ट्रंप और शी जिनपिंग की मुलाकात से क्या हासिल हो सकता है?
२९ अक्टूबर २०२५
शी जिनपिंग और डॉनल्ड ट्रंप के बीच आमने-सामने की बातचीत का मंच सज चुका है. इस मुलाकात पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी हैं. हालिया हफ्तों में दोनों देशों के बीच व्यापार युद्ध ऊपर-ऊपर चढ़ता रहा. विशेषज्ञों का मानना है कि वार्ता में कुछ रियायतों की उम्मीद जरूर है, लेकिन प्रतिस्पर्धा थमने की संभावना कम ही है.
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, 30 अक्टूबर को दक्षिण कोरिया में मिलने वाले हैं. एशिया-पैसिफिक इकोनॉमिक कोऑपरेशन (एपीईसी) की बैठक के साइडलाइन में यह मुलाकात हो रही है. यह बैठक ऐसे समय पर हो रही है, जब दोनों देश अपने व्यापारिक तनाव कम करने की कोशिश कर रहे हैं.
इस उच्च-स्तरीय वार्ता के लिए, पिछले हफ्ते दोनों देशों के व्यापार प्रतिनिधियों ने समझौते का एक फ्रेमवर्क तैयार किया. इसके तहत अमेरिका, चीनी आयात पर लगाए गए टैरिफ में कटौती करेगा. और, चीन दुर्लभ खनिजों के निर्यात प्रतिबंध को टालने पर सहमति दे रहा है.
सैम ह्यूस्टन स्टेट यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर डेनिस वेंग ने डीडब्ल्यू को बताया, "दोनों ही पक्ष कुछ न कुछ रियायत दे रहे हैं, जिससे बाहरी लोगों, खासकर निवेशकों में थोड़ी उम्मीद जगी है."
दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के फिर से बातचीत पर लौटने की संभावना ने इस हफ्ते वैश्विक शेयर बाजारों में तेजी ला दी है. हालांकि, विश्लेषकों का मानना है कि यह अस्थायी समझौता, लंबे समय में बीजिंग और वॉशिंगटन के बीच की "रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता की मूल प्रकृति" को बदलने की संभावना उजागर नहीं करता है.
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वेंग ने कहा, "सब जानते हैं कि उनके बीच प्रतिस्पर्धा है, लेकिन कोई भी यह नहीं चाहता है कि यह एकाएक आर्थिक गिरावट का कारण बन जाए." उन्होंने आगे कहा कि दोनों देशों का लक्ष्य है कि उनके तनावपूर्ण संबंधों का असर संतुलित और नियंत्रित तरीके से पड़े, ताकि नुकसान कम से कम हो.
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दक्षिण कोरिया में होने वाली यह बैठक, ट्रंप के दोबारा शासन में लौटने के बाद उनकी और शी की पहली आमने-सामने की मुलाकात होगी. हालांकि, दोनों नेताओं ने इस साल अब तक कम से कम तीन बार फोन पर बातचीत की है. आखिरी बातचीत सितंबर में हुई थी.
इस बीच, दोनों देशों के अधिकारियों के बीच पांच दौर की व्यापार वार्ताएं भी हुई हैं. खासकर जब से उन्होंने एक-दूसरे पर शुल्क और निर्यात प्रतिबंध लगाकर व्यापार युद्ध को फिर तेज किया है.
मलेशिया में हुई हालिया व्यापार वार्ताओं के बाद, अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि चीन आने वाले वर्षों में अमेरिकी सोयाबीन की खरीद फिर से बड़ी मात्रा में शुरू करेगा. साथ ही, अपने दुर्लभ खनिजों (रेअर अर्थ) के विस्तारित लाइसेंसिंग नियमों को एक साल के लिए टाल कर फिर से उनकी समीक्षा करेगा.
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इन घटनाक्रमों ने एक तरह का 'देजा वू' जैसा असर छोड़ा है. चूंकि, ट्रंप ने पिछली बार भी यानी 2019 में अपने पहले कार्यकाल के दौरान शी जिनपिंग से व्यापारिक विवादों के बीच मुलाकात की थी. हालांकि, इस बार चीन के ऐसे समझौते के लिए तैयार होने की संभावना कम ही मानी जा रही है.
सिंगापुर की नेशनल यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर जा इयान चोंग ने डीडब्ल्यू से कहा, "शी जिनपिंग में अब कहीं ज्यादा आत्मविश्वास हैं. इस बार शायद वह अपनी बात को और अधिक दृढ़ता के साथ आगे रखना चाहेंगे."
वेंग ने भी कहा किया कि इस बार "बीजिंग ने ट्रंप को बहुत गहराई से समझा है" और अपनी अगली चाल उसी हिसाब से तय की है. इसके तहत कुछ रियायतें पहले से ही ऐसे तैयार की गई हैं, जो रणनीतिक सौदेबाजी करने में मददगार साबित हो सकें. उन्होंने कहा, "असल में, चीन ने जनवरी में ट्रंप के पद संभालने के तुरंत बाद ही सोयाबीन की खरीद को बंद कर दिया था. यह दर्शाता है कि इस पूरे मुद्दे को पहले से ही योजनाबद्ध तरीके से तैयार किया गया है."
