1950 और 1960 के दशक में पूर्वी जर्मनी (जीडीआर) के निवासियों ने हजारों की संख्या में बीबीसी लंदन को चिट्ठियां लिख कर बताया कि वे किन हालात में जी रहे हैं. अभिव्यक्ति की आजादी के लिए जीडीआर में कोई जगह नहीं थी.
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बिना अभिव्यक्ति के या फिर मीडिया की स्वतंत्रता के लोकतंत्र नहीं बन सकता. 1949 में दो हिस्सों में बंटने के बाद जर्मनी के पूर्वी हिस्से को नाम मिला जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (जीडीआर). इसके सिर्फ नाम में ही लोकतंत्र था. यहां का मीडिया सरकार का ही एक अंग था. सरकार की किसी भी तरह की आलोचना करना या उसके फैसलों पर सवाल उठाना ना केवल वर्जित था, बल्कि खतरनाक भी था. नेतृत्व की नजरों में खटकने वाले अकसर सलाखों के पीछे पहुंच जाते थे. इसके बावजूद पूर्वी जर्मनी में कुछ लोग बीबीसी की मदद से नेतृत्व के खिलाफ अपनी आवाज उठा रहे थे.
4 अप्रैल 1949 को बीबीसी ने जर्मनी में रेडियो प्रोग्राम शुरू किया था. इसे "जर्मन ईस्ट जोन" प्रोग्राम कहा जाता था. बीबीसी उन लोगों तक पहुंचना चाहता था जो सोवियत के कब्जे वाले हिस्से में रह रहे थे. प्रोग्राम शुरू होने के छह महीने बाद जीडीआर बना. शुरुआत से ही यहां के लोग राजनीतिक और आर्थिक स्थिति से असंतुष्ट थे. बीबीसी उनके लिए अपनी शिकायतें बताने का एक जरिया बना. खास कर शो "लेटर्स विदाउट सिग्नेचर" के माध्यम से.
बीबीसी में पहुंची 40,000 चिट्ठियां
यह शो 1974 तक चला और इसमें से बीस साल ऑस्टिन हैरिसन ने शो को होस्ट किया. हर शो में वे कहते, "आप जहां भी हों, आपके मन में जो भी चल रहा हो, बस हमें लिख भेजिए." जवाब में बीबीसी को 40,000 चिट्ठियां मिलीं. क्योंकि पूर्वी जर्मनी से चिट्ठी भेजना संभव नहीं था, तो लोग किसी तरह उन्हें पश्चिमी जर्मनी के उन रेडियो चैनल तक पहुंचा देते जिन्होंने नाजी काल में लेखक थोमास मन के भाषणों का प्रसारण करने की हिम्मत दिखाई थी. यहां से लोगों की चिट्ठियां लंदन तक जाती. बीबीसी ने रेडियो का स्वरूप इस तरह से बदला कि अब वहां किसी नोबेल विजेता के शब्द नहीं, बल्कि आम लोगों की परेशानियां सुनने को मिल रही थीं.
इन चिट्ठियों को आज भी सुना जा सकता है. जर्मनी की राजधानी बर्लिन के म्यूजियम फॉर कम्यूनिकेशन में "40,000 लेटर्स" नाम से प्रदर्शनी चल रही है, जहां ऑस्टिन हैरिसन की आवाज आज भी उस वक्त की यादें ताजा कर रही है.
बर्लिन दीवार की "कैदी" की चिट्ठी
1961 में जब बर्लिन की दीवार खड़ी हुई, तब एक महिला ने लिखा कि कैसे भविष्य को ले कर वह "बेहद हतोत्साहित" महसूस कर रही थी. उन्होंने उस दौर की सोवियत नेता निकीता ख्रुश्चेव की आलोचना की और तत्कालीन पश्चिमी बर्लिन के मेयर विली ब्रांट से अपील की कि वे निकीता ख्रुश्चेव को निजी रूप से जा कर लोगों की पीड़ा समझाएं. पत्र के अंत में अपने नाम की जगह उन्हेंने लिखा "एक कैदी".
इस महिला की अगर पहचान हो जाती तो उन्हें और उनके परिवार को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती थी. इसके बाद कई पत्रों में लोगों ने खुद को कैदी कहना शुरू कर दिया. कार्ल हाइंत्स बोर्खार्ट भी उन लोगों में से थे जिन्होंने चिट्ठियां लिखीं लेकिन वे उस महिला की तरह खुशकिस्मत नहीं थे. 1960 के दशक में उन्होंने कई चिट्ठियां लिखीं. एक पत्र में उन्होंने लिखा, "सरकार को ले कर कोई भी खुश नहीं है लेकिन डर के मारे कोई कुछ नहीं कहता."
