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अमेरिका- आसियान शिखर वार्ता क्या रंग लाएगी?

राहुल मिश्र
१० मई २०२२

रुस-यूक्रेन युद्ध ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है. एशियाई देशों में कहीं न कहीं यह बात घर करने लगी है कि कहीं अमेरिका का ध्यान इंडो-पैसिफिक के देशों खास तौर पर दक्षिणपूर्व एशियाई देशों से हट तो नहीं रहा?

ASEAN Summit 2021 I Joe Biden I USA
2021 के अमेरिका-आसियान देशों के शिखर सम्मेलन की तस्वीर तस्वीर: Adam Schultz/White House/ZUMA Wire/imago images

इस समय रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण पैदा हुई आर्थिक, सामरिक, मानवीय और कूटनीतिक समस्या से अमेरिका, यूरोप और पश्चिम के देश कई स्तरों पर बेहाल हैं. अमेरिकी प्रशासन को भी इस बात की चिंता होने लगी है कि कहीं रुस- यूक्रेन युद्ध की आड़ लेकर चीन (और रूस) इंडो-पैसिफिक में अपना दबदबा बढ़ाने की कवायद न करने लगें. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का आसियान के दस देशों को अमेरिका आने और शिखर वार्ता में शिरकत करने का न्योता इसी उद्देश्य से प्रेरित है. यह मुलाकात 12 और 13 मई को होनी है.

अमेरिकी प्रशासन की तरफ से जितने भी वक्तव्य आए हैं उनसे साफ जाहिर होता है कि अमेरिका आसियान देशों को रूस के मामले पर ज्यादा स्पष्ट रुख अपनाने, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में नियम-बद्ध अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के पालन और चीन से निपटने में साझा जिम्मेदारी, और हिन्द-प्रशांत आर्थिक ढांचे में आसियान को शामिल करने पर जोर देगा.

रूस-यूक्रेन युद्ध के मुद्दे पर जब संयुक्त राष्ट्र संघ में रूस के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया गया तब सिंगापुर और फिलीपींस (और म्यांमार भी) के अलावा सभी देश या तो प्रस्ताव के खिलाफ थे या उनके देश का इस मसले पर तटस्थ दृष्टिकोण था. इस बात से अमेरिका और पश्चिम के तमाम देशों को हैरानी भी हुई और झटका भी लगा.

अमेरिका और यूरोप के तमाम देशों को लगता है कि इस मुद्दे पर अभी भी बात की जा सकती है. और रूस का साथ न देने की या उसे आसियान रीजनल फोरम और ईस्ट एशिया समिट की बैठकों में इस साल न्योता न देने के लिए आसियान देशों को मनाया जा सकता है. लेकिन ऐसा हो पाएगा यह कहना बहुत ही मुश्किल है. अगर बाइडेन ऐसा करते हैं तो आसियान देशों के लिए यह असहज करने वाली स्थिति होगी. पहले ही G-20 में इस साल के संयोजक इंडोनेशिया ने रूस को न्योता भेज रखा है.

वैसे इस शिखर वार्ता में आसियान के दसों देश शिरकत नहीं कर पाएंगे क्योंकि म्यांमार के सेनाध्यक्ष मिन आंग लाई को बुलाया नहीं गया. और फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते ने बैठक में आने से मना कर दिया था.

बीते साल फरवरी में म्यांमार की सेना तात्मादाव ने जनरल मिन के नेतृत्व में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार का तख्तापलट कर दिया और खुद सत्ता पर काबिज हो गई. पिछले लगभग 15 महीनों में म्यांमार में गृहयुद्ध जैसी स्थिति छिड़ गयी है. म्यांमार पर लोकतंत्र बहाल करने का दबाव भी है लेकिन सेना टस से मस होने का नाम नहीं ले रही.

अमेरिका के साथ शिखर वार्ता में म्यांमार को न बुलाना का निर्णय भी इसी बात से प्रेरित है कि शायद बार - बार बॉयकॉट किये जाने से शायद म्यांमार की सेना को कुछ समझ आये.

