व्हाट्सऐप पर संदेश भेजे जा रहे हैं. स्वास्थ्य अधिकारियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है जल्द से जल्द लोगों को चेतावनी देना. कोई भी मामला आने के 24 घंटों के भीतर उन्हें कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग शुरू कर देनी होती है. कई देशों में ऐप इस काम में मदद दे रहे हैं लेकिन इन्हें डाउनलोड करना अनिवार्य नहीं है, इसलिए इन पर पूरी तरह निर्भर नहीं किया जा सकता.
जर्मनी में सेकंड वेव मुमकिन
वहीं, ब्रिटेन और स्वीडन समेत कुछ देश हर्ड इम्यूनिटी बन जाने का इंतजार करते रहे हैं. हर्ड इम्यूनिटी यानी आबादी के इतने बड़े हिस्से में किसी बीमारी के लिए इम्यूनिटी बन जाना कि उसका फैलाव रुक सके. जर्मनी के रॉबर्ट कॉख इंस्टीट्यूट ने डोनेट किए गए खून के सैम्पलों में पाया है कि महज 1.3 फीसदी में ही एंटीबॉडी मौजूद थे. अप्रैल से अब तक 11,695 सैम्पलों की जांच की गई. खून में एंटीबॉडी की मौजूदगी का मतलब है कि व्यक्ति को संक्रमण हुआ था फिर चाहे इसके लक्षण दिखे हों या नहीं.
ऐसे में इंस्टीट्यूट का कहना है कि बीमारी की दूसरी लहर का आना मुमकिन है. अपनी रिपोर्ट में इंस्टीट्यूट ने कहा है कि संभवतः अब तक आबादी के अधिकतर हिस्से को संक्रमण नहीं हुआ है और ज्यादातर लोगों पर अब भी इसका खतरा बना हुआ है. हाल ही में स्पेन के द्वीप मायोरका पर जर्मन सैलानियों की भीड़ की खबर आई थी जिसके बाद भी सेकंड वेव के खतरे की बात की गई थी. साथ ही, अब तक ऐसा भी माना जा रहा था कि एक बार कोरोना से संक्रमित हो कर ठीक हो जाने के बाद शरीर में इम्यूनिटी बन जाती है लेकिन अब ऐसे भी मामले सामने आ रहे हैं जहां एक ही व्यक्ति को दो बार संक्रमण हुआ.
कोरोना महामारी की शुरुआत हुए आधा साल बीत चुका है. पिछले छह महीनों से वैज्ञानिक इस नए वायरस को समझने में लगे हुए हैं. जानिए कहां तक पहुंची है रिसर्च.
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कहां से हुई शुरुआत?
सोशल मीडिया पर वायरस के फैलाव को ले कर कई किस्से कहानी फैले लेकिन आज तक ठीक तरह से इस बात का पता नहीं चल सका है कि शुरुआत कहां से हुई. चीन के एक मीट बाजार की बात हुई. लेकिन जानवर से इंसान में संक्रमण का पहला मामला कौन सा था, यह आज भी रहस्य ही बना हुआ है.
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कैसा दिखता है वायरस?
चीनी वैज्ञानिकों ने रिकॉर्ड समय में इस नए कोरोना वायरस के जेनेटिक ढांचे का पता लगा लिया था. 21 जनवरी को उन्होंने इसे प्रकाशित किया और तीन दिन बाद विस्तृत जानकारी भी दी. इसी के आधार पर दुनिया भर में वायरस को मारने के लिए टीके बनाने की मुहिम शुरू हुई.
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क्या होगा वैक्सीन में?
सार्स कोव-2 वायरस की सतह पर एस-2 नाम के प्रोटीन होते हैं. यही इंसानी कोशिकाओं से जुड़ जाते हैं और संक्रमित व्यक्ति को बीमार करने के लिए जिम्मेदार होते हैं. वैक्सीन का काम इस प्रोटीन को निष्क्रिय करना या किसी तरह ब्लॉक करना होगा.
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एयर कंडीशनर से संक्रमण
शुरुआत में कहा गया था कि संक्रमित व्यक्ति के सीधे संपर्क में आने से या फिर संक्रमित सतह को छूने से ही यह वायरस फैलता है. लेकिन अब पता चला है कि फ्लू के वायरस की तरह यह भी हवा से फैल सकता है, खास कर वहां, जहां एसी का इस्तेमाल हो रहा हो.
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भीड़ का खतरा
किसी बंद जगह में बड़ी संख्या में लोगों की उपस्तिथि खतरे की घंटी है. इसीलिए दुनिया के लगभग हर देश ने लॉकडाउन का सहारा लिया. अभी भी ज्यादातर देशों में सिनेमा हॉल, ट्रेड फेयर और बड़े इवेंट बंद हैं.
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मास्क का इस्तेमाल
विश्व स्वास्थ्य संगठन शुरू में संक्रमण पर काबू पाने के लिए मास्क के इस्तेमाल से इनकार करता रहा. लेकिन देशों ने उसके खिलाफ जा कर सार्वजनिक जगहों पर मास्क पहनना अनिवार्य किया. हालांकि अधिकतर मामलों में देखा जा रहा है कि लोग मास्क का सही इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.
