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नेपाल के जेन जी विद्रोह का भारत और चीन पर क्या असर होगा

लेखनाथ पांडे
२४ सितम्बर २०२५

नेपाल में युवाओं के विरोध के कारण तत्कालीन राजनीतिक तंत्र भरभरा कर बिखर गया. अब नेपाल में एक नया अध्याय शुरू हो रहा है. क्या भारत, चीन और अमेरिका जैसी ताकतें नेपाल को भविष्य को आकार देने की कोशिश करेंगी?

नेपाल में सिंह दरबार की इमारत के ऊपर खड़े तीन युवा. पीछे इमारत में लगाई गई आग से उठता धुआं नजर आ रहा है.
नेपाल में युवाओं के विद्रोह के कारण सरकार ढह गई. तस्वीर: Niranjan Shrestha/AP Photo/picture alliance

नेपाल में युवाओं के नेतृत्व में हुए भ्रष्टाचार विरोधी विद्रोह ने के.पी. शर्मा ओली की सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया.

आंदोलन के कुछ ही दिनों के भीतर ओली की ताकत ढह गई. वह भी इतनी तेजी से ढही कि अब कुछ नेपाली अटकलें लगा रहे हैं कि प्रदर्शनकारियों को शायद बाहरी मदद मिली. इसी संदर्भ में धार्मिक गुरु दलाई लामा के दुर्लभ बधाई संदेश ने इस बहस को सोशल मीडिया पर और हवा दे दी. हालांकि, कई लोग मानते हैं कि यह क्रांति पूरी तरह से नेपाली जनता ने खुद की है.

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नेपाल के सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला चीफ जस्टिस रहीं सुशीला कार्की अब देश की नई प्रधानमंत्री हैंतस्वीर: Navesh Chitrakar/REUTERS

काठमांडू में पत्रकार देवेंद्र भट्टराई ने हाल ही में एक लेख में लिखा, "जनरेशन-जी के इस अभियान की तुलना अक्सर बांग्लादेश, श्रीलंका या सीरिया के आंदोलनों से की जाती है. लेकिन इस बीच यह नहीं भूलना चाहिए कि यह आंदोलन बाहरी प्रभाव से कम प्रेरित, बल्कि यहां के आंतरिक नेपाली नेताओं द्वारा पैदा किया और पोषित किया गया आंदोलन ज्यादा है."

राजनीतिक वैज्ञानिक सुचेता प्याकुरेल ने डीडब्ल्यू को बताया कि सरकार का गिरना "जनता की भारी हताशा की क्रांति" था, जो अवसरों की कमी और पक्षपात वाली राजनीति से उपजा था. इसके साथ ही उन्होंने "सार्वभौमिकता और बाहरी प्रभाव के बीच संबंध" की ओर भी इशारा किया.

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सुचेता ने कहा, "जैसे-जैसे हम राष्ट्र के संस्थानों और बाजार पर अपनी पकड़ खो रहे हैं, वैसे-वैसे अधिक युवा रोजगार के लिए विदेश जा रहे हैं. ऐसे में बाहरी प्रभाव का बढ़ना स्वाभाविक है."

सुशीला कार्की नेपाल की पहली महिला प्रधानमंत्री हैंतस्वीर: Navesh Chitrakar/REUTERS

अंतरराष्ट्रीय संतुलन बनाने की कोशिश में नेपाल

भारत और चीन के बीच बसा, लगभग तीन करोड़ की आबादी वाला नेपाल कई सालों से अस्थिरता से जूझ रहा है.

साल 2015 में नया संविधान लागू होने से लेकर अब तक तक नेपाल में आठ सरकारें बन चुकी है. ये सरकारें ज्यादातर सीपीएन-यूएमएल के ओली, नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा और सीपीएन (माओवादी केंद्र) के पुष्प कमल दहल, इन तीन नेताओं के इर्द-गिर्द ही घूमती रही हैं.

नेपाल की राजनीति का कुछ हिस्सा, खासकर वामपंथी और राजतंत्र का समर्थन करने वाले यह दावा करते रहे हैं कि भारत, अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसी विदेशी ताकतें नेपाल के राजनीतिक बदलावों के पीछे हैं. हाल में चीन भी विदेशी ताकतों की इस सूची में शामिल हो गया है. उसकी पारंपरिक "शांत कूटनीति" की छवि कमजोर पड़ गई है.