प्रोपेगंडा का लगा आरोप
1970 में पूर्वी जर्मनी की खुफिया पुलिस श्टासी ने उनका पता लगा लिया और उन्हें "सरकार के खिलाफ काम करने" के जुर्म में दो साल की कैद सुनाई. उन पर सरकार के खिलाफ प्रोपेगंडा से जुड़े होने का आरोप लगा. लेकिन आज उस वक्त को याद करते हुए कार्ल हाइंत्स कहते हैं कि बीबीसी का वह शो प्रोपेगंडा मात्र नहीं था, बल्कि उसमें पश्चिमी जगत की आलोचना भी होती थी. इसमें ब्रिटेन की राजनीति और अमेरिका के वियतनाम में छेड़े गए युद्ध पर भी चर्चा होती थी.
कार्ल हाइंत्स बताते हैं कि शो में जीडीआर के कोने कोने से लोग चिट्ठियां लिखा करते थे. उसमें हर उम्र, हर तबके के लोग शामिल थे फिर चाहे किसान हों, कामकाजी लोग, टीचर या बच्चे. इन सब लोगों की एक आम शिकायत यह थी कि पश्चिम ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया था. दीवार खड़ी होने के बाद उनकी चिंताएं और बढ़ गई थीं.
आजादी पर हमेशा रहा खतरा
लेखक सुजाने शेडलिष ने इन पत्रों का जर्मन से अंग्रेजी में अनुवाद किया और 2017 में "लेटर्स विदाउट सिग्नेचर" के नाम से एक किताब प्रकाशित की. इसी किताब से प्रेरित हो कर बर्लिन के म्यूजियम में प्रदर्शनी लगाई गई. सुजाने शेडलिष का कहना है कि जो काम उस जमाने में रेडियो कर रहा था, वही काम आज सोशल मीडिया कर रहा है. मीडिया और अभिव्यक्ति की आजादी में वे इंटरनेट का बड़ा योगदान देखती हैं. उनका कहना है, "इंटरनेट के जरिए आप अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं, खास कर ऐसी जगहों पर जहां सरकारें आपको यह छूट नहीं देती हैं."
बर्लिन में लगी प्रदर्शनी में अतीत की यादें हैं, तो वर्तमान के किस्से भी हैं. सऊदी अरब के ब्लॉगर राइफ बदावी से ले कर पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई तक यहां सब का जिक्र है. सुजाने शेडलिष कहती हैं, "आजादी के लिए आवाज हमेशा ही उठती रही है - पहले रेडियो पर उठती थी, अब ऑनलाइन उठ रही है."
नए प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में चार स्कैंडेनेवियाई देशों को पत्रकारों के लिए सबसे अच्छा माना गया है. भारत, पाकिस्तान और अमेरिका में पत्रकारों का काम मुश्किल है. जानिए रिपोर्टस विदाउट बॉर्डर्स के इंडेक्स में कौन कहां है.
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1. नॉर्वे
दुनिया भर में प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में नॉर्वे पहले स्थान पर कायम है. वैसे दुनिया में जब भी बात लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आती है तो नॉर्वे बरसों से सबसे ऊंचे पायदानों पर रहा है. हाल में नॉर्वे की सरकार ने एक आयोग बनाया है जो देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की परिस्थितियों की व्यापक समीक्षा करेगा.
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2. फिनलैंड
नॉर्वे का पड़ोसी फिनलैंड पिछले साल की तरह इस बार भी प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में दूसरे स्थान पर है. जब 2018 में हेलसिंकी में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मुलाकात हुई तो एयरपोर्ट से लेकर शहर तक पूरे रास्ते पर अंग्रेजी और रूसी भाषा में बोर्ड लगे थे, जिन पर लिखा था, "श्रीमान राष्ट्रपति, प्रेस स्वतंत्रता वाले देश में आपका स्वागत है."
डेनमार्क प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में एक साल पहले के मुकाबले दो पायदान की छलांग के साथ पांचवें से तीसरे स्थान पर पहुंचा है. 2015 के इंडेक्स में भी उसे तीसरे स्थान पर रखा गया था. लेकिन राजधानी कोपेनहागेन के करीब 2017 में स्वीडिश पत्रकार किम वाल की हत्या के बाद उसने अपना स्थान खो दिया था.
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4. स्वीडन
1776 में दुनिया का पहला प्रेस स्वतंत्रता कानून बनाने वाला स्वीडन इस इंडेक्स में चौथे स्थान पर है. पिछले साल वह तीसरे स्थान पर था. वहां कई लोग इस बात से चिंतित हैं कि बड़ी मीडिया कंपनियां छोटे अखबारों को खरीद रही हैं. स्थानीय मीडिया के 50 फीसदी से ज्यादा हिस्से पर सिर्फ पांच मीडिया कंपनियों का कब्जा है.
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5. नीदरलैंड्स
अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से नीदरलैंड्स में मीडिया स्वतंत्र है. हालांकि स्थापित मीडिया पर चरमपंथी पॉपुलिस्ट राजनेताओं के हमले बढ़े हैं. इसके अलावा जब डच पत्रकार दूसरे देशों के बारे में नकारात्मक रिपोर्टिंग करते हैं तो वहां की सरकारें डच राजनेताओं पर दबाव डालकर मीडिया के काम में दखलंदाजी की कोशिश करती हैं.