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बचने का यही तरीका
दो अहम बातें जो शुरू से कही जा रही हैं और जिन पर अब भी कोई दो राय नहीं हैं, वे हैं - साबुन से अच्छी तरह हाथ धोना और सोशल डिस्टेंसिंग. हालांकि लॉकडाउन खुलने के बाद से सोशल डिस्टेंसिंग को ले कर संजीदगी भी कम हुई है.
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जानवरों से खतरा नहीं
हो सकता है कि आपका पालतू जानवर किसी तरह संक्रमित हो गया हो लेकिन अब तक हुए शोध दिखाते हैं कि इंसानों को उनसे कोई खतरा नहीं है. हालांकि इस दिशा में अभी और शोध चल रहे हैं.
महिलाओं की तुलना में पुरुषों को खतरा ज्यादा है. ए ब्लड ग्रुप के लोगों पर इसका ज्यादा असर होता है. पहले से बीमार लोगों का शरीर वायरस का ठीक से सामना नहीं कर पाता. मधुमेह, कैंसर और हृदय रोगियों को ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है.
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इम्यूनिटी बढ़ाएं
अब तक हुए सभी शोध इसी ओर इशारा करते हैं कि अगर आपका इम्यून सिस्टम मजबूत है, तो आप वायरस के असर से बच सकते हैं. यही वजह है कि बाजार में तरह तरह के इम्यूनिटी बूस्टर बिकने लगे हैं.
संक्रमण के बाद फिट हो जाने वाले व्यक्ति के खून में वायरस से लड़ने वाली एंटीबॉडी बनी रहती हैं. कुछ देशों में डॉक्टर इन एंटीबॉडी का इस्तेमाल मरीजों को ठीक करने के लिए कर रहे हैं. लेकिन कोरोना काल में लोग खून डोनेट करने से भी डर रहे हैं.
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आईसीयू में क्या होता है?
यूरोप में जब यह वायरस फैला तो डॉक्टर जल्द से जल्द मरीजों पर वेंटिलेटर इस्तेमाल करने लगे. लेकिन अब बताया जा रहा है कि वेंटिलेटर का इस्तेमाल फायदे से ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है. ऐसे में अब आईसीयू केवल ऑक्सीजन लगाने पर जोर दे रहे हैं.
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आईसीयू से निकलने के बाद
जहां पहले सिर्फ फेफड़ों पर ध्यान दिया जा रहा था, वहां अब मरीज के आईसीयू से निकलने के बाद बाकी के अंगों की भी जांच की जा रही है क्योंकि कई मामलों में इस वायरस को अंगों के नाकाम होने के लिए जिम्मेदार पाया गया है.
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डायलिसिस की जरूरत
यदि किडनी पर असर हुआ हो, तो डायलिसिस की जरूरत बन जाती है. कोलकाता में एक डॉक्टर मात्र 50 रुपये में लोगों का डायलिसिस कर रहा है. आम तौर पर इसके लिए बड़ा खर्च आता है.
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कौनसी दवा करती है असर?
अब तक इस वायरस से निपटने का कोई रामबाण इलाज नहीं मिला है. डॉक्टर कुछ दवाओं का इस्तेमाल जरूर कर रहे हैं लेकिन ये सभी दवाएं लक्षणों पर असर करती हैं, बीमारी पर नहीं. रेमदेसिविर इस मामले में काफी चर्चित दवा है.
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कब आएगी वैक्सीन?
कुछ लोगों का कहना है कि इस साल के अंत तक टीका बाजार में आ जाएगा, तो कुछ अगले साल की शुरुआत की बात कर रहे हैं. लेकिन टीके आम तौर पर इतनी जल्दी तैयार नहीं होते. और अगर बन भी जाए, तो पूरी आबादी तक उन्हें पहुंचाने में भी वक्त लग जाएगा.
तस्वीर: Eijkman Institute
कैसी है तैयारी?
फिलहाल अलग अलग देशों में 160 वैक्सीन प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है. टीबी की वैक्सीन को बेहतर बना कर इस्तेमाल लायक बनाने की कोशिश भी चल रही है. भारत के सीरम इंस्टीइट्यूट ने प्रोडक्शन की तैयारी कर ली है. इंतजार है तो सही फॉर्मूला मिल जाने का.
तस्वीर: Eijkman Institute
इंसानों पर टेस्ट का मतलब?
जून 2020 के अंत तक पांच टीकों का ह्यूमन ट्रायल हो चुका है. इंसानों पर टेस्ट का मकसद होता है यह पता करना कि इस तरह के टीके का इंसानों पर कोई बुरा असर तो नहीं होगा. हालांकि यह असर दिखने में भी काफी लंबा समय लग सकता है.
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हर्ड इम्यूनिटी कब मिलेगी?
जब आबादी के एक बड़े हिस्से को किसी बीमारी से इम्यूनिटी मिल जाती है, तो उसके फैलने का खतरा बहुत कम हो जाता है. जून के अंत तक दुनिया के एक करोड़ लोग कोरोना से संक्रमित हो चुके थे. लेकिन 7.8 अरब की आबादी में एक करोड़ हर्ड इम्यूनिटी बनाने के लिए काफी नहीं है. रिपोर्ट: फाबियान श्मिट/आईबी