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आधिकारिक रूप से काठमांडू हमेशा ही "गुटनिरपेक्ष विदेश नीति" अपनाता आया है. यह सिद्धांत राजा पृथ्वीनारायण शाह ने 1768 में आधुनिक नेपाल को एकजुट करने के लिए अपनाया था. इस नीति का एक मुख्य हिस्सा है, "सबसे दोस्ती और दुश्मनी किसी से नहीं." देश के विकास कार्यों में सभी का कूटनीतिक सहयोग, खासतौर पर भारत और चीन का सहयोग सुनिश्चित करना इसकी मंशा है.

अमेरिका के व्यापक वैश्विक प्रभाव के कारण नेपाल, अमेरिका को भी अपना "तीसरा पड़ोसी" मानता आया है. भारत, चीन और अमेरिका, तीनों को ही नेपाल में गहरी दिलचस्पी रहती है और वे देश की राजनीति में अचानक आने वाले बदलावों को लेकर चिंतित रहते हैं.

नेपाल में कई लोग अब अटकलें लगा रहे हैं कि प्रदर्शनकारियों को शायद बाहर से मदद मिलीतस्वीर: Arun Sankar/AFP

भारत और चीन के बीच फंसा नेपाल

नेपाल और भारत के बीच गहरे सांस्कृतिक, आर्थिक और सुरक्षा संबंध है. भारत का नेपाल के साथ 1,751 किलोमीटर लंबा खुला बॉर्डर भी है. भौगोलिक और सांस्कृतिक नजदीकी की वजह से नेपाल में अस्थिरता का असर सबसे पहले भारत पर ही पड़ता है. हालांकि, भारत के लिए सुरक्षा सबसे बड़ी चिंता है. साथ ही, वह काठमांडू में एक भरोसेमंद साझेदार भी चाहता है ताकि रिश्ते सुचारू रूप से चलते रहें.

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नेपाल का उत्तरी बॉर्डर चीन के  स्वायत्त क्षेत्र, तिब्बत से लगता है और बीजिंग नेपाल में अस्थिरता को तिब्बत की सुरक्षा के लिए संभावित खतरे के रूप में देखता है.

चीन लगातार इस बात पर जोर देता आया है कि नेपाल "वन चाइना पॉलिसी" का पालन करे और अपने यहां किसी भी तरह की चीन-विरोधी गतिविधियों को रोके. नेपाल भी हमेशा से इस सिद्धांत की पुष्टि करता आया है और तिब्बत, हांगकांग, मकाओ और ताइवान को चीन का अभिन्न हिस्सा मानता है.

नेपाल में सोशल मीडिया पर बैन के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हुआ. इस असंतोष ने जल्द ही मौजूदा राजनीतिक स्थिति और भ्रष्टाचार के खिलाफ विद्रोह का रूप ले लियातस्वीर: AB Raoouf Ganie/DW

नेपाल में पश्चिमी देशों की दिलचस्पी

साल 2017 में नेपाल, चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) से जुड़ा. इसका उद्देश्य रेल, सड़क, डिजिटल और ऊर्जा नेटवर्क के जरिए दोनों देशों के बीच हिमालय पार करने वाले बहुआयामी संपर्क बनाना था.

भू-राजनीतिक विश्लेषक चंद्र देव भट्ट ने डीडब्ल्यू से बातचीत में बताया, "नेपाल की विदेश नीति का मकसद यही है कि वह तीनों क्षेत्रीय और वैश्विक ताकतों के साथ संतुलन बनाए रख सके." चंद्र देव भट्ट के मुताबिक, "बीजिंग के लिए एक स्थिर और शांत नेपाल के दो फायदे हैं. पहला, तिब्बत की सुरक्षा सुनिश्चित करना और दूसरा, छोटे देशों को चीन की वैश्विक नीतियों के साथ खड़ा करना."

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काठमांडू इस समय अमेरिका और उसके सहयोगी, यूरोपीय संघ, जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया के साथ भी रिश्ते मजबूत रखना चाहता है. ये देश नेपाल की नीतियों को सरकारी कार्यक्रमों और सिविल सोसाइटी फंडिंग के जरिए समर्थन देते हैं.