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6. जमैका
कैरेबियन इलाके का छोटा सा देश जमैका प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में छठे स्थान पर है. वहां 2009 से प्रेस की स्वतंत्रता को कोई खतरा और फिर पत्रकारों के खिलाफ हिंसा का कोई गंभीर मामला देखने को नहीं मिला है. हालांकि रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स कुछ कानूनों को लेकर चिंतित है जिन्हें पत्रकारों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है.
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7. कोस्टा रिका
पूरे लैटिन अमेरिका में मानवाधिकारों और प्रेस स्वतंत्रता का सम्मान करने में कोस्टा रिका का रिकॉर्ड सबसे अच्छा है. यह बात इसलिए भी अहम है क्योंकि पूरा इलाका भ्रष्टाचार, हिंसक अपराधों और मीडिया के खिलाफ हिंसा के लिए बदनाम है. लेकिन कोस्टा रिका में पत्रकार आजादी से काम कर सकते हैं और सूचना की आजादी की सुरक्षा के लिए वहां कानून हैं.
तस्वीर: picture alliance/maxppp/F. Launette
8. स्विट्जरलैंड
मोटे तौर पर स्विटजरलैंड में राजनीतिक और कानूनी परिदृश्य को पत्रकारों के लिए बहुत सुरक्षित माना जा सकता है, लेकिन 2019 में जिनेवा और लुजान में कई राजनेताओं ने पत्रकारों के खिलाफ मुकदमे किए. इससे मीडिया को लेकर लोगों में अविश्वास पैदा हो सकता है. पहले वहां मीडिया की आलोचना तो होती थी लेकिन शायद ही कभी मुकदमे होते थे.
तस्वीर: dapd
9. न्यूजीलैंड
न्यूजीलैंड में प्रेस स्वतंत्र है लेकिन कई बार मीडिया ग्रुप मुनाफे के चक्कर में अपनी स्वतंत्रता और बहुलतावाद का ध्यान नहीं रखते हैं जिससे पत्रकारों के लिए खुलकर काम कर पाना संभव नहीं होता. जब मुनाफा अच्छी पत्रकारिता की राह में रोड़ा बनने लगे तो प्रेस की स्वतंत्रता प्रभावित होने लगती है. फिर भी, न्यूजीलैंड का मीडिया बहुत से देशों से बेहतर है.
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10. पुर्तगाल
180 देशों वाले इस इंडेक्स में पुर्तगाल दसवें पायदान पर है. हालांकि वहां पत्रकारों को बहुत कम वेतन मिलता है और नौकरी को लेकर भी अनिश्चित्तता बनी रहती है, लेकिन रिपोर्टिंग का माहौल तुलनात्मक रूप से बहुत अच्छा है. हालांकि कई समस्या बनी हुई हैं. यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय के आदेशों के बावजूद पुर्तगाल में अपमान और मानहानि को अपराध के दायरे में रखा गया है.
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11. जर्मनी
प्रेस की आजादी को जर्मनी में संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है लेकिन दक्षिणपंथी लगातार जर्मन मीडिया को निशाना बना रहे हैं. हाल के समय में पत्रकारों पर ज्यादातर हमले धुर दक्षिणपंथियों के खाते में जाते हैं, लेकिन कुछ मामलों में अति वामपंथियों ने भी पत्रकारों पर हिंसक हमले किए हैं. दूसरी तरफ डाटा सुरक्षा और सर्विलांस को लेकर भी लगातार बहस हो रही है.
तस्वीर: picture-alliance/ZB
भारत और दक्षिण एशिया
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत को बहुत पीछे यानी 142वें स्थान पर रखा गया है. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के मुताबिक 2019 में बीजेपी की दोबारा जीत के बाद मीडिया पर हिंदू राष्ट्रवादियों का दबाव बढ़ा है. अन्य दक्षिण एशियाई देशों में नेपाल को 112वें, श्रीलंका को 127वें, पाकिस्तान को 145वें और बांग्लादेश को 151वें स्थान पर रखा गया है.
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अमेरिका, चीन और रूस
इंडेक्स के मुताबिक अमेरिका 42वें स्थान पर है. वहां प्रेस की आजादी को राष्ट्रपति ट्रंप के कारण लगातार नुकसान हो रहा है. लेकिन दो अन्य ताकतवर देशों चीन और रूस में स्थिति और भी खतरनाक है. रूस की स्थिति में पिछले साल के मुकाबले कोई बदलाव नहीं हुआ और वह 149 वें स्थान पर है जबकि चीन नीचे से चौथे पायदान यानी 177वें स्थान पर है.
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पत्रकारों के लिए सबसे खराब देश
इंडेक्स में उत्तर कोरिया (180), तुर्कमेनिस्तान (179) और इरीट्रिया सबसे नीचे है. किम जोंग उन के शासन वाले उत्तर कोरिया में पूरी तरह से निरंकुश शासन है. वहां सिर्फ सरकारी मीडिया है. जो सरकार कहती है, वही वह कहता है. इरीट्रिया और तुर्कमेनिस्तान में भी मीडिया वहां की सरकारों के नियंत्रण में ही है.