ताइवान की क्षेत्रीय सुरक्षा बन सकता है मुख्य मुद्दा
व्यापारिक विवादों के अलावा, ट्रंप और शी के बीच ताइवान को लेकर बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव, हांगकांग के मीडिया उद्योगपति जिमी लाई की रिहाई और रूस के यूक्रेन पर किए हमले में बीजिंग के कथित समर्थन जैसे मुद्दों पर भी चर्चा होने की उम्मीद है.
ताइवान को चीन अपना हिस्सा मानता है और लगातार उसके "रीयूनिफिकेशन" के लिए बल प्रयोग भी करता है. आज भी अमेरिका-चीन संबंधों में "सबसे संवेदनशील" मुद्दा बना हुआ है.
अमेरिका के ताइवान से औपचारिक राजनयिक संबंध तो नहीं हैं, लेकिन फिर भी वह उसका मुख्य सुरक्षा सहयोगी है. वह ताइवान को सैन्य उपकरण और हथियार उपलब्ध कराता रहता है. हालांकि, ट्रंप-शी बैठक से पहले यह चिंता भी बढ़ गई है कि इन सब के बीच कहीं अमेरिका का ताइवान के प्रति समर्थन कमजोर न पड़ जाए.
सितंबर में वॉल स्ट्रीट जर्नल ने एक रिपोर्ट छापी कि शी जिनपिंग, ट्रंप प्रशासन पर दबाव बना रहे हैं कि वह आधिकारिक रूप से "ताइवान की स्वतंत्रता का विरोध" करने की घोषणा करे. वेंग ने डीडब्ल्यू को बताया, "संभावना है कि ट्रंप ताइवान को लेकर ऐसे बयान दें, जिसे बीजिंग हानिरहित या उकसाने वाला न समझे, चूंकि ट्रंप आमतौर पर ऐसा ही रुख अपनाते हैं."
इन अटकलों के बीच, अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने बीते दिनों कहा कि चीन के साथ व्यापार समझौते की सफल बातचीत के लिए ट्रंप प्रशासन, ताइवान के प्रति लंबे समय से चले आ रहे अमेरिकी समर्थन से पीछे नहीं हटेगा. हालांकि, वेंग ने डीडब्ल्यू से कहा कि रुबियो का यह बयान काफी अस्पष्ट है, क्योंकि "ताइवान को लेकर अमेरिका का रुख हमेशा लचीला और परिस्थितियों के हिसाब से बदलने वाला रहा है."
अगर अमेरिका अपनी दशकों पुरानी नीति में बदलाव करता है, यानी औपचारिक रूप से वह "ताइवान की स्वतंत्रता का समर्थन नहीं करता" है, तो यह बीजिंग के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत होगी, जिससे ताइवान की स्थिति कमजोर हो सकती है.
लेकिन चोंग का मानना है कि अमेरिका के रुख में कोई बड़ा बदलाव होने की संभावना कम ही है, क्योंकि ताइवान की हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक स्थिति बहुत अहम है. अगर अमेरिका का रुख बदलता है, तो "इसका असर पूरे हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर पड़ेगा."
अमेरिका-चीन संबंध का अगला कदम क्या होगा?
ट्रंप 29 अक्टूबर को दक्षिण कोरिया पहुंचे, लेकिन वह अगले दिन ही वहां से रवाना हो जाएंगे और एपीईसी सम्मेलन के मुख्य सत्र में शामिल नहीं होंगे. रिपोर्ट्स के अनुसार, उन्होंने सम्मेलन में मौजूद सीईओ से कहा कि उन्हें विश्वास है कि अमेरिका और चीन के बीच समझौता होने वाला है, जो कि "दोनों के लिए फायदेमंद" होगा.
अमेरिका को पछाड़ने के लिए क्या है शी जिनपिंग की योजना
ट्रंप पहले भी संकेत दे चुके हैं कि वह अगले साल की शुरुआत में चीन का दौरा करने की योजना बना रहे हैं. हालांकि, अब तक उन्होंने कोई तय तारीख नहीं बताई है. वेंग का मानना है कि आगामी वार्ता से लेकर ट्रंप के चीन दौरे तक का समय, दोनों देशों के बीच कायम तनाव में कुछ कमी कर सकता है.
हालांकि, इसके साथ ही चोंग ने यह चेतावनी भी दी कि ट्रंप-शी की यह बैठक कई संकेत जरूर देती है, लेकिन "बैठक के बाद क्या होता है, यह भी उतना ही अहम होगा." चीन की ओर संकेत करते हुए उन्होंने आगे कहा, "यह याद रखना भी जरूरी है कि अमेरिका और चीन, दोनों ही अपने किए किसी भी समझौते से पीछे हटने में इच्छुक और सक्षम हैं."