हाल ही में अमेरिका ने नेपाल को 530 मिलियन डॉलर की मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन ग्रांट दी है, ताकि देश की ऊर्जा व्यवस्था और सड़क ढांचे को बेहतर बनाया जा सके. इस फंडिंग को चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के जवाब के रूप में देखा जाता है.

चीन के कितने करीब थे ओली?

पिछले कुछ सालों में नेपाल कूटनीतिक और आर्थिक तौर पर चीन के काफी नजदीक आया है. विश्लेषकों का मानना है कि चीन का झुकाव साफ तौर पर नेपाल की वामपंथी पार्टियों, खासकर माओवादी और सीपीएन-यूएमएल की ओर अधिक रहा है.

अक्टूबर 2019 में जब चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने काठमांडू का दौरा किया था, तब से नेपाल के वामपंथी रुझान वाले प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति कई बार चीन की यात्रा कर चुके हैं. नेपाल में हालिया हिंसक अशांति से कुछ दिन पहले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री ओली बीजिंग में आयोजित सैन्य परेड में शामिल हुए थे. यह परेड चीन की साम्राज्यवादी जापान पर जीत की 80वीं वर्षगांठ के मौके पर हुई थी.

इस यात्रा के दौरान ओली ने भारत और चीन के बीच लिपुलेख पास के जरिए आर्थिक और तीर्थयात्रा मार्ग खोलने के समझौते को लेकर भी नेपाल की चिंता जताई थी. लिपुलेख पास पर नेपाल का ऐतिहासिक दावा रहा है. इस दौरान उन्होंने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाकात की थी.

इसके अलावा, चीनी पक्ष का दावा है कि नेपाल ने ग्लोबल सिक्यॉरिटी इनिशिएटिव (जीएसआई) का भी समर्थन किया है. इसमें चीन के नेतृत्व में सुरक्षा ब्लॉक बनाने की योजना है, जो नेपाल की तटस्थ नीति का उल्लंघन भी माना जा सकता है. हालांकि, नेपाल ने इस बात से इनकार किया कि ओली ने जीएसआई का समर्थन किया है.

चंद्र देव भट्ट बताते हैं कि चीन की ओर झुकाव वाली ओली की रणनीति "असामान्य" थी. उन्होंने कहा, "भारत और पश्चिम के साथ अधिक बातचीत होने के कारण, चीन की ओर नेपाल के रणनीतिक झुकाव को नकारात्मक रूप में देखा जा सकता है."

जापान पहला ऐसा देश था, जिसने नेपाल में शासन परिवर्तन पर बधाई दी थी. यह टोक्यो के ओली सरकार के साथ कूटनीतिक असंतोष का संकेत देता है.

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कार्की की सरकार अब भी अस्थिर

पूर्व सुप्रीम कोर्ट जस्टिस सुशीला कार्की के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार का भारत, चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र समेत अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने काफी गर्मजोशी से स्वागत किया.

पिछले हफ्ते कार्की से फोन पर बात करते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को "शांति और स्थिरता बहाल करने के उनके प्रयासों के प्रति अडिग समर्थन" दिया. चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा कि बीजिंग "नेपाल के लोगों द्वारा स्वतंत्र रूप से चुनी गई विकास यात्रा का सम्मान करता है."

अंतरिम सरकार फिलहाल चुनावों के आयोजन पर ध्यान केंद्रित कर रही है. चुनाव के बाद सत्ता एक निर्वाचित कैबिनेट को सरकार को सौंपी जाएगी. ऐसे में अभी यह कहना मुश्किल है कि अंतरिम नेता वैश्विक और क्षेत्रीय शक्तियों के साथ संबंधों को कैसे आकार देंगी.

नेपाल के 'पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट' की बोर्ड सदस्य इंद्रा अधिकारी ने कहा कि विभिन्न सत्ता गलियारों में नेपाल के राजनीतिक बदलाव का श्रेय लेने की गूंज सुनाई दे रही हैं. उन्होंने चेतावनी भी दी, "नेपाल को उसकी पारंपरिक गुटनिरपेक्ष विदेश नीति से भटकने और भू-राजनीतिक जाल में फंसने से बचना होगा."

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