जहां तक फिलीपींस का सवाल है तो कल ही वहां आम चुनाव संपन्न हुए हैं. इन चुनावों में सत्तारूढ़ रोड्रिगो डुटेर्टे की करारी हार हुई है और फिलीपींस के पूर्व तानाशाह मार्कोस के पुत्र फर्डिनेंड मार्कोस जूनियर उर्फ बोंगबोंग मार्कोस को बड़ी जीत हासिल होने के आसार हैं. दुतेर्ते को मालूम था कि उनकी हार होगी शायद इसीलिए उन्होंने बैठक में शामिल न होने का निर्णय लिया. इन दोनों देशों की गैरमौजूदगी अपने आप में बहुत कुछ कह जाती है. मानवाधिकार-सम्बन्धी मूल्यों और लोकतंत्र के संरक्षण जैसे मुद्दों पर आसियान और अमेरिका के बीच हमेशा से ही असहजता का माहौल रहा है.

आसियान देशों को बखूबी मालूम है कि शिखर वार्ता में अमेरिका अपनी बातें मनवाने और लोकतंत्र और मानवाधिकारों पर ज्ञान देने की कोशिश करेगा. शायद इसी से निपटने के लिए और एक साझा एजेंडा तैयार करने के लिए आसियान देशों के नेताओं ने निर्णय लिया है कि वह बाइडेन से मुलाकात से पहले एक बार वाशिंगटन में आपसी बैठक करेंगे.

यह एक अच्छा कदम है. आसियान के सामने कई चुनौतियां हैं जिनसे निपटने में अमेरिका उनकी काफी मदद कर सकता है. मामला सुरक्षा सहयोग का हो या व्यापार संबंधों का - अमेरिका की मौजूदगी आसियान के लिए अच्छी खबर ही रही है. लेकिन चीन को लेकर कुछ आसियान देश अमेरिकी रुख से खुश नहीं दिखते. दक्षिणपूर्व एशिया के ये तमाम छोटे और मझोले देश ये मानते हैं कि चीन और अमेरिका की लड़ाई में उन्हें न पड़ने की जरूरत है और न इससे उन्हें कोई फायदा होगा.

यह बात जरूर है कि दक्षिण चीन सागर में चीन की अतिक्रमणकारी गतिविधियां और आक्रामक रवैये से तमाम देश परेशान हैं और इस समस्या के निवारण के लिए वो महाशक्तियों का सहयोग भी चाहते हैं. अमेरिका इस नीति के हिसाब से सबसे करीबी देश हो सकता है. लेकिन अमेरिका के लिए बात तब बिगड़ जाती है जब वह इन देशों को अपने रणनीतिक स्वार्थ साधने के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश करता है. अमेरिका को यह कोशिश करनी होगी कि आसियान देशों के साथ चीन के मुद्दे पर ऐसा काम न करे कि आसियान देशों को लगे कि उन्हें ढाल बना कर अमेरिका चीन पर निशाना साधना चाहता है.

चीन पर आसियान की बड़ी आर्थिक निर्भरता है. और इसी निर्भरता के चलते अधिकांश देश मन मार कर भी चीन के साथ रहने को तैयार हैं. अगर अमेरिका आसियान के साथ अपने संबंधों में व्यापक परिवर्तन लाने को इच्छुक है तो उसे आर्थिक-व्यापारिक मोर्चे पर कुछ बड़ा करना होगा.

इंडो-पैसिफिक इकनोमिक फ्रेमवर्क (हिन्द प्रशांत आर्थिक ढांचा) इस दिशा में एक अच्छा कदम है. लेकिन रीजनल कम्प्रेहैन्सिव इकनोमिक पार्टनरशिप के जरिये आसियान और उसके चार अन्य डायलॉग पार्टनरों के साथ मुक्त व्यापार समझौता कर चुके चीन के मुकाबले अमेरिका अभी आर्थिक मोर्चे पर कुछ कमजोर दिखता है. अगर अमेरिका इस कमी को भरने की कोशिश करता है तो आसियान के लिए यह एक बड़ी और अच्छी खबर होगी. बाइडेन और आसियान दल के नेता किस हद तक इस लक्ष्य को हासिल कर पाते हैं यह देखना दिलचस्प होगा.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)

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